Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारअंतरं दोसो; सादिरेयचउवीसअहोरत्तमेत्तरस्स भुजगार-अवत्तव्वविदिविहत्तीणं परूवणादो ।
* अवढिदहिदिविहत्तियंतरं केवचिरं कालादो होदि ?
१४७. सुगमं। * जहरणेण एगसमत्रो। $ १४८. एदं पि सुगम। * उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेजदिभागो।
$ १४६. कुदो ? सम्मत्तद्विदीदो समयुत्तरमिच्छत्तहिदिसंतकम्मं मोत्तण सेसहिदिसंतकम्मेहि संखे०सागरोवमसहस्समेत्तेहि सम्मत्तं पडिवज्जमाणाणं अंगुलस्स असंखे०भागमेत्तरस्स संभवं पडि विरोहाभावादो। संखेज्जसागरोवमसहस्समेत्तमुक्कस्संतरमिदि अभणिय अंगुलस्स असंखे०भागमेत्तमिदि किमहूं वुच्चदे ? ण, पुणो पुणो दुसमउत्तरादिद्विदीसु ट्ठाइदूण सम्मत्तं पडिवज्जमाणाणं जीवाणं बहुअमंतरमुवलब्भदि त्ति अंगुलस्स असंखे०भागमेत्ततरुवएसादो'। एकेकिस्से द्विदीए असंखे लोगमेतद्विदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि अस्थि । तेसु अंतरिय असंखे०लोगमेत्तंतरपमाणपरूवणा किण्ण कोरदे ? ण, ट्ठिदिअंतरे काल भी उतना ही कहा जा रहा है सो यह कैसे बन सकता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहाँ भुजगार और अवक्तव्य स्थितिविभक्तियोंका अन्तरकाल केवल चौबीस दिनरात न कहकर साधिक चौबीस दिन रात कहा है।
* अवस्थित स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल कितना है ? $ १४७. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल एक समय है।
६१४८. यह सूत्र भी सुगम है । तात्पर्य यह है कि यह पद भी सम्यग्दर्शनको ग्रहण करनेके प्रथम समयमें हो सकता है। अब यदि नाना जीवोंने इस पदके साथ पहले और तीसरे समयमें सम्यग्दर्शनको प्राप्त किया और दूसरे समयमें नहीं किया तो इसका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त हो जाता है।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
६१४६. क्योंकि सम्यक्त्वकी स्थितिसे मिथ्यात्वके एक समय अधिक स्थितिसत्कर्मको छोड़कर संख्यात हजार सागर प्रमाण शेष स्थितिसत्कर्मके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंके अंगुलके असंख्यातवें भागमात्र अन्तरके होनेमें कोई विरोध नहीं आता है।
शंका-उत्कृष्ट अन्तर संख्यात हजार सागरप्रमाण है ऐसा न कहकर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है ऐसा किसलिये कहा है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि सम्यक्त्वकी स्थितिसे मिथ्यात्वकी दो समय अधिक आदि स्थितियोंके द्वारा पुनः पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंके बहुत अन्तर पाया जाता है, इसलिये अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तर कहा है।
शंका-एक एक स्थितिके असंख्यात लोकप्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान होते हैं । अतः उन सबका अन्तर कराने पर अन्तरका प्रमाण असंख्यात लोक प्राप्त होता है इसलिये यहाँ असंख्यात लोक प्रमाण अन्तरकालकी प्ररूपणा क्यों नहीं की?
१ ता०प्रतौ'रुवलंभादो' इति पाठः ।
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