Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहत्ती ३
farrenate जो बंधो सो ट्टिदिसंतादो हेट्ठा चेवे त्ति णासंकणिज्जं, बद्धणिरयाउआणं पच्छा तिव्वविसोही हिदिघादं काढूण अपज्जत्तट्ठिदिबंधादो संखेज्जगुणहाणी कयट्ठिदीणं णिरएसुध्वज्जिय विदियविग्गहे अपज्जत्तजोगुक्कस्सकसायं गयाणमुक्कस्सट्ठिदिबंधस्स जहणविदितादो संखेज्जगुणत्तं पडि विरोहाभावादो । आहार-आहारमिस्स० मिच्छत्तसम्मत-सम्मा मि० सोलसक० णवणोक० अत्थि असंखेज्जभागहाणी | जहाक्खाद० - सासण० दिट्ठि त्ति ।
एवमकसा०
९ २६२. अवगद्० मिच्छत्त० सम्मत्त सम्मामिच्छत्त० अस्थि असंखेज्जभागहाणी संखेज्जभागहाणी च । एवमट्टकसायाणं इत्थि - णवुंसयवेदाणं च । अंतरकरणे कदे उवसमसेढिम्म मोहणीयस्स ट्ठिदिघादो णत्थि । एत्थ एत्थुच्चारणाए पुण अस्थि' त्ति भणिदं तं जाणिय वत्तव्वं । सत्तणोकसाय-चदुसंजलणाणमत्थि असंखेज्जभागहाणी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणी च ।
कहना चाहिये, क्योंकि ऐसा मानने पर महाबन्धमें जो कार्मण काययोगमें संख्यातगुणवृद्धि कही है उसका फिर कोई विषय न रहनेसे प्रभाव हो जायगा । यदि कहा जाय कि विग्रहगति में जो बन्ध होता है वह स्थितिसत्त्वसे नीचे ही होता है सो ऐसी आशंका भी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि जिन्होंने पहले नरकायुका बन्ध किया है और पीछेसे जिन्होंने तीव्र विशुद्धिके कारण स्थितिघात करके अपनी कर्मस्थितिको अपर्याप्तकोंके स्थितिबन्ध से संख्यातगुणा हीन कर दिया है और जो नरकमें उत्पन्न होकर दूसरे विग्रहमें अपर्याप्त योगके रहते हुए उत्कृष्ट कषायको प्राप्त हो गये हैं उनके उस समय उत्कृष्ट स्थितिबन्ध जघन्य स्थितिसत्त्व से संख्यातगुणा होता है इसमें कोई विरोध नहीं है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाय योगी जीवोंमें मिथ्यात्व सम्यक्त्व, सम्यग्मि ध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यात भागहानि है । इसी प्रकार अकषायी, यथाख्यातसंयत और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों के जानना चहिए ।
§ २६२. अवगतवेदियों में मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यात भागहानि और संख्यातभागहानि है । इसी प्रकार आठ कषाय, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जानना चाहिए । अन्तरकरण करने पर उपशमश्रेणी में मोहनीयका स्थितिघात नहीं होता । परन्तु यहाँ इस उच्चारणा में तो है ऐसा कहा है सो उसका समझ कर कथन करना चहिए। सात नोकषाय और चार संज्वलनोंकी असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानि है
विशेषार्थ — ऐसा नियम है कि दर्शनमोहनीयका उपशम हो जाने पर भी अपवर्तन और संक्रमण होता रहता है अतः अपगतवेदी जीवके तीन दर्शनमोहनीयकी स्थितिकी असंख्यात भागहानि और संख्या भागहानि बन जाती हैं। मध्यकी आठ कषायोंकी तो क्षरकश्रेणिके सवेदभाग में ही क्षपणा हो जाती है किन्तु उपशमश्रेणिमें इनकी अवेदभाग में उपशमना होती है इसलिये अपगतवेदी इनकी स्थितिकी भी असंख्यात भागहानि और संख्यात भागहानि ये दो हानियाँ बन जानी चाहिये | किन्तु इस विषय में दो मत हैं । चूर्णिसूत्रकारका तो यह मत है कि उपशमश्रेणिमें अन्तरकरण हो जाने पर मोहनीयका स्थितिकाण्डकघात नहीं होता। वीरसेन स्वामीने इसका यह कारण बतलाया है कि यदि उपशमश्रेणिमें अन्तरकरणके बाद मोहनीयका स्थितिकाण्डकघात मान लिया जाय तो उपशमनाके क्रमानुसार नपुंसकवेदसे स्त्रीवेद आदिकी उत्तरोत्तर संख्यातगुणी हीन स्थिति १ ता० प्रतौ एत्थुच्चारणाए अस्थि इति पाठः ।
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