Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
गा० २२] वडिपरूवणाए समुक्कित्तणा
१४७ हिदिसंतकम्मस्स संखेजगुणत्तप्पसंगादो। ण च एवमुवेल्लणसंकमेण मिच्छत्तस्सुवरि सम्मत्ते णिरंतरं संकममाणे सम्मत्तद्विदीदो मिच्छत्तद्विदीए संखेजगुणहीणत्तविरोहादो । तम्हा मिच्छत्तस्स डिदिखंडए पदंते सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं घादिदसेसमिच्छत्तहिदीदो उवरिमट्ठिदीणं णियमा घादो होदि त्ति घेत्तव्वं । एवं संते सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमेग. णिसे गमेत्तो वि द्विदिखंडओ होदि त्ति वुत्ते होदु णाम ण को वि एत्थ विरोहो। ___२४७. उव्वेल्लणाए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेसु मिच्छत्तधुवट्ठिदिपमाणं पत्तेसु वि एसो चेव कमो; विगलिंदियविसोहीहि घादिञ्जमाणमिच्छत्सद्विदिखंडयाणं पलिदोवमस्स संखेअभागायामाणमुवलंभादो। एइंदिएसु पुण उव्वेल्लमाणस्सेव विसुज्झमाणस्स वि पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तो द्विदिखंडओ होदि । एइंदिएसु विगलिंदिएसु च संखेजगुणहाणी वि सुणिजदि, सा कुदो लब्भदे ? ण, सण्णिपंचिंदिएण आढत्तद्विदिखंडए एइंदियविगलिंदिएसु णियदमाणे तदुवलंभादो। एवमेइंदिए संखेजमागहाणी वि परत्थाणादो साहेयव्वा । तम्हा अंतोमुहुत्तणसत्तरिमादि कादण जाव सव्वजहण्णचरिमुवेल्लणकंडयं ति ताव णिरंतरमसंखेजभागहाणीए वियप्पा लब्भंति त्ति घेत्तव्वं । के द्वारा मिथ्यात्वकी संख्यातगुणहानिके होते हुए मिथ्यात्वके स्थितिसत्कर्मसे सम्यक्त्वके स्थितिसत्कर्मको संख्यातगुणे होनेका प्रसंग प्राप्त होता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि उद्वलना संक्रमके द्वारा मिथ्यात्वके ऊपर सम्यक्त्वका निरन्तर संक्रमण होने पर सम्यक्त्वकी स्थितिसे मिथ्यात्वकी स्थितिको संख्यातगुणा हीन मानने में विरोध आता है । अतः मिथ्यात्वके स्थितिकाण्डकके पतन होने पर घात करनेके बाद शेष रही मिथ्यात्वकी स्थितिसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी ऊपरकी स्थितियोंका नियमसे घात है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। ऐसा होने पर सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्वका एक निषेकप्रमाण भी स्थितिकाण्डक होता है ऐसा कहने पर आचार्यका कहना है कि रहा आओ इसमें कोई विरोध नहीं है।
६२४७. उद्घ लनाके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके मिथ्यात्वकी ध्रुवस्थितिप्रमाण प्राप्त होने पर भी यही क्रम होता है, क्योंकि विकलेन्द्रियोंकी विशुद्धिके द्वारा घातको प्राप्त होनेवाले मिथ्यात्वके स्थितिकाण्डकोंका आयाम पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण पाया जाता है। परन्तु एकेन्द्रियों में उद्घ लना करनेवालेके समान विशुद्धि को प्राप्त होनेवाले जीवके भी पल्योपमके असंख्यासवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डक होता है।
शंका-एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियोंमें संख्यातगुणहानि भी सुनी जाती है, वह कैसे प्राप्त होती है ?
समाधान नहीं, क्योंकि जिस संज्ञी पंचेन्द्रियने स्थितिकाण्डकका आरम्भ किया उसके एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न होने पर एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियोंके संख्यातगुणहानि पाई जाती है।
इसी प्रकार एकेन्द्रियमें परस्थानकी अपेक्षा संख्यातभागहानि भी साधना चाहिये। अतः अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरसे लेकर सबसे जघन्य अन्तिम उद्वलनाकाण्डकतक निरन्तर असंख्यातभागहानिके विकल्प प्राप्त होते हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिये।
६ विशेषार्थ-वैसे तो सर्वत्र सम्यक्त्व प्रकृतिकी उत्तरोत्तर हानि ही होती है किन्तु वेदक सम्यक्त्व या उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके उसकी वृद्धि भी देखी जाती है । यहाँ पहले
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org