Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहत्ती ३
२२४. एत्थ ड्डिहाणीणमत्थपरूवणाए कीरमाणाए तत्थ ताव तासिं सरूवं बुच्चदे | तत्थ वड्डी दुविधा — सत्थाणवड्डी परत्थाणवड्डी चेदि । तत्थ एगजीव समास मस्सिद्ण हिदीगंजा वड्डीसा सट्टाणवड्डी णाम । तं जहा- चदुण्हमेइं दियाणमप्पप्पणो जहण्णबंधस्सुवरि समयुत्तरादिक्रमेण जाव तेसिं चेव उक्कस्सबंधो त्ति ताव णिरंतरं बंधमाणाणमसंखेअदिभागवड्डी चैव होदि । कुदो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं चेव वीचाराणाणं तत्थुवलंभादो । हेट्ठा ओदरिदूण बंधमाणाणं पि एक्का चेव असंखेजभागहाणी होदि । बेइं दियतेइं दिय- चउरिंदिय असणपंचिंदिय-पजत्ता पत्ताणमडण्णं पि जीवसमासाणमपष्पणो जहण्णबंध पहुडि समयुत्तरादिकमेण जाव तेसिमुक्कस्सबंधो त्ति ताव बंधमाणा - मसंखेजभागवड्डी संखेजभागवड्ढि त्ति एदाओ दो चैव वड्डीओ होंति; एदेसु अडसु जीवसमासे पलिदो ० संखे ० भागमे तवीचार | णुवलंभादो । पुणो उकस्सबंधादो समयूणादिकमेण हेट्ठा ओसरिदूण बंधमाणाणमसंखेज भागहाणी संखेज्जभागहाणी च होदि । सण्णिपंचिंदियपञ्जत्तापजत्ताणं दोन्हं पि जीवसमासाणमप्पप्पणो जहण्णबंधप्पहुडि जाव सकस्सबंधोति ताव समयुत्तरादिकमेण बंधमाणाणमसंखेजभागवड्डी संखेज भागवड्डी
गुणवत्ताओ तिण्णि बड्डीओ होंति । पुणो हेट्ठा ओसरिदूण बंधमाणाणमसंखेजभागहाणी संखेजभागहाणी संखेजगुणहाणि त्ति एदाओ तिण्णि हाणीओ होंति । वरि सष्णिपंचिदियपजत्तएस केसिं चि कम्माणमसंखेज्जगुणवड्डी असंखेजगुणहाणी च होदि ।
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$ २२४. यहाँपर वृद्धि और हानि की अर्थप्ररूपणा करनेपर पहले उनका स्वरूप कहते हैं । इन दोनोंमेंसे वृद्धि दो प्रकारकी है - स्वस्थानवृद्धि और परस्थानवृद्धि । उनमें से एक जीवसमास के आश्रय से स्थितियोंकी जो वृद्धि होती है वह स्वस्थान वृद्धि है । यथा - चार एकेन्द्रियोंके अपने अपने जघन्य बन्धके ऊपर एक समय अधिक आदिके क्रम से लेकर जबतक उन्हीं का उत्कृष्टबन्ध होता है तबतक निरन्तर बन्धवाले उन कर्मोंकी असंख्यात भागवृद्धि ही होती है, क्योंकि वहाँपर पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण वचारस्थान पाये जाते हैं । तथा उत्कृष्टस्थिति से नीचे उतरकर बंधवाले कर्मों की भी एक असंख्यात - भागहानि ही होती है । दोइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्त और इनके अपर्याप्त इन आठों ही जीवसमासोंके भी अपने अपने जघन्यबन्धसे लेकर एक समय अधिक आदिके क्रमसे उत्कृष्टबन्ध तक बंधनेवाले कर्मोंकी असंख्यात भागवृद्धि और संख्यातभागवृद्धि ये दोनों ही वृद्धियां होती हैं; क्योंकि इन आठ जीवसमासोंमें पल्य के संख्यातवें भागप्रमाण वीचारस्थान पाये जाते हैं । पुनः उत्कृष्टबन्ध से एक समय कम आदि क्रमसे नीचे उतरकर बंधनेवाले कर्मोंकी असंख्यातभागहानि और संख्यात भागहानि होती है । संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त इन दोनों जीवसमासोंके अपने अपने जघन्यबन्धसे लेकर अपने अपने उत्कृष्टबन्ध तक एक समय अधिक आदि के क्रमसे बंधनेवाले कर्मोंकी असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि ये तीन वृद्धियां होती हैं । पुनः नीचे उतरकर बंधनेवाले कर्मों की असंख्यात भागहानि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि ये तीन हानियां होती हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि संज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्तकों में किन्हीं कर्मोंकी असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानि होती है ।
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