Book Title: Jinkrupachandrasurishwar Charitram
Author(s): Jaysagarsuri
Publisher: Jaysagarsuri
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निःशेष- कर्मदलनाय समारराध । सद्भव्यजीवनिकरं समवृबुधथ, नैशं तमो रविरिवाsहिनदेष मोहम् ॥ ४८ ॥ ज्ञानाऽऽदिकत्रितय-- सत्तपरूपमोक्ष मार्गे च ये सुमनसः सुधियः परस्मिन् । तिष्ठन्ति नित्यममलाः सफलं तदीयं मानुष्यमत्र वरधीरत एव सोऽपि ।। ४९ ।। ( इन्द्रवंशा ) - हग्- ज्ञान - चारित्र - तपोऽतिसंयमान् सन्त्यज्य सर्वा अपि वासना मुदा । आराध्घुमेषोऽतिशय प्रभावकः स्वान्ते दृढं निश्वयमाततान सः ॥ ५० ॥ ( स्रग्धरा ) - साध्वाचारं विचारं सकलमपि दिवारात्रिकृत्यं सुसाधोः, प्रारेभे कर्मकाण्डं विजितविषयिकः सर्वशास्त्राऽवगाही । पञ्चत्रिंशत्समाभिर्निज--परसमयं दत्तचितोऽध्यगीष्ट, भूमी-तर्काऽङ्क--चन्द्रप्रमितं-शरदि सोऽध्यायपूर्ति व्यधत्त ॥ ५१ ॥ ( उपजातिः ) न सोऽस्ति तीर्थो न च सोऽस्ति देशः, यत्राsent नागमदी व्यवर्यः । पुराऽऽदिकं वा न हि विद्यते तत् नापावि यत्तस्य पदाऽम्बुजेन ॥ ५२ ॥ या नामुनापाठि न साsस्ति विद्या शाखं च तन्नैव जगत्यमुष्मिन् । नाऽशिक्षि दर्भाऽग्रधियाऽमुना यत्, मेधाविना सद्गुणशालिना हि ॥ ५३ ॥ नाऽऽलोक्यते सोऽत्र गुणोऽपि लोके, यो नाऽवसत्तत्र महीपुनाने । कलाऽपि शस्ता न हि वीक्ष्यते सा भेजे न या मानवरत्नमेतम् ॥ ५४ ॥ मेधाविपुंसामयमद्वितीयो व्याख्यानशैली समभूदमुष्य । क्लिष्टाऽर्थ-सौगम्यविबोधदक्षा, पीयूषवृष्टेस्तुलनामवाप्ता ॥ ५५ ॥ परिस्फुटार्थाऽधिकमिष्टवाणी, भवाऽऽमयामोषमहौषधिश्च । संसार - कान्तार - जरा -- विपत्ति - दावोपशान्त्यै जलदायमाना ॥ ५६ ॥ प्रश्नोत्तरस्फूर्ति--विशेषशाली, विद्वत्कदम्बाऽधिसभं महिष्ठः । प्रत्युत्तरानुत्तर-शक्ति-हेतु--दृष्टान्त--सद्युक्ति-विरोध-मङ्गः ॥ ५७ ॥ सभाविसंवादिजनैकजेता, महानयज्ञः सदसद्विवेक्ता । विनाऽपि शब्द सकलार्थवक्ता, मितप्रवक्ता रिषुताविमोक्ता ॥ ५८ ॥ पृथ्वीव सर्वेसह एप लोके, शशीव कान्तः कनकप्रभाऽऽभः । निश्शेष-
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