Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविहत्ती समया। अणंताणु०चउक० अवतव्व. जहण्णुक एगस । तिण्णिसंजलण णवणो. कसायाणं एवं चेव । णवरि संखेजभागहाणी० जहण्णुक० एगस०: सगसगहिदीए संखेज्जेभागे धादिदे संखेजमागहाणीए उवलंभादो। दुरूवूणुकस्ससंखेजमेत्तकालो एदासि पयडीणं संखेजमागहाणीए किण्ण लद्धो ? ण, अंतरकरणे कदे पढमहिदीए विणा विदियद्विदीए च द्विदाण' चरिमकंडयचरिमफालीए पदिदाए संतीए उदयावलियाए समयूणावलियमेत्तहिदीणं सेसकसायाणं अणुवलंभादो ।
६२८९. इत्थि-पुरिसवेदाणं संखेजमागवड्डिकालो जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। वे समया ण लब्भंति । कुदो ? बेइंदियाणं तीइंदिएसु तेइंदियाणं चउरिदिएसु उप्पजमाणाणमप्पणो आउअचरिमसमए णवंसयवेदं मोत्तूण अण्णवेदाणं बंधामावादो। कुदो, जम्मि जादीए उप्पजदि तजादिपडिबद्धवेदस्सेव मुंजमाणाउअस्स चरिमअंतोमुहुत्तम्मि णिरंतरबंधसंभवादो। तेण इत्थिपुरिसवेदाणं सगसगढिदिसंतकम्मादो संखेजभागब्भहियं कसायट्टिदि बंधाविय बंधावलियादिकंतं बज्झमाणित्थि-पुरिसवेदेसु संकामिदेसु संखेजभागवड्डीए एगसमओचेव लब्भदि। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं चत्तारिवाड्डि-दोहाणि-अवविदअवत्तव्वाणं जहण्णुक० एगसमओ। असंखेजभागहाणीए जह० एगसमओ । तं जहासमयाहियजहण्णपरित्तासंखेजमेचसेसाए सम्मत्त-सम्मामि०पढमहिदीए चरिमुव्वेल्लणभागवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सत्रह समय है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यस्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तीन संज्वलन और नौ नोकषायोंका इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातभागहानिका जघन्य
और उत्कृष्ट काल एक समय है, क्योंकि अपनी अपनी स्थितिके संख्यातवें भागका घात होने पर संख्यातभागहानि पाई जाती है।
शंका-इन प्रकृतियोंकी संख्यातभागहानिका दो कम उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण काल क्यों नहीं प्राप्त होता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि अन्तरकरण करने पर प्रथम स्थिति के बिना दूसरी स्थितिमें स्थित कर्मों के अन्तिमकाण्डककी अन्तिम फालिके पतन होते हुए शेष कषायोंके समान इन कर्मोकी उदयावलिमें एक समय कम आवलिप्रमाण स्थितियाँ नहीं पाई जाती हैं।
२८६. स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी संख्यातभागवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। दो समय काल नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि जो द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रियोंमें और त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके अपनी आयुके अन्तिम समयमें नपुंसकवेदको छोड़कर अन्य वेदका बन्ध नहीं होता है, क्योंकि जो जीव जिस जातिमें उत्पन्न होता है उसके उस जातिसे सम्बन्ध रखनेवाले वेदका ही भुज्यमान आयुके अन्तिम अन्तर्मुहुर्तमें निरन्तर बन्ध सम्भव है। इसलिये स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अपने अपने स्थितिसत्कर्मसे संख्यातवें भाग अधिक कषायकी स्थितिका बन्ध कराके बन्धा. बलिके बाद बंधनेवाले स्त्रीवेद और पुरुषवेदमें उसके संक्रान्त होनेपर संख्यातभागवृद्धिका एक समय ही प्राप्त होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, दो हानि, अवस्थित और प्रवक्तव्यका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है। जो इस प्रकार है-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिकी एक समय अधिक जघन्य
. मा. प्रती चेट्टिदाणं इति पाठः।
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