Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविद्दत्ती ३
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ति पंचणोकसायाणमप्पा बहुअण्णहाणुत्रवत्ती दो । सम्मत - सम्मामिच्छत्त० सव्वत्थोवा | उक० अवट्ठाणं । उक्क • हाणी असंखे ० गुणा । उक्क० वड्डी विसेस | ० | एवं चदुसु गदीसु । नवरि पंचिदियतिरिक्खअपज्ञ्ज० मणुस्सअपञ्ज० छन्वीसं पयडीणं सव्वत्थोवा उक्क० वड्डी अवट्ठाणं च । उक्क० हाणी संखे० गुणा । सम्मत्त सम्मामि० णत्थि अप्पा बहुअं; एगपदतादो । एवं सव्वविगलिंदिय-पंचिदियअपज ० -तस अपज० - असण्णि त्ति ।
$ २१४. आणदादि जाव उवरिमगेवजा त्ति छव्वीसं पयडीणमप्पाबहुअं णत्थि; एगपदत्तादो । सम्मत्त० - सम्मामि० सव्वत्थोवा उक्क० हाणी । उक्क० वड्डी संखेजगुणा । अणुद्दिसादि जाव सव्वट्टे त्ति णत्थि अप्पा बहुगं; एगपदत्तादो ।
९ २१५. इंदियाणुवादेण एइंदिएस छब्बीसं पयडीणं सव्वत्थोवा वड्डी अवट्ठाणं च | हाणी असंखे० गुणा । एइंदियाणं सत्थाणवड्डि-अवट्ठाणविवक्खाए एदमप्पा बहुअं परूविदं । परत्थाणविवक्खाए पुण णवणोकसासु विसेसो अत्थि सो जाणियच्चो । सो अत्थो जहासंभवमण्णत्थ वि जोजेयव्वो । सम्मत्त सम्मामि० णत्थि अप्पा बहुअं । एवं सव्वेइंदिय सव्वपंचकायाणं ।
$ २१६. पंचिंदिय-पंचिं ०पजत्तएसु मूलोघभंगो। एवं तस तसपज ०० पंचमण०पंचवचि० - कायजोगि ० - ओरालिय० - वे उव्त्रिय ० - तिण्णिवेद ० - चत्तारिकसाय - असंजद०
अल्पबहुत्व हानिसे वृद्धि विशेष अधिक है यह नहीं बन सकता है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका उत्कृष्ट अवस्थान सबसे थोड़ा है। इससे उत्कृष्ट हानि श्रसंख्यातगुणी है। इससे उत्कृष्ट वृद्धि विशेष अधिक है । इसी प्रकार चारों गतियों में जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थिति सबसे थोड़ी है। इससे उत्कृष्ट हानि संख्यातगुणी है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि यहाँ उसका एक अल्पतर पद ही पाया जाता है । इसी प्रकार सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, त्रस अपर्याप्त और असंज्ञी जीवोंके जानना चाहिए ।
§ २१४. आनतकल्पसे लेकर उपरिम ग्रैवेयकतक के देवों में छब्बीस प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि यहाँ पर इन प्रकृतियोंका एक अल्पतर पद ही पाया जाता है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि सबसे थोड़ी है । इससे उत्कृष्ट वृद्धि संख्यातगुणी है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि यहाँपर सभी प्रकृतियोंका एक अल्पतर पद ही पाया जाता है ।
६ २१५. इन्द्रियमार्गणा के अनुवाद से एकेन्द्रियोंमें छब्बीस प्रकृतियों की वृद्धि और अवस्थान सबसे थोड़ा है। इससे हानि असंख्यातगुणी है । एकेन्द्रियोंकी स्वस्थान वृद्धि और अवस्थानकी विवक्षासे यह अल्पबहुत्व कहा है । परस्थानकी विवक्षासे तो नौ नोकषायों के अल्पबहुत्व में विशेषता है जो जानना चाहिये । इस अर्थ की यथासम्भव अन्यत्र भी योजना करनी चाहिये । यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पबहुत्व नहीं है । इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय और सब पाँचों स्थावर काय जीबोंके जानना चाहिए ।
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$ २१६. पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें मूलोघके समान भंग है । इसी प्रकार त्रस, त्रसपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचतुदर्शनवाले, कृष्णादि पाँच
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