Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२] पदणिक्खेवे अप्पाबहुअं
११५ चक्खु-अचक्खु०-पंचले०-भवसि०-सण्णि-आहारि ति ।
२१७. ओरालियमिस्स० सव्वत्थोवा छन्वीसं पयडीणं उक्क० वड्डी अवठ्ठाणं च । उक० हाणी संखे० गुणा। सम्मत्त-सम्मामि० णत्थि अप्पाबहुगं। एवं वेउव्वियमिस्स०-कम्मइय०-अणाहारि त्ति । आहार-आहारमिस्स० अट्ठावीसपयडीणं णस्थि अप्पाबहुगं; एगप्पदरपदत्तादो । एवमवगद०-अकसा०-आभिणि-सुद०-ओहि० मणपज्ज०संजद०-समाइय-छेदो०-परिहार० सुहुम०-जहाक्खाद०-संजदासंजद०-ओहिदंस०-सुकले०सम्मादि०-वेदगसम्मादि०-उवसम-सासण-सम्मामिच्छादिहि त्ति । णवरि आमिणि. सुद०-ओहि०-संजद०-सामाइय-छेदो०-संजदासंजद-ओहिदंस०-सुक्कले० सम्मादि०वेदगसम्मादिट्ठीसु सम्मत्त-सम्मामि० सव्वत्थोवमवट्ठाणं । हाणी असंखेगुणा । वड्डी विसेसाहिया त्ति किण्ण वुच्चरे ? ण, अप्पिदमग्गणाए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं वड्डि. अवट्ठाणाभावादो । णवरि सुकलेस्सिएसु तेसिं सव्वत्थोवा उकस्समवट्ठाणं । हाणी असंखे०. गुणा । वड्डी विसेसा० ।
२१८. मदि-सुदअण्णा० छव्वीसपयडीणं मूलोघभंगो । सम्मत्त-सम्मामि० णत्थि अप्पाबहुगं । एवं विहंग-मिच्छादिहि ति । अभविय० छब्बीसं पयडीणं मूलोघं । खइय.
लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए।
६२१७. औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान सबसे थोड़ा है। इससे उत्कृष्ट हानि संख्यातगुणी है। यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पबहुत्व नहीं है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । आहारककाययोगी और आहाकरमिश्रकाययोगी जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि यहाँ इनका एक अल्पतर पद है । इसी प्रकार अपगतवेदी, अषायी, भाभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धि संयत, सूक्ष्मसांपरायिकसयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्य ग्मिध्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए।
शंका-आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अवस्थान सबसे थोड़ा है। इससे हानि असंख्यातगुणी है तथा इससे वृद्धि विशेष अधिक है ऐसा क्यों नहीं कहा है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि विवक्षित मार्गणाओंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी वृद्धि और अवस्थानका अभाव है। किन्तु इतनी विशेषता है कि शुक्ललेश्यावाले जीवों में उक्त दो प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अवस्थान सबसे थोड़ा है। इससे हानि असंख्यातगुणी है तथा इससे वृद्धि विशेष अधिक है।
६२१८. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका अल्पबहुस्व मूलोषके समान है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पबहुत्व नहीं है। इसी प्रकार विभंगज्ञानी और मियादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंका अल्पबहुस्व मूलोघके
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