Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
हिदिबिहत्ती ३ णवरि सोहम्मादिसु अप्प० ज० एगस०, उक्क० सगढिदी । आणदादि जाव उवरिमगेवजो त्ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० अप्पद० जहण्णुक द्विदी। अणंताणु०चउक्क० अप्पदर० जह० एयसमओ, उक्क० सगसगट्टिदी। अवत्तव्वं० ओघं। सम्मत्त-सम्मामि० अप्प० जह० एयस०, उक्क. सगसगद्विदी। सेस. ओघं। अणुद्दिसादि जाव सम्वट्ठसिद्धि ति सव्वपयडी० अप्प० जहण्णुक्क० जहण्णुक्कस्सहिदो । णवरि सम्मत्त० अप्पदरस्स जह• एयस० । अणंताणु०चउक० अप्प० जह० अंतोमु० । समान जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि सौधर्मादिक स्वर्गो में अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अपनी स्थितिप्रमाण है। आनत कल्पसे लेकर उपरिम अवेयकतकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्टकाल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । तथा अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। शेष कथन ओघके समान है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धतकके देवोंमें सब प्रकृतियों की अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय है। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है।
विशेषार्थ-सर्वार्थसिद्धिके देवोंके सब प्रकृतियोंकी उत्तरोत्तर अल्पतर स्थिति ही होती है, इसलिये सामान्य देवोंके सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल तेतीस सागर कहा । भवन त्रिकमें सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते अतः यहाँ सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण प्राप्त होता है । तथा बारहवें स्वर्गतक संक्लेशानुसार स्थितिमें घटाबढ़ी होती रहती है इसलिये यहाँ तक सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका जघन्य काल एक समय भी प्राप्त होता है । किन्तु बारहवें स्वर्गके ऊपर यद्यपि सब प्रकृतियोंकी स्थिति उत्तरोत्तर अल्प ही होती जाती है फिर भी नौ ग्रैवेयकतकके जीव सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों प्रकारके होते हैं। तथा सम्यग्यदृष्टिसे मिथ्यादृष्टि भी होते हैं और मिथ्यादृष्टिसे सम् ग्दृष्टि भी। अतः यहाँ अनन्तानुबन्धो चतुष्क, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति अल्पतर और अवक्तव्य दो प्रकारकी बन जाती है किन्तु शेष कर्मो की एक अल्पतर स्थिति ही प्राप्त होती है। तदनुसार २२
भल्पतर स्थितिका जघन्य काल अपनी-अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण प्राप्त होता है। किन्तु शेष छह प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका जघन्य काळ एक समय भी बन जाता है, क्योंकि जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है ऐसा कोई एक जीव सासादनमें जाकर पहले समयमें अवक्तव्य स्थितिको प्राप्त हुआ और दूसरे समयमें अल्पतरस्थितिको प्राप्त करके यदि मर जाता है तो अनन्तानुबन्धीकी अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है। इसी प्रकार उद्वेलनाकी अपेक्षाउक्त स्थानोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिका जघन्य काल एक समय बन जाता है। तथा अनुदिश आदिमें बाईस प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह तो स्पष्ट ही है। किन्तु शेष छह प्रकृतियोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अल्पतर स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि वहाँ उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर जो अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर देता है उसके अनन्तानुबन्धीकी अल्पतर स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त ही प्राप्त
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org