Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविहत्ती ३ परूवणा-सामित्ताणं विवरणं ण लिहिदं; सुगमत्तादो।
. १९८. संपहि उच्चारणमस्सिदूणं तेसिं विवरणं कस्सामो-पदणिक्खेवे तस्थ इमाणि तिणि अजिंओगद्दाराणि-समुक्त्तिणा सामित्तमप्पाबहुअं चेदि । तत्थ समु. कित्तणा दुविहा-जह• उक० । उक० पयदं। दुविहो णिदेसो-ओघे० आदेसे० । ओघेण सव्वपयडीणमथि उक्क० वड्डी हाणी अवहाणं च । एवं चदुसु गदीसु । णवरि पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुस अपज० सम्मत्त-सम्मामि० अस्थि उक० हाणी। आणदादि जाव उवरिमगेवजो त्ति छव्वीसपयडीणमत्थि उक० हाणी। सम्म०-सम्मामि० अस्थि उक० वड्डी हाणी । अवठ्ठाणं णत्थि । अणुदिसादि जाव सव्वढे ति अट्ठावीसपय० अस्थि उक० हाणी । एवं णेदव्बं जाव अणाहारए त्ति । एवं जहण्णं पिणेदव्वं ।
चूर्णिसूत्र में प्ररूपणा और स्वामित्वका विशेष व्याख्यान निबद्ध नहीं किया है, क्योंकि उनका व्याख्यान सुगम है।
१९८. अब उच्चारणाका आश्रय लेकर उनका व्याख्यान करते हैं-पदनिक्षेपमें ये तीन अनुयोगद्वार हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पवहुस्व। उनमेंसे समुत्कीर्तना दो प्रकारकी है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमें से उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघ और आदेश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थान है। इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना। किन्तु इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्त
और मनुष्य अपर्याप्त जीवोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि है। आनतकल्पसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि और हानि है। अवस्थान नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक कथन करना चाहिये । इसी प्रकार जघन्य वृद्धि आदिको भी जानना चाहिये। . विशेषार्थ-यहाँ भुजगार विशेषको पदनिक्षेप कहा है । इसका यह तात्पर्य है कि पहले जो भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पद बतलाये हैं उनकी क्रमसे वृद्धि, हानि और अवस्थित संज्ञा करके और उनमें जघन्य और उत्कृष्ट भेद करके कथन करना पदनिक्षेप कहलाता है। यहाँ पदसे वृद्धि आदि रूप पदोंका ग्रहण किया है और उनका जघन्य तथा उत्कृष्टरूपसे निक्षेप करना पदनिक्षेप कहलाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस अधिकारकी यतिवृषभ आचार्यने केवल तीन अधिकारों द्वारा कथन करनेकी सूचना की है। वे तीन अधिकार प्ररूपणा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व हैं। इसके कालादि और अधिकार क्यों नहीं स्थापित किये गये इस प्रश्नका उत्तर देना कठिन है। बहुत सम्भव है परम्परासे इन तीन अधिकारों द्वारा ही इस अनुयोगद्वारका वर्णन किया जाता रहा हो । षट्खण्डागममें भी इस अधिकारका उक्त तीन अनुयोगद्वारोंके द्वारा वर्णन किया गया है। यतिवृषभाचार्यने यहाँ नामनिर्देश तो तीनोंका किया है परन्तु वर्णन केवल अल्पबहुत्वका ही किया है। फिर भी उच्चारणामें इन सबका वर्णन है। वीरसेन स्वामीने उसके अनुसार उन अनुयोगद्वारोंका खुलासा किया है। प्ररूपणा अनुयोगद्वारका खुनासा करते हुए जो यह बतलाया है कि ओघसे सब प्रकांतयोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान है सो इसका यह भाव है कि जिस कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होनेके पूर्व समयमें जितनी जघन्य स्थिति सम्भव हो, उसके रहते हुए भी तदनन्तर समयमें संक्लेश आदि अपने अपने कारणों के अनुसार वह जीव उस कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिको
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