Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
द्विदिविहत्ती उत्तरपयडिभुजगार कालो
जह० तो ०, उक्क० वेछावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । एवं तस-तसवज्ज०अचक्खु०- मवसिद्धिया ति । णवरि तस तसपज्ज० सम्म सम्मामि० अप्पद० जह० ऐगसमओ ।
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५१. आदेसेण रइएस मिच्छत्तस्स भुज० के ० १ जह० एगसमओ, उक्क० तिण्णि समया । तं जहा - असण्णिपंचिंदियस्स दोविग्गहं काढूण पणेरहएस उववण्णस्स विदियसमर्थ अद्धावखरण एगो भुजगारसमओ । तदियसमए तडिदिपरिणामेहि चैव सणिहिदि बंघमाणस्स विदिओ भुजगारसमओ । संकिलेसक्खएण विणा तदियसमए कधं सण्णिहिदि बंधदि ? ण, संकिलेसेण विणा सणिपंचिंदियजादिमस्सिदृण द्विदिबंधवड्डीए उवभादो | उत्थसमए संकिलेसक्खरण तदिओ भुजगारसमओ । एवं मिच्छत्तभुजगारस्स तिण्णि समया परूविदा | अहवा अद्धाक्खरण संकिलेसक्खएण च वड्डिण बंधमाणस्स वे समया । एस पाढो एत्थ पहाणभावेण घेत्तव्वो । अप्पदर० जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीससागरो० देसूणाणि । अवद्विद० ओघं । बारसक० णवणोक० भुज० ज० एगसमओ, उक्क० सत्तारस समया । अट्ठारससमयमेतभुजगारकालो किमेत्थ गोवलब्भदे ?
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अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तियोंका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल साधिक एकसौ बत्तीस सागर है । इसी प्रकार स, स पर्याप्त, अचक्षुदर्शनवाले और भव्य जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि स और स पर्याप्तकों में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय है ।
विशेषार्थं - यद्यपि ओघसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरस्थितिविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्तसे कम प्राप्त नहीं होता तो भी त्रस और त्रसपर्याप्त जीवोंके वह एक समय न जाता है, क्योंकि जिसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनामें एक समय शेष रह गवा है उसके स और सपर्याप्तकों में उत्पन्न होनेपर वहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिका जघन्य काल एक समय देखा जाता है ।
५१. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्वकी भुजगारस्थितिविभक्तिका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल तीन समय है । उत्कृष्टकाल तीन समय इस प्रकार है - जो असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव दो मोड़े लेकर नारकियों में उत्पन्न हुआ है उसके दूसरे समयमें अद्धाक्षयसे एक भुजगार समय होता है। तीसरे समय में स्थितिके उसी परिणामसे ही संज्ञीकी स्थितिको बाँधते हुए उसके दूसरा भुजगार समय होता है ।
शंका -- संक्लेशक्षयके बिना तीसरे समयमें वह जीव संज्ञीको स्थितिको कैसे बाँधता है ? समाधान – क्योंकि संक्लेशके बिना संज्ञी पंचेन्द्रिय जातिके निमित्तसे उसके स्थितिबन्धमें वृद्धि पाई जाती है ।
तथा चौथे समय में संक्लेशक्षयसे उसके तीसरा भुजगार समय होता है । इस प्रकार नारकियोंके मिथ्यात्वकी भुजगारस्थितिके तीन समयोंका कथन किया। अथवा अद्धाक्षय और संक्लेश से स्थिति बढ़ाकर बाँधनेवाले नारकी के दो भुजगार समय होते हैं । यह पाठ यहाँपर प्रधानरूपसे लेना चाहिये । अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम तेतीससागर है । अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है । बारह कषाय और कषायी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल सत्रह समय है ।
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