Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
६४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविहत्ती ३ अवढि०-अवत्तव्व० लोग० असंखे०मांगो अट्ठ चोदस० देसूणा। अप्पदर० लोग० असंखे०भागो अट्ठ-णव चोद्दस० देसूणा । एवं सोहम्म० । भवण०-वाण-जोदिसि० एवं चेव । णवरि अछुट्ट-अट्ठ-णव चोदस० देसूणा। सणक्कुमारादि जाव सहस्सार० सव्वपयडि० सव्वपदवि० लोग० असंखे भागो अट्ठ चोद्द० देसूणा। आणदादि जाव अच्चुदे त्ति सव्वपय० सव्वपदवि० लोग० असंखे०भागो छ चोदस० देसूणा । एवं सुक०। उवरि खेत्तभंगो। एवमाहार०-आहारमिस्स०-अवग०-अकसा०-मणपज.. संजद०-सामाइय छेदो०-परिहार०-सुहुम०-जहाक्खाद०-अभवसिद्धिया ति ।
१२२, एइंदिएसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० तिण्हं पदाणमोघं । सम्मत्त.. सम्मामि० अप्पदर० पंचिदियतिरिक्ख अपज्जत्तभंगो। एवं चत्तारिकाय-बादरअपज०सव्वेसिं सुहुमपजतापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेय०अपज्ज०-वणप्फदि-णिगोद०-ओरालियमिस्स०-कम्मइय०-मदि०-सुद०-मिच्छाइट्ठि-असण्णि०-अणाहारि त्ति । स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवेंभाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग
और त्रर के चौदह भागोंमेंसे कुछकम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसीप्रकार सौधर्म और ऐशान स्वर्गके देवोंके जानना चाहिये । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके इसीप्रकार जानना । किन्तु इतनी विशेषता है कि उन्होंने त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछकन साढ़ेतीन, कुछकम आठ और कुछकम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछकम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । आनतसे लेकर अच्युत कल्पतकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और वसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछकम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसीप्रकार शुक्ललेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिए। ऊपर नौ ग्रैवेयक आदिमें स्पर्श क्षेत्रके समान है। इसीप्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत और अभव्य जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ पूर्वमें नरकगति आदिमें स्पर्शका जो विवेचन किया है उसे ध्यानमें रखते हुए देवोंमें और उनके अवान्तर भेदोंमें यदि सब प्रकृतियोंके यथासम्भव पदोंकी अपेक्षा स्पर्शका विचार किया जाता है तो किस अपेक्षा कहाँ कितना स्पर्श बतलाया है यह बात सहज ही समझमें आजाती है। इसीलिये यहाँ अलग-अलग खुलासा नहीं किया है। तथा 'एवं' कह कर जो आहारककाय. योग आदिमें स्पर्शका निर्देश किया है उसका यही अभिप्राय है कि जिसप्रकार नौ ग्रैवेयक आदिमें स्पर्श क्षेत्रके समान है उसी प्रकार इन मागंणाओं में भी जानना चाहिये।
६ १२२. एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके तीन पदवाले जीवोंका स्पर्श ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श पंचेन्द्रियतिथंच अपर्याप्तकोंके समान है। इसीप्रकार पृथिवीकायिक आदि चार स्थावरकाय इनके बादर तथा बादर अपर्याप्त, सभी सूक्ष्म तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर और उनके अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, निगोद, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मण काययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org