Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२] वडिपरूषणा
१३७ पुणो एगसमयं हेट्ठा ओसरिय घादेदूण उप्पण्णस्स वि संखेज्जगुणवड्डी चेव होदि । पुणो एदेण कमेण ओसरिदृण सव्वजहण्णएइंदियट्ठिदिसंतकम्मेण बेइंदियादिसुप्पज्जिय तप्पा. ओग्गजहण्णद्विदिं बंधमाणस्स संखेज्जगुणवडी चेव होदि । एवं बेइंदियादीणं पि संखेज्जगुणवड्डिपरूवणा कायव्या।
६२३७. संपहि ढाणहाणिपरूवणा कीरदे । तं जहा-जहा वड्डी तहा हाणी । णवरि अप्पणो उक्कस्सद्विदीए असंखेज्जदिभागो जाव झीयदि ताव असंखेज्जभागहाणी
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दिकमें उत्पन्न होकर प्रथम समयमें सबसे जघन्य स्थितिका बन्ध किया तब उसके संख्यातगृणवृद्धि होती है। पुनः एक समय नीचे उतर कर घात करके द्वीन्द्रियादिकमें उत्पन्न होनेवाले जीवके भी संख्यातगुणवृद्धि ही होती है । पुनः इसी क्रमसे नीचे उतर कर जिसके सबसे जघन्य एकेन्द्रिय स्थिति सत्कर्म है वह यदि द्वीन्द्रियादिकमें उत्पन्न होकर उनके योग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करता है तो उसके संख्यातगुणवृद्धि ही होती है। इसी प्रकार द्वीन्द्रियादिकके भी संख्यातगुणवृद्धिका कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ--नीचेके जीवसमासको ऊपरके जीवसमासमें उत्पन्न कराके जो स्थितिमें वृद्धि प्राप्त होती है उसे परस्थानवृद्धि कहते हैं। जैसे एकेन्द्रियको द्वीन्द्रियादिमें, द्वीन्द्रियको त्रीन्द्रियादिकमें, त्रीन्द्रियको चतुरिन्द्रियादिकमें, चतुरिन्द्रियको असंज्ञी आदि में और असंज्ञीको संज्ञीमें उत्पन्न करानेसे परस्थानवृद्धि प्राप्त होती है। इनमेंसे पहले एकेन्द्रियको द्वीन्द्रियमें उत्पन्न कराके यह वृद्धि प्राप्त की गई है। वैसे तो एकेन्द्रियके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक सागरसे अधिक नहीं होता। अब यदि ऐसा एकेन्द्रिय जीव है जिसके अपने स्थितिबन्धसे अधिक सत्त्व नहीं है तो उसको द्वीन्द्रियमें उत्पन्न कराने पर केवल संख्यातगुणवृद्धि ही प्राप्त होती है, क्योकि एकेन्द्रियकी उत्कृष्ट स्थितिसे द्वीन्द्रियकी जघन्य स्थिति भी कुछ कम पच्चीस गुनी है। किन्तु जो ऊपरकी पर्यायसे च्युत होकर एकेन्द्रिय होता है उसके अपने स्थितिवन्धसे अधिक स्थितिसत्त्व भी पाया जाता है। यह स्थितिसत्त्व किसी किसी एकेन्द्रियके अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर भी प्राप्त होता है। किन्तु यहाँ ऐसा स्थितिसत्त्व ग्रहण करना है जिससे एकेन्द्रियके द्वीन्द्रियमें उत्पन्न होनेपर असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि बन जावे। जिस एकेन्द्रियके द्वीन्द्रियकी जघन्य स्थितिसे एक समय कम दो समय कम आदि पल्यके असंख्यातवें भागकम तक स्थितिसत्त्व होता है उसके द्वीन्द्रियमें उत्पन्न होने पर असंख्यातभागवृद्धि होती है. क्योंकि यहाँ पर्व स्थितिसे असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिकी ही वृद्धि देखी जाती है। वीरसेन स्वामीने असंख्यात भागवृद्धिका अन्तिम विकल्प बतलाते हुए लिखा है कि द्वीन्द्रियकी जघन्य स्थितिमें परीतासंख्यातका भाग दो, भाग देने पर जो एक भाग आवे उतना द्वीन्द्रियकी जघन्य स्थितिमें से कम कर दो। बस जिस एकेन्द्रियके पंचेन्द्रियकी स्थितिका घात करते हुए इतनी स्थिति शेष रह जाय उसे द्वीन्द्रियमें उत्पन्न कराने पर असंख्यातभागवृद्धिका अन्तिम विकल्प प्राप्त होता है। एकेन्द्रियके द्वीन्द्रियमें उत्पन्न होने पर उसके असंख्यातभागवृद्धि कैसे प्राप्त होती है इसका यहाँ तक विचार किया। पन्चे. न्द्रियकी स्थितिका घात करनेवाले जो द्वीन्द्रियादिक त्रीन्द्रियादिकमें उत्पन्न होते हैं उनके भी पर्वोक्त प्रकारसे असंख्यातभागवृद्धि घटित कर लेनी चाहिये। आगे परस्थानकी अपेक्षा संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका कथन सुगम है अतः उसे मूलसे ही जान लेना चाहिये।
२३७ अब स्थानहानिका कथन करते हैं। जो इस प्रकार है-जिस प्रकार वृद्धि होती है उसी प्रकार हानि होती है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपनी उत्कृष्ट स्थितिका असंख्यातवाँ भाग जब तक
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