Book Title: Kalpasutram Part_2
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot

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Page 389
________________ श्रीकल्पसूत्रे ॥३७८॥ इव ध्यानकोष्ठः, तमुपगतः, यथा कोष्ठगतं धान्यं विकीर्ण न भवति तथैव ध्यानतः इन्द्रियान्तः करणवृत्तयो बहिन यान्तीति भावः, नियन्त्रितचित्तवृत्तिमानित्यर्थः । संयमेन = सप्तदशविधेन तपसा = द्वादशविधेन आत्मानं भावयमानः = त्रासयन् विहरति ॥ ०१०६ ॥ मूलम् -- तरणं अग्निभूई माहणो सव्वविजापारगो इंदमइव्त्र चिंतेइ सच्चे सो महं इंद्रजालिओ दोसर । अणेण मम भाया इंदभूइ वंचिओ । अहुणा श्रहं गच्छामि असन्वण्णुं अप्पाणं सव्वण्णुं मण्णमाणं तं धुतं पराजिणिय माया वंचियं मज्झभायरं पडिणियमित्ति वियारिय पंचसयसिस्सेहिं परिवुडो सगन्धं पहुसमीवे पत्तो । तं भगवं नामसंसयनिद्देसपुत्रं संबोहिय एवं वयासी - भो अग्भूिई । तुज्झमणंसि कम्मविसए संसओ वह जं कम्म अस्थि वा नत्थि ? "पुरुषएवेद 'U' सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यं" इच्चाइ वेयत्रयणाओ सव्वं अप्पाचेव न कम्मं । जईकम्मं भवे ताहे पञ्चकखाइप्पमाणेगं तं लब्भंसिया, तं नत्थि ? जइकम्मं मन्निजइ ताहे तेण मुचेण कम्णा सह यमुत्तस्स जीवस्स कहं संबंधो हवेज्जा ? अनुत्तस्स जीवस्स मुत्ताओ कम्माओं उवघायाणुग्गहा कह होउं सकिज्जा ? जहा भागासो खग्गाइणा न छिज्जइ, चंदणेग नोवलिविज्जइ त्ति, तं मिच्छा, अइसयणाणिणो कम्मं पञ्चकखत्तणेण पासंति, छउमत्थाउ जीवाणं वेचित्त पासिय तं अणुमाणेण जाणंति । कम्मस्स विचित्तयाए चेव पाणीणं सुदुहाइभावा संपते, जओ कोई जीवो राया हवइ, कोई आसो गओ वा तस्स वाहणो हवइ, कोपियाई, कोई छत्तधारगो हवइ । एवं को िखुयखामो भिक्खागो होइ, जो अहोरत्तं अडमाणो वि भिक्ख न लहइ । जमगसम ववहरमाणाणां पोयवणियाणं मज्झे एगो तरह, एगो समुमि बुडइ । एयारिसाणं कज्जाणं किसी भी एक वस्तु में एकाग्रतापूर्वक चित्त का स्थिर होना ध्यान कहलाता है। वे उसी ध्यान रूपी कोष्ठ (कोठी) में स्थित थे । अर्थात् जैसे कोठी में रहा हुआ धान इधर-उधर बिखरता नहीं है, उसी प्रकार ध्यान करने से इन्द्रियों की तथा मन की वृत्ति बाहर नहीं जाती है। आशय यह है कि इन्द्रभूति अनगार ने अपने चित्त की वृत्ति को नियंत्रित कर लिया था। वे सत्तरह प्रकार के संयम और द्वादश प्रकार के तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे ||०१०६ ॥ પૂર્વક ચિત્તનું સ્થિર હાવું તેને ધ્યાન કહે છે. તે એજ ધાન રૂપી કાષ્ઠ (કાઠી)માં રહેલ હતા. એટલે કે જેમ કાઠીમાં રહેલ અનાજ આમ તેમ વેરાતું નથી, એજ પ્રમાણે ધ્યાન ધરવાથી ઇન્દ્રિયાની તથા મનની વૃત્તિ બહાર જતી નથી. આશય એછે કે ઇન્દ્રભૂતિ અણુમારે પેાતાની ચિત્તની વૃત્તિને નિયંત્રિત કરી લીધી હતી. તે અને બાર પ્રકારના તપ વડે આત્માને વાસિત કરતા વિચરવા લાગ્યા. (સૂ૦૧૦૬) સત્તર પ્રકારના સંયમ For Private & Personal Use Only Jain Education International 真真真藏 कल्प मञ्जरी टीका अग्निभूतेः कर्मविषयक संशयनिवारणं तस्य दीक्षाग्रहणं च । ॥सु ०१०६॥ ||३७८|| www.jainelibrary.org

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