Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहत्ती ३
२४८. संपहि संखेभागहाणी वुच्चदे । तं जहा - अंतो मुहुत्तूणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडीणं संखेज्जभागमेते सव्वजहण्णडिदिखंडए हदे संखेज्जभागहाणी होदि । एवं समयुरादिकमेण द्विदिखंडए णिवदमाणे संखेजभागहाणी चेव होदि । एवं दव्वं जाव अंतीमुडुत्तणस तरिस गरोवमकोडाकोडीणं समयुणद्धमेतद्विदीओ एकसराहेण घादिदाओ ति । एवं समयाहियअंतो मुहुत्तूणसत्तरिसागरोवम कोडाको डिडिदि पि णिमिदूण संखेजभागहाणिपरूवणा कायव्वा । एवं हेमिसव्वद्विदीणं समयाविरोहेण णिरूंभणं काढूण संखेज्जभागहाणिपरूवणा कायन्त्रा । दंसणमोहक्खवणाए वि अपुव्वकरणपढमसमय पहुडि जान पलिदोवमट्ठि दिसंतकम्मं चेट्ठदि ताव एत्यंतरे पदमाण द्विदिकंडयाणं चरिमफालीसु णिवदमाणासु सव्वत्थ संखेज्जभागहाणी होदि; एत्थ णिवदमाणद्विदिकंडओ पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागमेत्तो चेवेति नियमादो ।
$ २४६. संपहि संखेजगुणहाणी वुच्चदे । तं जहा - दंसणमोहक्खवणाए पलिदो
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वृद्धिका विचार क्रमप्राप्त है सम्यक्त्वकी स्थिति में चार वृद्धियाँ होती हैं, असंख्यातवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि और असंख्यातगुणवृद्धि । यह नियम है कि जिसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति कमसे कम पृथक्त्व सागरसे एक या दो समय आदि अधिक होती है वह जीव यदि सम्यक्त्वको प्राप्त होता है तो नियमसे वेदकसम्यक्त्वको ही प्राप्त होता है । साथ ही यह भी नियम है कि ऐसे जीवके मिथ्यात्वकी स्थिति नियमसे अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर होती है । पहले हमें असंख्यात भागवृद्धिका विचार करना है । किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरसे नीचे उपर्युक्त सब स्थितिविकल्पों में असंख्यात भागवृद्धि सम्भव नहीं । हाँ मिध्यात्वकी ध्रुवस्थितिके नीचे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिविकल्पों में असंख्यात - भागवृद्धि हो सकती है, क्योंकि यदि कोई जीव मिध्यात्वकी इस स्थिति के साथ वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होता है और उस समय सम्यक्त्वकी स्थिति एक समयसे लेकर पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण कम है तो असंख्यात भागवृद्धि ही होगी ।
§ २४८. अब संख्यातभागहानिका कथन करते हैं। जो इस प्रकार है - अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितियोंके संख्यातवें भागप्रमाण सबसे जघन्य स्थितिकाण्डक घात होने पर संख्यात भागहानि होती है । इसी प्रकार एक समय अधिक आदि क्रमसे स्थितिकाण्डकके घात होने पर संख्यातभागहानि ही होती है। इसी प्रकार अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरकी एक समय कम अर्धप्रमाण स्थितियों का एक साथ घात प्राप्त होनेतक कथन करना चाहिये । इसी प्रकार एक समय अधिक अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिके रहते हुए भी संख्यात भागहानिका कथन करना चाहिये । इसी प्रकार नीचेकी सब स्थितियोंको यथाप्रमाण ग्रहण करके संख्यातभागहानिका कथन करना चाहिये | दर्शनमोहनीय की क्षपणाके समय भी अपूर्वकरण के प्रथम समय से लेकर पल्यप्रमाण स्थितिसत्कर्मके रहने तक इस अन्तराल में पतनको प्राप्त होनेवाले स्थितिकाण्डकोंकी अन्तिम फालियोंका पतन होने पर सर्वत्र संख्यातभागहानि होती है; क्योंकि यहाँ पर जिन स्थितिकाण्डकोंका पतन होता है उनका प्रमाण पल्य के संख्यातवें भागमात्र ही है ऐसा नियम है ।
६ २४६. अब संख्यातगुणहानिको कहते हैं । जो इस प्रकार है - दर्शनमोहनीय की क्षपणा में
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