Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
गा० २२
द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारपरिमाणं सेसपयडि० णत्थि भागाभागं। एवं सुक्कले० । अणुदिसादि जाव सव्वट्ठ० सवपयडी० णत्थि भागाभागं। एवमाहार-माहारमिस्स०-अवगद०-प्रकसा०-आभिणि.. सुद०-श्रोहि०-मणपज०-संजद० सामाइय-०छेदो०-परिहार ०-सुहुम०-जहाक्खाद०-संजदासंजद०-ओहिदंस०-सम्मादिढि०- खइय--वेदय०-उवसम-सासाण०-सम्मामिच्छादिट्टि त्ति । अभव० छव्वीसपयडि० मदिभंगो।।
एवं भागाभागाणुगमो समत्तो । १०६. परिमाणाणुगमेण दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण । ओघेण मिच्छत्तबारसक०-णवणोक तिण्णि पदा० केत्तिया ? अणंता। अणंताणु०चउक्क० एवं चेव । णवरि अवत्तव्य. असंखेजा। सम्मत्त-सम्मामि० सव्वपदा केत्तिया? असंखेजा । एवं तिरिक्ख-कायजोगि-ओरालि०-णqस०-चत्तारिक०-असंजद०-अचक्खु०-तिण्णिले०भवसि०आहारि ति । ___ ११०. आदेसेण णेरइएसु सव्वपयडीणं सव्वपदा केत्तिया ? असंखेजा। एवं सवणेरइय० सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसअपज०-देव०-भवणादि जाव सहस्सार०-पंचिंदिय-पंचिं०पज-तस-तसपज्ज०-पंचमण-पंचवचि०-वेउव्विय०-इत्थि०-पुरिस०-चक्खु०. तेउ०-पम्म०-सण्णि त्ति । मणुस० अणंताणु०चउक्क० अवत्तव्व० केत्ति ? संखेज्जा। स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भाग हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका कथन ओघके समान है। यहाँ शेष प्रकृतियोंकी अपेक्षा भागाभाग नहीं है। इसी प्रकार शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें जानना चाहिए। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी अपेक्षा भागाभाग नहीं है । इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भंग मत्यज्ञानियोंके समान है।
इस प्रकार भागाभागानुगम समाप्त हुआ। ६१०६. ओघ और आदेशकी अपेक्षा परिमाणानुगम दो प्रकारका है। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा तीन पदवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सब पदवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इसी प्रकार तिर्यंच, काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, अचक्षदर्शनवाले, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य और पाहारक जीवोंके जानना चाहिए।
६ ११०. श्रादेशकी अपेक्षा नारकियोंमें सब प्रकृतियों के सब पदवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रारस्वर्गतकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त , त्रस, सपर्याप्त, पांचों मनोयोगो, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, चक्षुदर्शनवाले, पीतलेश्यावाले, पद्म लेश्यावाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिए। मनुष्यों में अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org