Book Title: Kalpasutram Part_2
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot

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Page 415
________________ श्रीकल्प सूत्रे ॥४०४॥ श्रीकल्पमञ्जरी टीका यथा पूर्वभवस्तथैवोत्तरभवोऽपि भवति । वेदेष्वप्युक्तम्-"शृगाला वै एष जायते यः सपुरीषो दयते" इत्यादि, अतो भवान्तरे वैसादृश्यमपि भवति जीवस्येति सिद्धम् । एवं श्रुत्वा नष्टसंदेहः सोऽपि पश्चशतशिष्यः प्रभुसमीपे प्रव्रजितः ॥०११०॥ टीका-"चउरोऽवि पंडिया' इत्यादि। "चत्वारोऽपि-इन्द्रभूत्यग्निभूति, वायुभूति, व्यक्तभिधाः पण्डिताः पभुसमीपे प्रव्रजिताः इति श्रुस्वा उपाध्यायः सुधर्माभिधः पण्डितोऽपि निजसंशयच्छेदनार्थ पञ्चशतशिष्यपरितः प्रभोरन्तिके समागतः। प्रभुश्च तं-समागतं सुधर्माणं पण्डितं कथयति भो सुधर्मन् ! तब मनसि एतादृशःअनुपदं वक्ष्यमाणस्वरूपः संशयो वर्तते, तथाहि यो-जीवः इद भवे अस्मिन् जन्मनि यादशम्याग्योनिप्राप्तो भवति, इस प्रकार कार्य-कारण की अनुरूपता स्वीकार कर लेने पर भी यह सिद्ध नहीं होता कि जैसा पूर्व भव है, वैसा ही उत्तर भव भी होता है। वेदोंमें भी कहा है-'शृगालो वै एष जायते यः सपुरीपो दह्यते' इति । अर्थात्-जो मनुष्य मल सहित जलाया जाता है, वह निश्चय ही शृगाल के रूप में उत्पन्न होता है, इत्यादि। इससे सिद्ध है कि भवान्तर में जीव विसदृश रूप से भी उत्पन्न होता है। यह कथन सुनकर सुधर्मा उपा. ध्याय का संशय नष्ट हो गया। वह पाँचसौ शिष्यों के साथ प्रवजित हो गये ॥मू०११०॥ टीका का अर्थ-इन्द्रभूति श्रादि चारों पण्डित प्रभु के समीप प्रवजित हो गये, यह मुनकर उपाध्याय सुधर्मा नामक विद्वान् भी अपने संशय को दूर करने के लिये पाँचसौ शिष्यों को साथ लेकर भगवान् के निकट गये। भगवान् ने अपने समीप आये सुधर्मा पण्डित से कहा-हे सुधर्मन् ! तुम्हारे चित्त में ऐसा संशय है कि-जो जीव इस भव में जिस योनि को प्राप्त है, वह जीव आगामी भव में भी उसी योनिका પ્રમાણે કાર્ય-કારણની અનુરૂપતા સ્વીકારી લેવાથી પણ એ સિદ્ધ થતું નથી કે જેવો પૂર્વ ભવ હોય છે તે આગામી सवय होय छे. वेहोभा ५४ धुं छ-"श्रृगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते" मे रे मनुष्य भण સાથે જલાવાય છે, તે અવશ્ય શિયાળ રૂપે ઉં૫ન્ન થાય છે ઈત્યાદિ. તેથી સિદ્ધ થાય છે કે બીજા ભવમાં જીવ જુદા રૂપે પણ ઉત્પન્ન થાય છે. આ કથન સાંભળીને સુધર્મા ઉપાધ્યાયને સંશય નાશ પામે. તેમણે પાંચસો શિષ્ય સાથે દીક્ષા લીધી સૂ૦૧૧૦ ટીકાને અથ–ઇન્દ્રભૂતિ આદિ ચારે પંડિતએ પ્રભુની પાસે દીક્ષા લીધી એ સાંભળીને ઉપાધ્યાય સુધર્મા નામના વિદ્વાન પણ પોતાના સંશયને દૂર કરવા માટે પાંચસો શિષ્યની સાથે ભગવાનની પાસે ગયા. ભગવાને પિતાની પાસે આવેલ સુધર્મા પંડિતને કહ્યું–હે સુધમાં ! તમારા મનમાં એ સંશય છે કે જે જીવ આ ભવમાં જે ચાનિ मुधर्मणः समानभव विषय संशयनिवारणम् दीक्षाग्रहणं मु०११०॥ ॥४०४॥ Jain Education Int ન e na! w.jainelibrary.org

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