Book Title: Kalpasutram Part_2
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot

View full book text
Previous | Next

Page 433
________________ श्रीकल्स । कल्पमञ्जरी टीका भगवान् एवम् अवादी-“भो अचलभ्रातः! तव हृदये अयं संशयो वर्तते यत्-"पुण्यमेव प्रकृष्टम् अतिशयितं सत् प्रकृष्टसुखस्य हेतुः कारणं भवति ? तदेव-पुण्यमेव च-पुनः, अपचीयमानं-क्षीयमाणम् , अत एव स्तोकावस्थम् अल्पीभावमापन्नं सत् दुःखस्य हेतुर्भवति ?, उत श्राहोस्वित तदतिरिक्तं पुण्यभिन्न किमपि किश्चित् वस्तु अस्ति-विद्यते ?, अथवा एकमेव-पुण्यपापयोरेकतरमेव उभयरूपं-पुण्यपापोभयरूपं विद्यते ?, यद्वा-उभयमपि द्वय॥४२२॥ मपि-पुण्यं पापं च स्वतन्त्र-परस्परानपेक्षं-पृथक् पृथम् अस्ति ? उत-यद्वा-पुरुषातिरिक्तं-पुरुषभिन्नम् आत्मभिन्नम् किमपि-किश्चिदपि पुण्यपापादि वस्तु नास्ति ? यतः-यस्मात्-पुरुषातिरिक्तस्य कस्याषि पदार्थस्य सत्त्वाभावाद्धेतोः वेदेषु कथितम् , तथाहि-'पुरुष एवेद°0° सर्व यद् भूतं यच्च भाव्यम्' यत् इदं वर्तमानं, यद् भूतं व्यतीतं, यच्च भाव्यम् भविष्यत् , तत्-सर्व वस्तु पुरुष एव-आत्मैच, न तदतिरिक्तं पुण्यपापादि किपि वस्तु विधते' इत्यर्थः" इत्यादि। इति-इत्थं तब मनसि पुण्यपापविषये संशयोऽस्ति । तन्मिथ्या, । यत:-"इहलोके अस्मिन् लोके पुण्य-पापफलं सुकृतदृष्कृतकर्म परिणामः प्रत्यक्ष-साक्षातलक्ष्यते-दृश्यते। एवं व्यवहारतोऽपि प्रतीयतेज्ञायते, यत-पुण्यस्य फलम्-दीर्घायुष्क-लक्ष्मी-रूपा-ऽऽरोग्यमुकुल जन्मादि, अथ पापस्य च तद्विपरीतम् अल्पापण्डित भी अपने तीनसौ अन्तेवासियों सहित भगवान् के पास पहूँचे। उन्हें देखकर भगवान् ने इस प्रकार कहा-हे अचलभ्राता! तुम्हारे अन्तःकरण में यह सन्देह है कि पुण्य ही जब प्रकृष्ट ( उच्च कोटि का) होता है तो वह सुख का कारण होता है, और जब वही पुण्य घट जाता है, और अल्प रहता हैं तब दुःख का कारण बन जाता है? अथवा पाप, पुण्ण से भिन्न कुछ स्वतंत्र वस्तु है ? अथवा पुण्य अथवा पाप का कोई एक ही स्वरूप है ! या दोनों परस्पर निरपेक्ष स्वबंत्र है ? अथ च आत्मा के अतिरिक्त पुण्य-पाप कोई वस्तु नहीं हैं ? क्यों कि वेद में यह कहा गया है कि-'जो वर्तमान है, जो अतीत में था, और भविष्यत में होगा वह सब पुरुष (आत्मा) ही है, आत्मा से भिन्न पुण्य-पाप आदि कोई पदार्थ नहीं हैं। तुम्हारे मन में ऐसा संशय है, किन्तु यह मिथ्या है। इस संसार में पुण्य ओर पाप का फल प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। व्यवहार से भी प्रतीत होता है कि पुण्य का फल दीर्घजीवन, लक्ष्मी, रमणीयस्वरूप, ત્રણસો તેવાસિઓને સાથે લઈ ભગવાન પાસે પહોં, તેને સિદ્ધાંત એ હતું કે જ્યારે પૂણ્ય ઉચ્ચ કોટિમાં પ્રવર્તતું હોય છે ત્યારે તે સુખનું કારણ બને છે અને પુણ્ય ઘટતું જાય અગર અ૫ થઇ જાય ત્યારે તે દુઃખનું કારણ બને છે. આ બને તોને અચલજાતા એક રૂપ માનતે હવે, Sonal ભગવાને તેને પ્રત્યક્ષતાપૂર્વક બતાવ્યું જગતમાં જે જે જે સુખમય સ્થિતિ જોગવી રહ્યા છે તે પુણ્યના अचलभ्रातुः पापपुण्य विषय संशयमिवारणम् । सू०११२।। ॥४२२॥ ww.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504