Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
१४६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ मिच्छाइडिणा पलिदोवमस्स असंखेजभागमेत्तद्विदिखंडयघादेण विणा अधढिदिगलणाए सम्मत्तहिदीए गलिदाए असंखेजभागहाणी जिरंतरं जाव धुवहिदि ति लब्भदि । कुदो ? णाणाजीवे अस्सिदण धुवद्विदीए ऊणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्तहिदीणं अधहिदीए गलणुवलंभादो। धुवद्विदीदो उवरिमसव्वसम्मत्तद्विदीणं णाणाजीवुव्वेल्लणमस्सिदण असं. खेअभागहाणी किण्ण लब्भदे ? सुट्ट लब्भदि । को भणदि ण लब्भदि त्ति । किंतु मिच्छत्तधुवाद्विदीदो उरि सम्मत्तहिदिमुव्वेल्लमाणस्स पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तो चेव हिदिखंडओ पददि ति णियमो णत्थि । कुदो? विसोहीए पलिदोवमस्स संखेजभागमेत्ताणं संखेञ्जपलिदोवममेत्ताणं कत्थ वि संखेजसागरोवममेत्ताणं च द्विदिकंडयाणं पदणसंभवादो । सव्वेसिमुन्वेल्लणकंडयाणं पमाणं पलिदोवमस्स असंखेजभागमेत्तं चेवे ति आइरियवयणेण कधं ण विरोहो ? णत्थि विरोहो; पलिदोवमस्स संखेजभागहिदिकंडयप्पहुडि उवरि सव्वाद्विदिखंडयाणमुवेल्लणपरिणामण विणा विसोहिकारणत्तादो। ण च विसोहीए पदमाणहिदिकंडयाणमुव्वेल्लणपरिणामो कारणं होदि; अव्ववत्थावत्तीदो।
६२४६. सम्मत्तस्स उज्वेल्लणाए पारद्धाए पुणो सम्मत्तम्मि पदमाणढिकंडयपमाणं पलिदोवमस्स असंखेजभागमेत्तं चेवे त्ति के वि आइरिया भणंति, तण्ण घडदे, विसोहीए द्विदिखंडयघादेण मिच्छत्तस्स संखेजगुणहाणीए संतीए भिच्छत्तहिदिसंतकम्मादो सम्मत्तअसंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डकघातके बिना अधःस्थितिगलनासे सम्यक्त्वकी स्थितिके गलित होने पर ध्रुवस्थितिके प्राप्त होने तक निरन्तर असंख्यातभागहानि होती है, क्योंकि नाना जीवोंकी अपेक्षा ध्रुवस्थितिसे न्यून सत्तर कोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थितियोंकी अधःस्थितिगलना पाई जाती है।
शंका-धवस्थितिसे ऊपरकी सम्यक्त्वकी सब स्थितियोंकी नाना जीवोंकी अपेक्षा उद्वेलना. का आश्रय लेकर असंख्यातभागहानि क्यों नहीं प्राप्त होती है ?
समाधान-अच्छी तरहसे प्राप्त होती है। कौन कहता है कि नहीं प्राप्त होती है। किन्तु मिथ्यात्वकी ध्रुवस्थितिके ऊपर सम्यक्त्वकी स्थितिकी उद्वेलना करनेवाले जीवके पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डकका ही पतन होता है ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि विशुद्धि के कारण कहीं पर पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण, कहीं पर संख्यात पल्यप्रमाण और कहीं पर संख्यात सागरप्रमाण स्थितिकाण्डकोंका पतन सम्भव है।
शंका-'सभी उद्घलनाकाण्डकोंका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र ही है। प्राचार्योके इस वचनके साथ उपर्युक्त कथनका विरोध क्यों नहीं प्राप्त होता है ?
समाधान-कोई विरोध नहीं है, क्योंकि पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डकसे लेकर ऊपरके सब स्थितिकाण्डक उद्वलनारूप परिणामोंसे न होकर विशुद्धिनिमित्तक होते हैं। यदि कहा जाय कि विशुद्धिके द्वारा पतनको प्राप्त होनेवाले स्थितिकाण्डकोंका उद्वलनापरिणाम कारण होता है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने में अव्यवस्थाकी आपत्ति आती है।
६२४६. सम्यक्त्वकी उद्घलनाके प्रारम्भ होने पर तो सम्यक्त्वके पतनको प्राप्त होनेवाले स्थितिकाण्डकोंका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र ही होता है ऐसा कितने ही प्राचार्य कहते हैं परन्तु उनका यह कहना नहीं बनता है; क्योंकि ऐसा मानने पर विशुद्धिसे स्थितिकाण्डकघात
Jain Education International.......
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org