Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
गा० २२ ]
१४१
समुपपणे कसायाणं हाणी होदि, थिर-सुह-सुहग-साद- सुस्सुरादीणं सुहपयडीणं बंधो च ते परिणामा विसोही णाम । ताहिंतो द्विदिखंडयाणं घादो । किमवद्वाणं ? पुव्विल्लडिदिसंतसमाणदिणं बंधणमवाणं णाम ।
* एवं सव्वकम्माणं ।
$ २४०. जहा मिच्छत्तस्स तिविहा वड्डी चउव्विहा हाणी अवट्ठाणं च होदि तहा सव्वेसि पि कम्माणं । णवरि अणंताणुबंधिचउक्कस्स असंखेज्जगुणहाणी विसंजोएंतम्हि गेहिदव्वा । बारसकसाय-णवणोकसायाणं असंखेज्जगुणहाणी चारित्तमोहक्खवणाए
1
गेहिदव्त्रा ।
$ २४१, संपति सम्मत्तस्स असंखेज्जभागवड्डी उच्चदे । तं जहा - वेदगपाओग्गंतोकोडा कोडिमेतद्विदीए उवरि दुसमयुत्तरमिच्छत्तट्ठिदिं बंधिय पडिहग्गेण सम्मत्ते गहिदे असंखेज्जभागवड्डी होदि, मिच्छत्तम्मि वडिददोन्हं हिंदीणं गहिदसम्मत्तपढमसमए सम्मत्त- सम्मामिच्छत्तेसु संकंतत्तादो । इमं पढमवारणिरुद्धट्टिदीदो तिसमयुत्तर - चदुसमयुतरादिकमेण मिच्छत्तट्ठिदिं वड्डाविय सम्मत्तं गेण्हाविय सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमसंखेज्जभावड्डी पवेदव्वा । तत्थ अंतिम वियप्पो बुच्चदे -- णिरुद्धसम्मत्तट्ठिदिं जहण्णपरित्ता
शंका -- विशुद्धि किसे कहते हैं ।
समाधान -- जीवोंके जिन परिणामों के होने पर कषायोंकी हानि होती है और स्थिर, शुभ, सुभग, साता और सुस्वर आदि शुभ प्रकृतियों का बन्ध होता है उन परिणामों का नाम विशुद्धि है । इन परिणामोंसे स्थितिकाण्डकों का घात होता है ।
शंका- अवस्थान किसे कहते हैं ?
समाधान — पहलेका जो स्थितिसत्त्व है उसके समान स्थितियोंका बन्ध होना अवस्थान कहा जाता है ।
* इसी प्रकार सब कर्मोके जानना चाहिये ।
२४०. जिस प्रकार मिथ्यात्वकी तीन प्रकारकी वृद्धि, चार प्रकारकी हानि और अवस्थान होता है उसी प्रकार सभी कर्मों के जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्की असंख्यातगुणहानि विसंयोजना के समय ही ग्रहण करनी चाहिये । तथा बारह कषाय और नौ नोकषायों की संख्यातगुणहानि चारित्रमोहनीयकी क्षपणा के समय ग्रहण करनी चाहिये ।
२४१. अब सम्यक्त्वकी असंख्यात भागवद्धिका कथन करते हैं। जो इस प्रकार है - वेदक सम्यक्त्वके योग्य अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिके ऊपर दो समय अधिक मिध्यात्वकी स्थितिको बाँधकर प्रतिभग्न होकर सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर असंख्यात भागवृद्धि होती है; क्योंकि मिध्यात्वमें बढ़ी हुई दो स्थितियों का सम्यक्त्व के ग्रहण होनेके प्रथम समय में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक
होता है। इस प्रकार प्रथमबार विवक्षित स्थिति से तीन समय अधिक और चार समय अधिक आदि क्रमसे मिध्यात्वकी स्थितिको बढ़ाकर और सम्यक्त्वको ग्रहण कराके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की असंख्यात भागवृद्धिका कथन करना चाहिये। उनमें अब अन्तिम विकल्पको कहते हैं - विवक्षित सम्यक्व की स्थितिको जघन्य परीतासंख्यातसे खण्डित करके जो खण्ड प्राप्त हों उनमें से एक खण्ड
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org