Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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१२८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविहत्ती ३ होदि; पलिदोवमस्स जहण्णपरित्तासंखेजभागहारत्तादो धुवद्विदीए धुवहिदिपलिदोवमसलागगुणिदजहण्णपरित्तासंखेजभागहारत्तादो। एदिस्से विदीए उवरि एगसमयं वड्डिदूण बंधमाणाणं पलिदोवमं धुवहिदि च पेखिदूण छेदभागहारो होदि । तं जहा-जहण्ण. परित्तासंखेनं विरलेदण पलिदोवमं समखंडं कादण दिण्णे एकेकस्स रूवस्स वड्डिपमाणं पावदि। संपहि एदिस्से उवरि एगसमयं वडिवण बंधमाणस्स भागहारमिच्छामो त्ति एगरूवधरिदं विरलेदूण एगरूवधरिदमेव समखंडं कादूण दिण्णे एकेकस्स रूवस्स एगेगरूवपरिमाणं पावदि । पुणो एत्थ एगरूवधरिदं घेत्तण उवरिमविरलणाए एगेगरूवधरिदम्मि दृविदे इच्छिदवड्डिपमाणं होदि एगरूवपरिहाणी च लब्भदि । एवं होदि त्ति कादृण हेट्टिमविरलणं स्वाहियं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणो लब्भदि तो जहण्णपरित्तासंखेञ्जविरलणाए केवडियरूवपरिहाणिं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए जं लद्धं तं जहण्णपरित्तासंखेजम्मि सरिसच्छेदं कादूण सोहिदे सेसमुक्कस्ससंखेजमेत्तरूवाणि एगरूवस्स असंखेजा भागा च पलिदोवमस्स धुवद्विदीए उवरि वडिरूवाणं भागहारो होदि । एसो पलिदोवमस्स छेदभागहारो । संपहि धुवट्टिदिछेदभागहारपरूवणा वि एवं चेव कायव्वा । णवरि पलिदोवमछेदभागहारम्मि ज्झीयमाणएगरूवंसादो धुवद्विदिछेदभागहारम्मि ज्झीयमाणअंसो संखेजगुणो' होदि; पलिदोवमभागहारस्स अंस
संख्यात है और ध्रुवस्थितिका भागहार एक ध्रवस्थितिमें जितने पल्य हों उनसे जघन्य परीतासंख्यातको गुणित करने पर जितना लब्ध आवे उतना है। पुनः इस स्थितिके ऊपर एक समय बढ़ाकर बन्ध करनेवाले जीवोंके पल्य और ध्रु वस्थितिको देखते हुए छेदभागहार होता है । जो इस प्रकार है-जघन्य परीतासंख्यातका विरलन करके और उस पर पल्यको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर एक एक रूपके प्रति वृद्धिका प्रमाण प्राप्त होता है। अब पूर्वोक्त बढी हई स्थितिके ऊपर एक समय बढ़ाकर बांधनेवालेका भागहार लाना इष्ट है इसलिये एक रूपके ऊपर रखी गई संख्याका विरलन करके और एक रूपके ऊपर रखी गई संख्याको ही समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर एक एकके प्रति एक एक प्राप्त होता है। पुनः यहाँ एक रूपके ऊपर रखी गई संख्याको लेकर उपरिम विरलनमें एक रूपके ऊपर रखी गई संख्यामें मिला देने पर इच्छित वृद्धिका प्रमाण प्राप्त होता है और एक रूपकी हानि प्राप्त होती है। ऐसा होता है ऐसा समझकर अधस्तन विरलनमें एक अधिक जाने पर यदि एकरूपकी हानि प्राप्त होती है तो जघन्य परीतासंख्यातरूप विरलनमें कितने रूपोंकी हानि प्राप्त होगी इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे इच्छाराशिको गुणित करके और उसमें प्रमाण राशिका भाग देने पर जो लब्ध आवे उसे जघन्य परीतासंख्यातमेंसे उसके समान छेद करके घटा देने पर जो शेष रहे वह उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण और एक रूपका असंख्यात बहुभाग होता है जो कि पल्यप्रमाण ध्रुवस्थितिके ऊपर बढ़ी हुई संख्याका भागहार होता है। यह पल्यका छेद भागहार है। ध्रुवस्थितिके छेदभागहारका कथन भी इसी प्रकार करना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि पल्यके छेदभागहारमें क्षीण होनेवाले एक रूपके अंशोंसे ध्रवस्थितिके छेदभागहारमें क्षीण होनेवाले अंश संख्यातगुणे होते हैं, क्योंकि पल्यके भागहारके जो
भा. प्रतौ असंखेजगुणो इति पाठः ।
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