Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
पिरूवणाए समुत्तिणा
संकणिज्जं एगभवदीए असंखेज्जभागहाणिकंडयवारेहिंतो संखेज्जभागहाणि-संखेज्जगुणहाणिकंड वाराणं संखेज्जदिभागत्तादो । एदं कुदो णव्वदे १ एगभवट्ठिदीए सव्वत्थोवा संखेज्जगुणहाणिकंडयवारा, संखेज्जभागहाणिकंडयवारा संखेज्जगुणा, असंखेज्जभागहाणिकंडवारा संखेज्जगुणा ति अप्पाबद्दुआदो णव्वदे । एदमप्पा बहुअम सिद्धमिदि ण वत्तव्वं; उवरि भण्णमाणजीव अप्पाच हुएण सिद्धत्तादो ।
९ २५७, पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागमेत्तेगट्ठि दिकंडयस्स जदि संखेज्जावलियमेत्तो किंड उकीरणकालो लब्भदि तो संखेज्जपलिदोवमाणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओट्टिदाए संखेज्जावलियमेत्तो द्विदिहदसमुप्पत्तियकालो होदि । ण च एत्तिओ कालो इच्छिज्जदि पदरावलियाए उवरिमसंखाए पलिदोवमादो हेट्टिमाए तप्पाओग्गाए' पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागत्तन्भुवगमादो | असंखेज्जभागहाणिकंडओ ण पहाणो, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण कालेण असंखेज्जभागकंडएण जा हिदी हम्मदि तिस्से संखेज्जभागहाणिकंडएण एगसमए घादुवलंभादो । तम्हा एइंदिओ असंखेज्जभागहाणि चैव कुणदि त्ति घेत्तव्वं । एदमत्थपदं सव्वएइंदिएसु वत्तव्वं ।
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$ २५८. एदेसिं पयडीणमवड्डाणं पि अस्थि, एइंदिएस समट्ठिदिबंधसंभवादो | सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमत्थि चत्तारि हाणीओ । संखेज्जभागहाणि संखेज्जगुणहाणीणं चाहिये, क्योंकि एक भवस्थिति में असंख्यात भागहानिके जितने काण्डकबार होते हैं उनसे संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि काण्डकों के बार संख्यातवें भागप्रमाण हैं ।
शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान — एक भवस्थिति में संख्यातगुणहानि काण्डकबार सबसे थोड़े हैं । इनसे संख्यातभागहानिकाण्डकबार संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यात भागहानिकाण्डकबार संख्यातगुणे हैं, इस अल्पबहुत्व से जाना जाता है । यह अल्पबहुत्व असिद्ध है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि आगे कहे जानेवाले जीव अल्पबहुत्वसे यह सिद्ध है ।
६ २५७. पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण एक स्थितिकाण्डकका यदि संख्यात आवलिप्रमाण स्थितिकाण्डक - उत्कीरणाकाल प्राप्त होता है तो संख्यात पल्योंका कितना उत्कीरणाकाल प्राप्त होगा इस प्रकार त्रैराशिक द्वारा फलराशिसे इच्छाराशिको गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें प्रमाणराशिका भाग देने पर संख्यातावलिप्रमाण स्थितिहतसमुत्पत्तिक काल प्राप्त होता है । परन्तु प्रकृत में इतना काल इष्ट नहीं है, क्योंकि यहाँ प्रतरावलिसे ऊपर की संख्या और पल्यके नीचेकी तत्प्रायोग्य संख्याको पल्यका असंख्यातवाँ भाग स्वीकार किया है। यदि कहा जाय कि यहाँ असंख्यात भागहानिकाण्डक प्रधान नहीं है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा असंख्यातभागकाण्डकरूपसे जो स्थिति घाती जाती है उसका संख्यातभागहानिकाण्डकके द्वारा एक समय में घात पाया जाता है। इसलिये एकेन्द्रिय असंख्यात भागहानिको ही करता है ऐसा ग्रहण करना चाहिये | यह अर्थपद सब एकेन्द्रियोंमें कहना चाहिये ।
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२५८. एकेन्द्रियों में इन उपर्युक्त प्रकृतियोंका अवस्थान भी है, क्योंकि एकेन्द्रियों में समान स्थितिका बन्ध सम्भव है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियाँ हैं । यहाँ संख्यात भाग
१. तः प्रतौ पलिदोषमाणाणं इति पाठः । २ ता० प्रतौ तप्पा ओग्गादो इति पाठः ।
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