Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए उत्तरपडिभुजगारफोस
६५.
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९१२३. पंचिंदिय - पंचि ० पज्ज० - तस तसपज्ज • मिच्छत्त- बारसक०० - णवणोक० तिण्णिपद० वि० लोग० असंखे०भागो अट्ठ चोदस० देसूणा सव्वलोगो वा । णवरि इत्थि० - पुरिस० भुज० - अवडि० अट्ठ बारस चोहस० देखणा । अणंताणु० चउक० एवं चेव । णवरि अवत्तव्य० ओघं । सम्मत्त - सम्मामि० ओघं । एवं पंचमण० - पंचवचि०इत्थि० - पुरिस० - चक्खु ०-सण्णि त्ति | णवरि इत्थि० - पुरिसवेदमग्गणासु इत्थि० - पुरिस० भुज ० - अवट्टि० अट्ठ चोहस० देसूणा ।
$१२४. वेउव्त्रिय० मिच्छत्त बारसक० णवणोक० तिणिपद० लोग० असंखे०
विशेषार्थ – एकेन्द्रियों में मिथ्यात्व आदि २६ प्रकृतियोंके तीन पदवालोंके स्पर्शको ओके समान सब लोक बतलानेका कारण यह है कि ये जीव सब लोकमें पाये जाते हैं । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व अल्पतर स्थितिवालोंक स्पर्शको पंचेन्द्रियतिर्यंच अपर्याप्तकोंके समान बतलानेका कारण यह है कि जिसप्रकार पंचेन्द्रियतिर्यंच अपर्याप्तकोंमें इन प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिवालों का वर्तमान कालीन स्पर्शं लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीतकालीन स्पर्श सब लोक पाया जाता है उसी प्रकार एकेन्द्रियों में भी बन जाता है । इसीप्रकार चारों स्थावर काय आदि मार्गणाओं में स्पर्शका विवेचन कर लेना चाहिये ।
$ १२३. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस और सपर्याप्त जीवों में मिध्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकपायोंके तीन पदविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग, त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार, और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ और कुछ कम बारह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा इसीप्रकार जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवों का स्पर्श ओघके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा स्पर्श ओके समान है । इसी प्रकार पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, चक्षुदर्शनवाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्री और पुरुषवेद मागेणाओं में स्त्री और पुरुषवेदकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है ।
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विशेषार्थ – पंचेन्द्रिय आदि चार मार्गणाओंमें और स्पर्श तो सुगम है । किन्तु स्त्रीवेद और पुरुषवेदक भजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिवालोंका स्पर्श जो कुछकम आठबटे चौदह राजु बतलाया है वह विहार आदिकी अपेक्षा बतलाया है । तथा कुछकम बारहबटे चौदह राजुस्पर्श मारणान्तिक और उपपाद पदकी अपेक्षा बतलाया है। यहाँ इन दोनों प्रकृतियोंके उक्त पदोंकी अपेक्षा इससे अधिक स्पर्श नहीं प्राप्त होता । इसी प्रकार पाँच मनोयोगी आदि मार्गणाओं में भी घटित कर लेना चाहिये । किन्तु स्त्रीवेद और पुरुषवेद मार्गणाओं में जो स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार और अल्पतर स्थितिवालोंका स्पर्श कुछकम आठवटे चौदह राजु बतलाया है सो इसका कारण यह है कि ये जीव अधिकतर देव होते हैं जो तीसरे नरकतक नीचे और अच्युत कल्पतक ऊपर विहार करते हुए पाये जाते हैं । इसके ऊपर यद्यपि पुरुषवेदी जीव हैं पर वे बिहार नहीं करते अतः उनका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है इसलिये उससे इस स्पर्शमें कोई विशेषता नहीं आती ।
$ १२४. वैक्रियिककाययोगियों में मिध्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकपायोंके तीन पदवाले ६
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