Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
वडवण
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२३८. पुणो एदिस्से दूराव किट्टीए पढमडिदिखंड यचरिमफालीए पडमाणाए असंखेज्जगुणहाणी होदि । कुदो, दूराव किट्टीसणिदट्ठिदीए पढमडिदिकंडय पहुडि उवरिमसव्वडिदिकंडयाणं घादिदसेस से सहिदीए असंखेज्जभागपमाणत्तादो । सम्बडिदिकंडयाणं पुण समयूणुकीरणद्धासु असंखेज्जभागहाणी चेव अधट्ठिदिगलणार । एवं दव्वं जाव मिच्छत्तस्स समयूणावलियमेत्तट्ठिदिसंतकम्मं चेट्टिदं ति । तदो असंखेज्जभागहाणी होण गच्छदि जावुक्कस्ससंखेज्जमेत्तट्ठिदिसंतकम्मं सेसं ति । तदो संखेज्जभागहाणी होदूण गच्छदि जाव मिच्छत्तस्स तिसमयकोलदोडिदिपमाणं सेसं ति । पुणो एगाए द्विदीए सम्मत्तस्वरि थिवुक्कसंकमेण संकंताए संखेज्जगुणहाणी होदि णिसेगे पडुच्च । कालं पहुच्च पुण संखेज्जभागहाणी चेव । एवं मिच्छत्तस्स सत्याणपरत्थाणेहि वड्डिहाणिपरूवणा कदा । एवं सोलसकसाय-णवणोकसायाणं वड्डिहाणिपरूवणा कायव्वा ।
६२३८. पुनः इस दूरापकृष्टिकी प्रथम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतन होने पर असंख्यातगुणहानि होती है; क्योंकि दूरापकृष्टि संज्ञावाली स्थिति के प्रथम स्थितिकाण्ड से लेकर ऊपर की सब स्थितिकाण्डकों की घातकर शेष रही हुई सब स्थिति असंख्यातवें भागप्रमाण होती है । सब स्थितिकाण्डकोंकी तो एक समय कम उत्कीरणाकालोंमें अधः स्थितिगलनाके द्वारा असंख्यात भागहानि ही होती है । जबतक मिथ्यात्वसम्बन्धी एक समयकम आवलिमात्र स्थितिसत्कर्म शेष रहे तबतक इसी प्रकार ले जाना चाहिये । तदनन्तर उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण स्थितिसत्कर्म शेष रहने तक असंख्यातभागहानि होकर जाती है । तदनन्तर मिथ्यात्व की तीन समय कालवाली दो स्थितियोंके शेष रहने तक संख्यात भागहानि होकर जाती है । पुनः एक स्थितिके स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा सम्यक्त्वके ऊपर संक्रान्त होनेपर निषेकों की अपेक्षा संख्यातगुणहानि होती है । कालकी अपेक्षा तो संख्यात भागहानि ही होती है। इस प्रकार मिथ्यात्वकी वृद्धि और हानिकी स्वस्थान और परस्थानकी अपेक्षा प्ररूपणा की। इसी प्रकार सोलह कषाय और नौ नोकषायकी वृद्धि और हानिका कथन करना चाहिये ।
विशेषार्थ - - वृद्धिका विचार करते समय जिस प्रकार यह बतला आये हैं कि किस जीव - समासमें किस स्थिति से कितनी स्थिति बढ़ने पर कौन सी वृद्धि प्राप्त होती है । उसी प्रकार हानिमें भी समझना चाहिये । किन्तु यहाँ विलोमक्रम से विचार करना चाहिये । अर्थात् उत्कृष्ट स्थिति से असंख्यातवें भाग के कम होने तक असंख्यात भागहानि होती है। इसके बाद संख्यात भागहानि होती है जो एक कम आधी स्थिति प्राप्त होने तक होती है । और इसके बाद तत्प्रायोग्य ध्रुवस्थिति के प्राप्त होने तक संख्यातगुणहानि होती है । पहले जिस प्रकार सर्वत्र ध्रुवस्थितिकी अपेक्षा वृद्धियोंका विचार कर आये हैं इसी प्रकार यहाँ पर उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा ही हानियोंका विचार किया है, यहाँ इतना विशेष समझना चाहिये । यह तो हानिविषयक सामान्य कथन हुआ । किन्तु सम्यग्दृष्टि जीवके हानिके कथनमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि सम्यग्दृष्टि जीवकी दो अवस्थाएँ होती हैं एक क्रियारहित और दूसरी क्रियासहित । सर्वत्र क्रियारहित अवस्थामें तो असंख्यात भागहानि ही होती है, क्योंकि वहाँ अधः स्थितिगलनाके द्वारा एक एक निषेकका ही गलन होता है । किन्तु क्रियासहित अवस्था में यदि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना हो रही है तो स्थितिकाण्डकों की अन्तिम फालिके पतन के समय संख्यात भागहानि होती है, क्योंकि उस समय पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण स्थिति का पतन होता है । अन्यत्र असंख्यात भागहानि ही होती है । और यदि दर्शनमोहनीयकी
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