Book Title: Kalpasutram Part_2
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot

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Page 360
________________ सूत्र मञ्जरी रीका याज्ञिकाः सर्वे ब्राह्मणाः परस्परम् अन्योऽन्यम् एवं-यक्ष्यमाणं वचनम् आख्यान्ति सामान्यतो वदन्ति, एवं भाषन्ते भावव्यञ्जनपूर्वकं वदन्ति एवं प्रज्ञापयन्ति-विशेषतः कथयन्ति, एवं प्ररूपयन्ति हेतुदृष्टान्तप्रदर्शनपुरस्सरं श्रीकल्पब्रुवन्ति, तथाहि भो भो लोकाः! भवन्तः यज्ञप्रभावं पश्यन्तु, येन यज्ञप्रभावेण इमे एते देवाश्च देव्यश्च यज्ञ कल्पदर्शनार्थ हविष्यग्रहणार्थ-पायमघृतादि वहितपदार्थस्वीकारार्थ च निज निज विमानः निज निज सर्वद्धयादिकः ॥३४॥ साक्षात्-प्रत्यक्ष समागच्छन्ति, तत्रस्थिताः यज्ञपाटके स्थिता यज्ञदर्शनार्थिनो लोका आश्चर्यकम्-विस्मयम् अनुभूय-प्राप्य-विस्मिताः सन्तः एवम् वक्ष्यमाणं वचनम् अवादिषुः-उक्तवन्तः-तथाहि-यद इमे-एते याज्ञिकाः ब्राह्मणाः धन्याः प्रशंसनीयाः कृतकृत्याः सम्पादितस्वकर्तव्याः कृतपुण्याः कृतसुकृताः, कृतलक्षणा: प्रशस्तहस्तरेखादिरूपलक्षणवन्तः सन्ति । येषां याज्ञिकानां ब्राह्मणानां यज्ञबाटे यज्ञस्थाने देवाश्च देव्यश्च साक्षात्-प्रत्यक्ष यथास्यात्तथा समावयन्ति-समायान्ति ।मु०१०४॥ मूलम्-एवं परोप्परं कहमाणेसु समाणेसु एत्थंतरे ते देवा जन्नवाडयं चइय अग्गे पट्टिया। तं दट्टणं ते जन्न नाडगो माहणा निकंपा नित्तेया ओमंथिय वयणनयण कमला दीगविषण्णवयणा संजाया एत्थंतरे अंतरा आगासंसि देवेहि धुह-तं जहा का यज्ञपाटकस्थ ब्राह्मण के बाड़े में उपस्थित यज्ञकर्म करनेवाले सभी ब्राह्मण परस्पर इस प्रकार सामान्यरूप से कहने लगे, भाव प्रकट वर्णनम् । करके कहने लगे, विशेषरूप से कहने लगे, और हेतु तथा दृष्टान्त दे-देकर कहने लगे--'महानुभावो! मू०१०५॥ यज्ञ के प्रभाव को तो देखो। यह देव और देविया यज्ञ के दर्शन के लिए और हविष्य (अग्नि मे होमे हुए खीर घृत आदि पदार्थों) को स्वीकार करने के लिए अपने-अपने विमानों से और अपने-अपने वैभव के साथ प्रत्यक्ष आ रहे हैं।' यज्ञ के वाडे में उपस्थित यज्ञदर्शक लोग यह अचरज देखकर विस्मित रह गये नई और कहने लगे-यह याज्ञिय ब्राह्मण धन्य है-प्रशंसनीय है, कृतकृत्य हैं, कृतपुण्य हैं और सुलक्षणों से सम्पन्न है। इन के यज्ञस्थल में देवों और देवियों का प्रत्यक्ष आगमन हो रहा है। नू०१०४॥ કરી રહ્યા હતા કે, દેનું જૂથ આપણા યજ્ઞના હવનહામ જોવા માટે તેમજ ખીર વૃત આદિ પદાર્થોને પ્રસાદ લેવા ॥३४९॥ સારૂં પોતપોતાના વિમાન અને વૈભવ સાથે આવી રહ્યું છે. આ વખતે ત્યાં હાજર રહેલી જનમેદનીએ દેવોનું આગમન જોઈ આશ્ચર્ય અને વિસ્મય પામીને કહેવા લાગ્યા કે આ યાજ્ઞિક બ્રાહ્મણોને ધન્ય છે, તેઓ પ્રશંસનીય છે. કૃતકૃત્ય છે. કૃત થતું પુણ્ય છે. અને સુલક્ષણોથી સંપન્ન છે. કે જેથી તેમનાં યજ્ઞસ્થળે દેવદેવીઓ પ્રત્યક્ષ હાજર થાય છે. (સૂ૦-૧૦૫) રે Jain Education ferational For Private & Personal Use Only dww.jainelibrary.org.

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