Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 213
________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहन्ती ३ - $ ३१६, तं जहा – बेइंदिओ सत्याणे चैव संखेज्जभागड्डिमेगममयं काढूण पुणो विदियसमए अवदिबंधं करिय तदियसमए तेईदिए सुप्पज्जिय संखेज्जभागवड्डीए कद ए लद्धमंतरं होदि । संपहि संखेज्जगुणवड्डीए जहण्णमंतरं वृच्चदे । तं जहा - एईदिएण दो विग्ग काढूण सण्णी सुप्पण्णेण पढमविग्गहे संखेज्जगुणवड्डि करिय विदियविग्गहे अवदि करिय तदियसमए सरीरं घेत्तृण संखेज्जगुणवड्डीए कदाए लद्धमेगसमयमंतरं । संखेज्जभागहाणी उच्चदे । तं जहा- पलिदोवमट्ठि दिसंतक मस्सुवरिमदुचरिमट्ठि दिकंडयच रिमफालियाए पदिदाए संखेज्ज मागहाणी होदि । तदो असंखेज्जभागहाणीए अंतोमुद्दत्तसंतरिय चरिमकंडयचरिमफालीए पदिदाए संखेज्जभागहाणीए जहण्णमंतर मंतो मुहुत्तमेतं होदि । संखेज्जगुणहाणीए बुचदे । तं जहा - दूराव किट्टिडिदिसंतकम्म स्तुवरिमदुचरिमद्विदिकंडय चरिमफालियाए संखेज्जगुणहाणीए आदि काढूण पुणो अंतोमुहुत्तकालमसंखेज्जभागहाणीए अंतरिय चरिमट्ठिदिकंडय चरिमफालीए पदिदाए संखेज्जगुणहाणीए जहणेण अंतमुत्तमं तर होदि । --- १६२ * उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । ९३२०. कुदो ? सणिपंचिदिएस दोण्हं वड्डि-हाणीणमादिं कादृण पुणो एइंदिएस आवलियाए असंखेज्जदिमागमेत्तपोग्गलपरियट्टाणि भयिय तदो सणिपंचिदिए सुप्पज्जिय दोवड्डि-हाणीसु कदासु चदुण्हं पि असंखेज्जपोग्गलपरियट्टमेत्तं लद्धमंतरं होदि । एदीए $ ३६ जो इसप्रकार है - कोई द्वीन्द्रिय स्वस्थानमें ही एक समयतक संख्यातभागवृद्धिको करके, पुनः दूसरे समयमें अवस्थिनबन्धको करके तीसरे समय में त्रीन्द्रियों में उत्पन्न हुआ तब उसके संख्यात भागवृद्धि के करने पर संख्यात भागवृद्धिका एक समय जघन्य अन्तर प्राप्त होता है । अब संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर कहते हैं । जो इसप्रकार है - जो एकेन्द्रिय दो विग्रह करके संज्ञियोंमें उत्पन्न हुआ है वह प्रथम विग्रह में संख्यातगुणवृद्धिको करके दूसरे विग्रहमें अवस्थित स्थितिविभक्तिको करके तथा तीसरे समय में शरीर को ग्रहण करके संख्यातगुणवृद्धिको करता है तब उसके संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त होता है । अब संख्यातभागद्दानिका जघन्य अन्तर कहते हैं । इस प्रकार है- पत्यप्रमाण स्थिति सत्कर्मकी उपस्मि द्विचरमस्थितकाण्डककी अन्तिम फालिके पतनके समय संख्यात भागहानि होती है । तदनन्तर एक अन्तर्मुहूर्ततक असंख्यातभागहानिके द्वारा अन्तर करके अन्तिम काण्ड की अन्तिम फालिके पतन होनेपर संख्यात भागहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है । अब संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर कहते हैं । जो इस प्रकार है - दूरापकृष्टि स्थितिसत्कर्म की उपरिम ( अर्थात् दूरापकृष्टि स्थिति सत्कर्म से पूर्वं ) द्विरस्थितिकाण्ड की अन्तिम फालिके पतन के समय संख्यातगुणहानिको करके पुनः अन्तर्मुहूर्त काल तक असंख्यातभागहानिसे अन्तर देकर अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतन होनेपर संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त होता है । * उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । ९ ३२० क्योंकि जिन जीवोंने संज्ञा पचेन्द्रियों में रहकर उक्त दो वृद्धि और दो हानियोंका प्रारम्भ किया पुनः वे आवलिके असंख्यातवें भाग के जितने समय हों उतने पुद्गल परिवर्तनकाल तक एकेन्द्रियोंमें परिभ्रमण करके तदनन्तर संज्ञी पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुए और वहाँ पुनः दो वृद्धि और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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