Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
afgपरूपणा
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$ २३३. संपहि तस्सेव मिच्छत्तस्स परत्थाणेण तिष्णं वड्डीणमत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा - एइंदिएण पंचिदियसंतकम्मं घादिय बीइंदियादीणं तप्पा ओग्गजहण्णबंधस्स ट्ठा एमएणणं काढूण पुणो बीइंदियादिसु उप्पजिय एगसमयं वड्डिण बद्धे असंखेजभावड्डी होदि; वडिदेगसमयस्स णिरुद्धद्विदीए असंखेजदिभात्तादो । पुणो तमेव पंचिदिदि बीइंदियादितप्पा ओग्गजहण्णडिदिबंधादो विसमयणं घादिय बीइंदियादिसु उप्पण्णपढमसमवि असंखेजभागवड्डी चेव होदि । कुदो ? ऊणीकददोसमयाणं चेव बंघेण वडिदत्तादो | एवं तिसमयादिकमेण ऊणिय णेदव्वं जाव पंचिदियसंतकम्मं बीईदियादीणं तप्पा ओग्गजहण्णबंधादो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण जहा ऊणं होदि तहा घादिय वेइंदियादिसुप्पण्णस्स वि असंखेज्जभागवड्डी चेव होदि । संपहि एत्तो उवरि समयुरादिकमेण ऊणिय णेदव्वं जाव असंखेज्जभागवड्डीए दुचरिमवियप्पो ति ।
$ २३४. संपहि चरिमवियप्पं वत्तइस्लामो | बीइंदियाणं तप्पा ओग्गजहणट्ठिदिबंधं जहण परित्ता संखेज्जेण खंडिय तत्थेगखंडेणूणं बेइंदियादीणं तप्पाओग्गजहण्ण डिदिबंघेण जहा सरिसं होदि तहा पंचिंदियट्ठिदिसंतकम्मं घादिय बेइंदियादिसु उप्पण्णपढमसमए असंखेज्जभागवड्डी होदि । एसा असंखेज्जभागवड्डी सव्वपच्छिमा; एत्तो उवरि संखेज्ज - भागवड्डीए विसयत्तादो । एवं बेइंदियादीणं पि पंचिदियट्ठिदिं घादयमाणाणं सगसग
§ २३३. अब परस्थानकी अपेक्षा उसी मिध्यात्वकी तीन वृद्धियोंकी अर्थप्ररूपणा करते हैं । जो इस प्रकार है - जिस एकेन्द्रियने पंचेन्द्रिय सत्कर्मको घातकर द्वीन्द्रियादिके योग्य जघन्य बन्धके नीचे स्थितिको एक समय कम किया पुनः उसके द्वीन्द्रियादिक में उत्पन्न होकर एक समय बढ़ाकर स्थिति के बाँधने पर असंख्यात भागवृद्धि होती है; क्योंकि वहाँ पर जो एक समयकी वृद्धि हुई है वह निरुद्ध अर्थात् सत्ता में स्थित पूर्व स्थितिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । पुनः किसी एक एकेन्द्रिय जीवने उसी पंचेन्द्रियकी स्थितिको द्वीन्द्रियादिके योग्य जघन्य स्थितिबन्धसे दो समय कम करके उसका घात किया और द्वीन्द्रियादिकमें उत्पन्न हुआ तो उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें भी असंख्यात भागवृद्धि ही होती है; क्योंकि कम किये गये दो समयोंकी ही यहाँ बन्धके द्वारा वृद्धि हुई है । इसी प्रकार तीन समय आदिके क्रमसे कम करके ले जाना चाहिये । कहाँ तक ले जाना चाहिये आगे इसीको बतलाते हैं- कोई एकेन्द्रिय जीव पंचेन्द्रियके योग्य सत्कर्मको द्वीन्द्रिय के योग्य जघन्य स्थितिबन्धसे पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग जिस प्रकार कम हो उस प्रकार घात करके द्वीन्द्रियादिकमें उत्पन्न हुआ तो उसके भी असंख्यात भागवृद्धि ही होती है । अब इसके ऊपर असंख्यात भागवृद्धिका द्विचरमविकल्प प्राप्त होने तक एक समय अधिक आदिके क्रमसे कम करके ले जाना चाहिये |
२३४. अब अन्तिम विकल्पको बतलाते हैं- द्वीन्द्रियोंके तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्ध में जघन्य परीता संख्यातका भाग दे, भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त हो उससे न्यून द्वीन्द्रियोंके तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्धके समान घात द्वारा पंचेन्द्रियोंके स्थितिसत्कर्मको कोई एकेन्द्रिय प्राप्त करके यदि द्वीन्द्रियों में उत्पन्न हो तो उसके प्रथम समय में असंख्यात भागवृद्धि होती है । यह सबसे अन्तिम असंख्यातभागवृद्धि है; क्योंकि इसके ऊपर । संख्यात भागवृद्धि होती है । इसी प्रकार पंचेन्द्रियों की स्थितिका घात करनेवाले द्वीन्द्रियादिकके भी, उन्हें अपने अपने उपरिम जीवों में
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