Book Title: Kalpasutram Part_2
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot

View full book text
Previous | Next

Page 463
________________ श्रीकल्पसूत्रे ।।४५२।। विपाकसूत्रम् प्रथमस्कन्धत्वेन प्रसिद्धानि दुःखविपाकनामकानि दशसंख्यकान्यध्ययनानि, तथा दशअध्ययनानि पुण्यफलविपाकानि = विपाकसूत्रस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धत्वेन प्रसिद्धानि सुखविपाकनामकानि दशाध्ययनानि कथयित्वा, च = पुनः पट्त्रिंशत् = षट्त्रिंशदध्ययनात्मकानि अपृष्टव्याकरणानि=प्रश्नं विनैव उक्तानि उत्तराध्ययननाम्ना प्रसिद्धानि व्याकृत्य =उक्त्वा एवम् =अनेनू प्रकारेण षट्पञ्चाशदध्ययनानि कथयित्वा प्रधाननामकं मरुदेवाध्ययनम् विभावयन्= निरूपयन् कालगत : = कालधर्मप्राप्तः, कायस्थितिभवस्थिति कालाद्गतः, व्यतिक्रान्तः = संसाराद् व्यतिगतः, समुद्यतः= अपुनरावृत्योर्द्ध गतः । छिन्नजातिजरामरणवन्धनः = उन्मूलितजातिजरामरणकारणकर्मा, सिद्धः - साधितपरमार्थः, 'बुद्धः = ज्ञाततत्वार्थः, , मुक्तः = सकलकर्मकलापपाशाद्वियुक्तः, अन्तकृतः = दूरीकृतसर्वदुःखः, परिनिर्वृतः = सर्वसन्तापाभावात् परमशान्तिप्राप्ताः, तथा च कीदृशी जात इति दर्शयति — सर्वदुःखप्रहीणः = प्रहीणशारीरमानससर्वदुःखः जातः अभवत् । फलविपाक दर्शाने वाले दस दुःखविपाक नामक अध्ययनों को तथा विपाकसूत्र के द्वितीय अध्ययन के नाम से प्रसिद्ध, पुण्य का फल बतलानेवाले दस सुखविपाक नामक अध्ययनों को कह कर और उत्तराध्ययन के नाम से प्रसिद्ध छत्तीस अध्ययन रूप पृष्ट व्याकरणों को अर्थात् पूछे बिना ही किये गये व्याकरणों को कह कर और इस प्रकार सब छप्पन अध्ययन फरमा कर प्रधान नामक मरूदेव अध्ययन का प्ररूपण करते हुए काल को प्राप्त हुए । अर्थात् कार्यस्थिति और भवस्थिति से मुक्त हुए, पुनरागमन रहित गति को प्राप्त हुए, जन्म जरा और मरण के बन्धन से मुक्त हुए, परमार्थ को साधकर सिद्ध हुए, तवार्थ को जानकर बुद्ध हुए और समस्त कर्मों के समूह से मुक्त हुए, उनके समस्त दुःख दूर हो गये। किसी भी प्रकार का संताप न रहने से परम शांति को निर्माण को प्राप्त हुए, और इस कारण समस्त शारीरिक और मानसिक दुःखों से रहित हो गये । डाया भन, वयनना योगे विशल्या इता. शुद्ध ध्यानना थोथा पाये आउट था चाय लघुअक्षर मेटले 'अ इ उ - ૪-હું' આ પાંચ અક્ષરોના ઉચ્ચારણમાં જેટલે વખત પસાર થાય તેટલે વખત તે પાચે રહી શેષ રહેલા વેદનીય, આયુ, નામ, ગાત્ર આ ચારે કર્મો ક્ષય કરી મેાક્ષ પધાર્યા. જે વખતે ભગવાન તપસ્યા સાથે પદ્માસન વાળી બેઠા હતા તે સમયે ભગવાનની વાણીને છેવટના પ્રવાહ નીકળ્યે જતા હતે. જેમ ભાદરવા માસને છેલ્લા વરસાદ પૂર્ણ શક્તિથી ધોધમાર પડે છે તેમ ભગવાનની આ વાણી છેલ્લી હતી; તેથી જેટલા શબ્દો વાણી દ્વારા આવવા બાકી હતા તે સત્ શબ્દાદિક પુદ્ગલા અખંડપણે વહેતા થયા ને વાણી રૂપે ગેઠવાઈ. સ્વયં મુખેથી ધ્વનિ મારફત 'નીકળવા માંડયા, For Private & Personal Use Only Jain Education International 源 कल्प मञ्जरी टीका भगवतः निर्वाणवर्णनम् । ।। मृ०११५ ।। ॥४५२॥ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504