Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
हिदिविहत्ती ३ १०२. आणदादि जाव उवरिमगेवजो ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० अप्पदर० णियमा अस्थि । अर्णताणु०चउक्क० अप्पदर० णियमा अस्थि । अवत्तव्यविहत्तिया भयणिजा । भंगा तिण्णि । सम्मत्त-सम्मामि० ओघं । एवं सुक्कले० । अणुदिसादि जाव सव्वट्ठ० सव्वपयडीणमप्पदर० णियमा अस्थि । एवमाभिणि-सुद०-ओहि-मणपज०संजद-सामाइय-छेदो०-परिहार०-संजदासंजद-अोहिदंस०-सम्मादि'०-खइय०-- वेदय०दिट्टि ति।
१०३. एइंदिय० सव्वपयडि० सव्वपदा णियमा अत्थि । एवं बादरसुहुमेइंदियपञ्जत्तापजत्त-[ पुढवि०-बादरपुढवि०.] बादरपुढवि०अपज०-सुहुमपुढविपजत्तापजत्त[आउ०-बादरआउ० वादरआउअपज०-सुहुमाउ०पज्जत्तापज्जत्त-तेउ०-बादरतेउ०]वादरतेउअपज०-सुहुमतेउपजत्तापज्जत्त-वाउ०-बादरवाउ०] बादरवाउअपज०-सुहुमवाउपजत्ता यहाँ भी ध्रुव पदका अभाव होनेसे ध्रव भंगका निषेध किया। वैक्रियिकमिश्रकाययोग यह भी सान्तर मार्गणा है और इसमें लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंके समान सब प्रकृतियोंके पद तथा भंग बन जाते हैं, अतः इनके कथनको लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों के समान कहा।
१०२. आनतकल्पसे लेकर उपरिम ग्रेवयक तकके देवों में मिथ्यात्व, बाहर कषाय और नौ नोकषायोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। अनन्तानबन्धी चतष्ककी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव भजनीय हैं। भंग तीन होते हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका कथन ओघके समान है। इसी प्रकार शुक्ल लेश्यावाले जीवोंमें है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। इसी प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनवाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए।
विशेषार्थ-आनतसे लेकर उपरिमौवेयकतकके देवोंके मिथ्यात्व आदि २२ प्रकृतियोंका एक अल्पतर पद ही बतलाया है, अतः इनका एक ध्रुव भंग ही होता है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कके अल्पतर और अवक्तव्य ये दो पद बतलाये हैं। इनमें से अल्पतर पद ध्रुव है और अवक्तव्य पद अध्रुव है। अतः एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा इन अवक्तव्य सम्बन्धी दा अध्रुव भंगोंमें एक ध्रुवभंगके मिला देनेपर तीन भंग प्राप्त होते हैं। आनतादिकमें मिथ्यात्वसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति
और सम्यक्त्वसे मिथ्यात्वकी प्राप्ति सम्भव है, अतः यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके ओघके समान चारों पद और उनके २७ भंग बन जाते हैं। यही कारण है कि यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भंगोंको ओघके समान कहा है। अनुदिश आदिकमें तो सम्यग्दृष्टि जीव ही होते हैं
और सम्यग्दृष्टियोंक सब प्रकृतियोंका एक अल्पतर पद ही होता है। इसीलिये अनुदिशादिकमें सब प्रकृतियोंका एक अल्पतर पद कहा है। मूलमें आभिनिबोधकज्ञानी आदि और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी एक अल्पतर पद ही सम्भव है, अत: उनके कथनको अनुदिश आदिके समान कहा।
६१०३. एकेन्द्रियोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदवाले जीव नियमसे हैं। इसी प्रकार बादर और सूक्ष्म एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक तथा
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