Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 171
________________ १५० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती मिच्छत्तहिदि समयुत्तरं बंधिय सम्मत्ते गहिदे अवट्ठिदं होदि । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडि त्ति ।। ___* णवरि अणंताणुबंधीणमवत्तव्वं सम्मत्तसम्मामिछत्ताणमसंखेजगुणवड्डी अवत्तव्वं च अस्थि । * २५२. अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइदसम्मादिट्ठिणा मिच्छत्ते गहिदे अवत्तव्वं होदि, पुव्वमविजमाणढिदिसंतसमुप्पत्तीदो । अवत्तव्वसद्देण भण्णमाणस्स कधमवत्तव्वत्तं ? ण, वड्डि हाणि-अवट्ठाणाणमभावेण भुजगार-अप्पदर-अवढिदसद्देहि ण वुच्चदि त्ति अवत्तव्वत्त. भुवगमादो। ६२५३ संपहि सम्मत्तस्स असंखेजगुणवड्डी वुच्चदे। तं जह-सव्वजहण्णढिदिचरिमुव्वेल्लणकंडयसंतकम्मियमिच्छाइटिणा उवसमसम्मत्ते गहिदे असंखेजगुणवड्डी होदि । पुणो एदस्स चरिमुव्वेलणकंडयस्सुवरि समयुत्तरादिकमेण जे द्विदा पलिदोवमस्स असंखेजमागमेत्ता चरिमफालिवियप्पा तेहि सह पढमसम्मत्तं गण्हमाणाणं तत्तिया चेव असंखेजगुणवड्डिवियप्पा । एवमुवरि पि असंखेजगुणवड्डिवियप्पा वत्तव्वा । तत्थ सव्वपच्छिमवियप्पो वुच्चदे। तं जहा-सवजहण्णमिच्छत्तहिदि जहण्णपरित्तासंखेजेण खंडिय तत्थ एगखंडमेत्तसम्मत्तहिदिसंतकम्मिएण मिच्छादि ट्ठिणा सव्वजहण्णमिच्छत्तस्थितिको बाँधकर सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर अवस्थित होता है। इसी प्रकार अन्तमुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर स्थिति तक जानकर कथन करना चाहिये । * किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीका अव्यक्तव्य पद होता है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगणवृद्धि और अव्यक्तव्यस्थितिविभक्ति होती है। ६२५२. जिस सम्यग्दृष्टिने अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना की है उसके मिथ्यात्वके ग्रहण करने पर अवक्तव्यस्थितिविभक्ति होती है, क्योंकि सम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धीका स्थितिसत्त्व अविद्यमान था वह अब यहाँ पर उत्पन्न हो गया। शंका-जो अवक्तव्य शब्दके द्वारा कहा जा रहा है वह अवक्तव्य कैसे हो सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि वृद्धि, हानि और अवस्थान न पाये जानेके कारण इसे भुजगार अल्पतर और अवस्थित शब्दोंके द्वारा नहीं कह सकते, अतः इसमें अवक्तव्यभाव स्वीकार किया गया है। ६२५३. अब सम्यक्वकी असंख्यातगुणवृद्धिका कथन करते हैं। जो इस प्रकार है-सबसे जघन्य अन्तिम उद्वलनाकाण्डक स्थितिसत्कर्मवाले मिथ्यादृष्टिके द्वारा उपशमसम्यक्त्वके ग्रहण करने पर असंख्यातगुणवृद्धि होती है । पुनः इस अन्तिम उद्वलना काण्डकके ऊपर एक समय अधिक आदि क्रमसे पल्योपमके असंख्यात बहुभाग जो अन्तिम फालिके भेद अवस्थित हैं उनके साथ प्रथमोपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करनेवाले जीवोंके उतने ही असंख्यातगुणवृद्धिके भेद होते हैं। इसी प्रकार ऊपर भी असंख्यातगुणवृद्धिके भेद कहना चाहिये। उनमेंसे सबसे अन्तिम भेद कहते हैं । जो इस प्रकार है-मिथ्यात्वकी सबसे जघन्य स्थितिको जघन्य परीतासंख्यातसे खण्डित करके जो एक खण्ड प्राप्त हो उतनी जिसके सम्यक्त्वकी स्थिति है और जिसके मिथ्यात्वकी सबसे जघन्य स्थिति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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