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श्रीकल्पसूत्र ॥४२९॥
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देवे नैरयिके पुण्ये परलोके तथा च भवति निर्वाणे |
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एकादशापि संशयच्छेदे प्राप्ता गणधरम् ||२|| | को गणधरः कतिसंख्यैः शिष्यैः प्रव्रजित इति प्रतिपादिका संग्रहणी गाथापञ्चशतः पञ्चानां द्वयोश्चैव भवति सार्द्धत्रिशतश्च । शेषाणां च चतुणी त्रिशतः त्रिशतो भवति गणः || १ ||
एवं प्रसमीपे सर्वे चतुश्चत्वारिंशच्छतानि द्विजाः प्रव्रजिताः ॥ ११३ ॥ ॥ इति गणधरवादः ॥
देवनेरइय पुण्णे, परलोए तह य होड़ निव्वाणे । एगारसावि संसयच्छेए पत्ता गणहरतं " ॥ २ ॥ इति ।
अर्थात्- ग्यारह गणधर को निम्नलिखित ग्यारह विषयों में सन्देह थे - (१) इन्द्रभूति को जीव के विषय में (२) अग्निभूति को कर्म के विषय में (३) वायुभूति को तज्जीव- तच्छरीर ( वही जीव वही शरीर) के विषय में (४) व्यक्त को भूतों के विषय में (५) सुधर्मा को पूर्वभव सरीखे उत्तरभव के विषय में (६) मण्डि को बन्धमोक्ष के विषय में (७) मौर्यपुत्र को देवों के विषय में (८) अकम्पित की नारको के विषय में (९) अचलभ्राता को पुण्य-पाप के विषय में (१०) मेतार्य को परलोक के विषय में और (११) प्रभास को मोक्ष के विषय संशय था । संशय का छेदन होने पर ग्यारहों गणधर - पद को प्राप्त हुए । १-२ ॥
पुणे, पुरो तह य होइ निव्वाणे । गारसावि संसयच्छेए पत्ता गणहरतं ( २ ) इति
અર્થાત્--અગ્યાર ગણધરને નિચે લખ્યા મુજબ, અગ્યાર વષયમાં શંકા હતી (૧) ઇન્દ્રભૂતિને ‘જીવ’ના વિષયમાં, (૨) અગ્નિભૂતિને ‘કમ” બાબતમાં (૩) વાયુભૂતિ ને તજીવ અને તુચ્છરીરમાં એટલે જે શરીર છે તેજ જીવ છે આ વિષયમાં, (૪) વ્યક્તને પાંચ મહાભૂતો ખાખતમાં, (૫) સુધર્માને પૂર્વભવ જેવેાજ ઉત્તરભવ હોય તેને सगतां विषयभां, (९) भने गंध-भोक्ष संबंधी, (७) भौर्य पुत्रने 'देवा' संमंधी, (८) अपितने 'नारी' ना भोग्नुपष्ठा विषे, (ङ) अयआता ने पुण्य-पाप ने बगतो, (१०) भेताय ने परखड संधी, (११) प्रभासने મેાક્ષની ખાખતમાં સ ́શય હતા.
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कल्प
मञ्जरी टीका
गणधराणां
सन्देहसंग्रहः सू०११३॥
॥४२९ ॥
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