Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारसामित्तं बद्धा। पुणो सोलससमयम्मि अद्धाक्खएण अणांताणुवंधिकोघेण वड्डिद्ग बद्धे सोलस भुजगारसमया । पुणो सत्तारससमए संकिलेसक्खएण अणंताणुबंधिकोघेण सह सन्चेसिं कसायाणं वविदण बद्धे सत्तारस भुजगारसमया । पुणो कालं कादू ण एगविग्गहेण सण्णीसुप्पण्णपढमसमए असण्णिहिदि बंधमाणस्स अट्ठारस भुजगारसमया । पुणो सरोरं घेत्तण सण्णि हिदि बंधमाणस्स एगूणवीस भुजगारसमय। १३ । जहा अणंताणुबंधिकोषस्स उक्कस्सेण एगूणवीससमयाणं परूवणा कदा तहा माणादीणं पण्णारसहं पयडीणं पत्तेयं पत्तेयं परिवाडीए परूवणा कायब्बा।
४२ णवणोकसायाणं पि एवं चेव वत्तव्यं । णवरि सत्तारससमयाहियआवलिया. वसेसे आउए आवलियपढमसमयप्प हुडि कोधादिसोलसकसायाण परिवाडीए अद्धाक्चएण सोलससमयमेत्तकाल वडिदूण बधिर पुणो सत्तारससमए संकिलेसक्खएण सबार्सि चेव सोलरूपयडीणं भुजगारं कादण पुणो बंधावलियादिकंतकसायट्ठिदिं णवणोकसायाणवरि बंधपरिवाडीए संकममाणस्स णोकसायाण सत्तारस भुजगारसमया । पुणो एगविगहेण सण्णीसुप्पण्णपढमसमर अलग्णिहिदि बंधमाणस्स अट्ठारस भुजगारसमया । पणो सरोरगहिदपढमसमए सणिहिदि बंधमाणस्त एगूणवीस भुजगारसमया । जहा एइंदिधमस्सिदण भुजगारस्स एगूणवीससमयाणं परूषणा कदा तहा विगलिंदियजीवे वि अस्सिदण कायब्बा। बढ़ाकर बाँधने पर सोलह भुजगार समय होते हैं। पुनः सत्रहवें समयमें संक्लेशक्षयसे अनन्तानुबन्धी क्रोधके साथ सब कर्षायोंको बढ़ाकर बाँधनेपर सत्रह भुजगारसमय होते हैं। पुनः मरकर एक मोड़ाके द्वारा संज्ञियोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें असंज्ञियोंकी स्थितिको बाँधनेवाले उस जीवके अठारह भुजगार समय होते हैं । पुनः शरीरको ग्रहण करके संज्ञीके योग्य स्थितिको बाँधनेवाले उस जीवके उन्नीस भुजगार समय होते हैं १९ । मूलमें जिस प्रकार अनन्तानुबन्धी क्रोधके उत्कृष्टरूपसे उन्नीस भुजगार समयोंका कथन किया है उसीप्रकार मानोदिक पन्द्रह प्रकृतियोंके १९ भुजगार समयोंका क्रमसे अलग अलग कथन कर लेना चाहिये ।।
४२. नौ नोकषायोंका भी इसीप्रकार कथन करना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि जिस एकेन्द्रिय जीवके आयुमें सत्रह समय अधिक एक आवलिप्रमाण काल शेष रहे उसके आवलिके प्रथम समयसे लेकर क्रोधादि सोलह कषायोंका क्रमसे अद्धाक्षयके द्वारा सोलह समय तक स्थिति बढाकर बन्ध करावे । पुनः आवलिके सत्रहवें समयमें संक्लेशक्षयसे सभी सोलह प्रकृतियोंकी भुजगार स्थितिका बन्ध करावे । पुनः बन्धावलिके व्यतीत हो जाने पर बन्धक्रमसे उन कषायोंकी स्थितियोंका नौ नोकषायोंमें संक्रमण करावे । इस प्रकार संक्रमण करनेवाले जीवके नौ नोकषायोंके सत्रह भुजगार समय प्राप्त होते हैं। पुनः एक मोड़ेके द्वारा संज्ञियोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें असंज्ञियोंकी स्थितिको बाँधनेवाले उस पूर्वचर एकेन्द्रिय जीवके अठारह भुजगार समय होते हैं। पुनः शरीर ग्रहण करनेके प्रथम समयमें संज्ञीके योग्य स्थितिको बाँधनेवाले उस जीवके उन्नीस भुजगार समय होते हैं। यहाँ जिस प्रकार एकेन्द्रियोंका आश्रय लेकर भुजगार स्थितिविभक्तिके उन्नीस समयोंका कथन किया है उसी प्रकार विकलेन्द्रिय जीवोंका आश्रय लेकर भी कथन करना चाहिये।
भा०प्रतौ सम्वेसि कम्माणं बट्टिदूण इति पाठ :।
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