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अमदावादमां श्री खरतरगच्छ संघनी मालीकीनी स्थावर मील्कतनी नोंध |
संवत् १९९५ ना कारतक शुदि १. अमदाबादमां श्री खरतरगच्छ संघनी स्थावर मील्कतनी नोंध नीचे मुजब छे, जे श्रीमद् आचार्य महाराज श्री कृपाचंद्रसूरीश्वरजीना चरित्रमां छपाववा आप्युं छे.
खरतरनी खडकीमां खरतरगच्छनो उपाश्रय, जेनो म्यु. नं. २६८१ नो छे, ते उपाश्रय घणाज जूना चखतनो एटले चारसोथी पांचसो वरस पहेलांनो छे, जेनी अंदर खरतरगच्छना मुनि महाराजो अने साध्वीजीओ उतरता हता, पण उतरवानी घणीज अगवडता पडवाथी खरतरगच्छ संघे संवत् १९८४ नी सालमां आंवली पोळना सामे कोटावाळा शेठ पासेथी मकान बेचाण लईने त्यां मुनि महाराजोने उतरवानुं राख्युं, ते हालमां श्री खरतरगच्छ जैन धर्मशाळाना नामे ओळखाय छे. तेनो म्यु. नं. २८३७ थी छे. तेमां उपाश्रयना नीचे ओटला उपर एक दुकान काढीने भाडे आपवामां आवी छे. तेनुं भाई बरस १ ना रू. ४२ ) शा. पोपटलाल डाह्याभाई घीवाळा पासेथी आवे छे.
त्रीजो उपाश्रय दादा साहेबनी पोळमां संवत् १९७९ नी सालमां बंधावेलो छे, तेमां हालमां साध्वीजीओ उतरे छे. तेनो म्यु. नं. छे.
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अमदावादमां श्री खरतरगच्छनी
॥ १ ॥
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दादासाहेबनी पोळमां मूळनायक महाराज श्री शांतिनाथजीनुं देरासर छे, तथा बीजुं श्री आदीश्वरजी महाराजनुं देरासर छे, अने देरासरनी बाजुमां श्री खरतरगच्छ युगप्रधान श्री जिनदत सूरीश्वरजीनुं गुरुमंदिर छे. ते देरासर तथा गुरुमंदिरनो वहीवट अमदावादनो खरतरगच्छ संघ करे छे. गुरुमंदिरना अंदरना चोकमां दादा साहेबनी पोळमां उपाश्रयनुं वारणं पडे छे. बीजा दादासाहेबनी पोळमां खरतरगच्छनां जे मकानो छे, अने भाडे आपेला छे, तेना भाडवादनां नाम तथा म्यु. नंबर तथा भाडानी रकमनी बीगत -
भाडवातनुं नाम. केशवलाल दलीचंद
सांकलचंद ताराचंद
केशवलाल शीवलाल
मीखाभाई छगनलाल
चंदुलाल गोकळदास
वाडी फेडरेशन हाईस्कुल
रूपीआ.
१०८)
१०९)
१०९)
११२)
१६१)
७२०)
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नंबर.
३६३ तेनी साज सुधारनुं मकान छे, अने तेनो तथा आपणो करो मझीयारो छे.
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तेनी पछीत शेठ माकुभाई मनसुखभाईना मकानोमां पडे छे, अने तेमां जैन भोजनशाळा छे.
तेनी पछीत नवावासमां पढे छे, अने एक बारी जैन भोजनशाळामां पड़े छे.
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मील्कतनी नौष ।
॥ १ ॥
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6+96656 ***%%%%%
केशवलाल शीवलाल केसरीमल शेराजी
परतापजी मुलाजी मंगळदास मोहनलाल
चंदुलाल मलुकचंद
चीमनलाल खचंद
मंगळदास चंदुलाल
लखमीचंद मोतीचंद
मणीलाल उत्तमचंद
हीरालाल मुळचंद
९२)
३६)
६०)
८४)
९०)
९०) ३६७
९०)
2245
쪽으
९०)
१०२)
१२० )
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बाडीना ओटला उपर छे.
दादाजीनां गुरुमंदिरनो पाछळनो बुरजो, तेनी ओरडी बनावी है. बुरजानी जोडे जरा आगळ जतां दादासाहेबनी पोळना उपाश्रयनुं मुख्य बारणं पडे छे.
तेनी जोडे खरतरगच्छना भाडवातने माटे जाजरू त्रण गटरना बांधेला छे, त्यां एक पीपळो छे, अने सांकळचंद घेलाभाईनो करो पड़े छे. तेनो करो शा. जमनादास घहेला भाईना करानी साथेनो मझीयारो छे. नीचे
ना मेडा उपर
नीचे
ना मेडा उपर
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अमदा
मील्कतनी नोंध।
वादमा
श्री खरतरगच्छनी ॥ २ ॥
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सोमचंद मोहनलाल
९०) नो करो शेठ राजमल मायोकजीना करा साथे मझीयारो छे. म्यु. रू. २२६३)
नं ३६७ थी सुधीना चारे मकानोनी पछीत शेठ बालाभाई मंछारामना डेलामां पडे छे, अने ए चारे मकानोनी पछीते पारीओ
छे. (बालाभाई शेठ हालमां पाछीयानी पोकमा रहे छे.) दुकान एक रतनपोळमाथी माणेकचोक तरफ जतां नाका उपर डाबा हाथ तरफ म्यु. नं. ३१२७ नी छे, तेनु भाई रू.१०७१) आवे छे, गांधी कस्तुर अमरशी बेसे छे. तेनो करो शेठ लीलचंद मुलचंदनी दुकाननी साथे मझीयारो छे.
लेरीयापोळमां शा दलसुख पानाचंद संकरचें मकान छ, जेनी अंदर लेरीया पोळना देरासरनो दस आनी भाग छ, अने दादा साहेबनी पोळना देरासरनो छ आनी भाग छ, तेना भाडाना बरस एकना छ आनी भागना रू. ५०) दर साल आवे छे.
एटले के, भाडानी कुल आवक वरस एकनारूपीआ ३३८४)नी आवे छे.
उपर सिवाय शहेर बहार गाम नवरंगपरानी हदमा दादा साहेबनी बाडीना नामे खेतर नंग चे नंबर ५१ अने ५२ नां छ. तेनां नं ५१ नां अने नं. ५२ ना मळी कुल वे खेतर छे. तेनी अंदर दादा साहेब श्री जिनदत्त सूरीश्वरजीनुं गुरुएकर गुंठा
एकर गुंठा ० २१
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मंदिर छे. तेमां पांच देरी तथा एक खेतरपाळनी देरी छे. तेनी पासे एक कूबो छे. तेनी बाजुमां दरेकने बेसवा सारु एक मोटो चोतरो बांधेलो छे. तेना उपर छापरु शेठ अमृतलाल मोहनलाल झवेरीए रू.९०१) खर्ची पोतानां मातुश्रीना नामथी | बनावी आप्यु छ. तेनी बाजुमां एक ओरडो शेठ मंगळदास नगीनदासे तेमना मर्तुम भत्रीजा शांतिलाल मोतीलालना नामथी पंधावी आप्यो छे.
उपरनी मील्कतनो वहीवट श्री खरतरगच्छ संघनी वती वहीवट करनार कमीटीना ट्रस्टीओ नीचे मुजब छ१ कोठारी मणिभाई मोहनलाल.
४ कोठारी चंदुलाल मोहनलाल. २ शेठ माणेकलाल काळीदास.
५ शा. लालभाई फुलचंद. ३ परी मंगळदास नगीनदास.
उपरना पांच ट्रस्टीओनी वती वहीवट करनार कोठारी चंदुलाल मोहनलाल वहीवट करे छे, अने तेमना हाथ नीचे दरेक टा कामकाज शा. तलकचंद जेठाभाई करे छे. एज, संवत् १९९५ ना कारतक शुदि १ सोमवार.
द. शा. तलकचंद जेठाभाई.
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सभी जिन जय सागर सूरी
ज्ञान भंडार पाली ताणा
८)
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ॐ अहं नमः । ऐ नमः ।
श्रीमाञ्जनकीर्त्तिरत्नसूरिशाखाभृत्-श्रीमज्जिनवर्द्धनसूरिसन्नानीय - श्रीबृहत्खरतर बिरुदभृत् - श्री कोटिकाख्यगच्छस्थितिश्रीमज्जिनजय सागरसूरीश्वरप्रणीतम्
जङ्गमयुगप्रधान - भट्टारकपुरन्दर-सर्वशास्त्रविशारद - जैनाचार्य
श्रीमद् - जिनकृपा चन्द्रसूरीश्वरचरित्रम्
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॥ अथ प्रथमः सर्गः ॥
(मालिनीवृत्तम्) - त्रिभुवननरनारीवृन्दपोपूज्यमानः, प्रथमजिनवरोऽयं निर्जिताऽमर्त्यवृक्षः । जगदवनकरिष्णुः शान्तिकृच्छान्तिनाथो, भवतु सकलसंघ श्रेयसेऽनारतं सः ॥ १ ॥ भवभयहर एकः पार्श्वनाथः शरण्यः, कलुष-वनदवोऽयं मारजिनेमिनाथः । चरमजिनपतिः श्रीवर्धमानः कृपालु भवजलधि-सुपोतः श्रेयसे नः सदाऽस्तु ।। २ ।
( शार्दूलविक्रीडितम् ) — श्रीमान् स्तम्भनसत्पुरे स्थितिकरः श्रीपार्श्वनाथः प्रभुः, सर्वाऽऽशा-परिपूरणेऽमरतरोरौपम्यमाप्तः क्षितौ । विद्याऽऽन्योऽभयदेवसूरिवचीमध्यस्थितां शाश्रीं मूर्ति बहिश्चकार सततं दद्यात्सको वः शिवम् ॥ ३ ॥
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*%%* 99র
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प्रथमः सर्गः।
श्रीजिनकृपाचन्द्र
सूरिचरित्रम्
॥ ५४॥
ACCRACKALAKA
(उपजातिः)-पमाऽऽनना बारिज केसराङ्गी, पक्षणा पनवराऽऽसनस्था। श्रीशारदा निर्मलवुद्धिमिटा, ददातु सा मे श्रुतदेवता हि ॥ ४॥ ( वसन्ततिलका)-श्रीमजिनाऽऽदिककृपायुतचन्द्रसूरे-रज्ञान-पुञ्ज-तिमिराऽऽकरपद्मवन्धोः । स्त्रीयान्यदीय-समयोदधि-पारदृश्व-नः पादपद्म-युगलं बहुशोभि नत्वा ॥ ५ ॥ (इन्द्रवज्रा)-सर्वानमून् पूज्यतमान् प्रणम्य, संस्मृत्य चित्ते स्वगुरोः क्रमाऽग्जम् । पद्यप्रबन्धेन गुरोश्चरित्रं, रम्यं पवित्रं रचयाम्यहं तत् ॥ ६ ॥ (शिखरिणी)--युगाssरम्मेऽभूवत्रिषुदशमितास्ते कुलकराः, सधर्माणः सर्वे युगलिकतया जातजननाः। जगन्मान्या धन्या बहलमहिमानोऽतिसुखिनस्तदेषां नामानि प्रथितयशसां वित्त सुजनाः! ॥७॥ (आयाँ )-सुमतिः प्रतिश्रुतिः सी-मङ्कराऽसीमन्धर-क्षेमङ्कराः। क्षेमन्धरश्च विमल-वाहनश्चक्षुष्मान् यशोमान् ॥ ८॥ (अनुष्टुप् )-अभिचन्द्रश्च चन्द्राभो, द्वादशश्च प्रसेनजित् । मरुदेवाऽभिधो नाभि-ऋषभस्तीर्थकृत्तथा ॥ ९॥ (उपजातिः)-नामेयकाऽऽद्यास्तदनन्तरं हि, वीरान्तिमास्तीर्थकतो बभूवुः। युगाऽक्षिमात्रा अपनीतलेऽस्मि-स्तदन्तरे द्वादश चक्रिणश्च ॥१०॥ षट्खण्डभृमीपरिशासितारो, महौजसः श्रीभरताऽऽदयस्ते । विपक्षकक्ष-व्रज-पावका हि, क्रमेण नीत्या यशिषन् प्रजास्ताः ।। ११ ।। बभूवुरेतद्वयकाऽन्तराले, सुग्रीवकायाः प्रतिवासुदेवाः । नव त्रिपृष्ठाऽऽदिकवासुदेवा, नवाऽभवंस्ते क्रमशः पृथिव्याम् ।। १२ ।। त्रिखण्ड-पृथ्वीपरिरक्षितारः, संग्राम-लब्धाsतुलकीर्तिमन्तः । महाबलिष्ठा अचलाऽऽदयोऽपि, नवैव जाता बलदेवसंज्ञाः ॥ १३ ॥ प्रचण्डदोर्दण्डबलेन चैते, निःशेषवैपक्षिक-पक्षमाशु । हत्वा वरीत्वा विजयश्रियं हि, सौख्यं विशेष चिरमन्वभूवन् ।।१४।। (शार्दूलविक्रीडितम् )-एके व्यक-है रिच्छिवाऽर्क-गुणदि-पाथोधिचिन्द्रेषु-भू-तककोऽब्धि-दैलप्रमाणजिनपानां तुल्यकालेऽभवन् । श्रीमद्भीमवलादयः
॥ ५४॥
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शिवमिता रुद्राभिधानाः क्रमा-दत्यन्ताद्भुतशक्तिशालिपुरुषा आदर्शभूता इह ॥ १५ ।। ( उपजातिः)-श्रीवासुदेव-प्रतिवासुदेव-काले बभूवुर्नव नारदा हि । देवैर्मनुष्यैरसुरैश्च पूज्या, अखण्डशीला गगनप्रयाणाः ।। १६ ॥ (गीतिः )--तस्या| धिकमधिगन्तुं, महापुरुषचरित-प्राकृतग्रन्थः । आवश्यकबृहद्भुत्तिः, त्रिषष्टिशलाकापुरुष-चरितं च ।। १७ ॥
(उपगीतिः )--शत्रुञ्जयमाहात्म्य-प्रमुख-ग्रन्था विलोकनीयाः। ग्रन्थविस्तारभीत्या, नास्माभिः सकलं तदलेखि ॥१८॥ ( अनुष्टुप् )-बभूवुर्वर्द्धमानस्य, चरमस्याहतः प्रभोः । गणधारिण एते हि, रुद्रदमा महाधियः ॥ १९ ॥ ते चतुर्दशपूर्वाणां, वेत्तारखिपदीधराः। द्वादशाङ्गानि विभ्राणा, लब्धिमन्तः कृपालवः ॥ २० ॥ शिष्योपज्ञत्वमापना, अर्हतः परमेशितः। एषामेतानि नामानि, प्रसङ्गाद्दर्शयाम्यहम् ॥ २१ ।। इन्द्रभूतिरभूदाद्य-धाऽग्निभूतिर्द्वितीयकः । तृतीयो वायुभूतिश्च, व्यक्तश्राऽऽसीत्तुरीयकः ॥ २२ ॥ सुधर्मा पञ्चमो जज्ञे, षष्ठो जातश्च मण्डितः। सप्तमो मौर्यपुत्रो हि, त्वष्टमोऽभूदकम्पितः ॥ २३ ॥ | नवमो गणधारी चा-चलभ्राता प्रकीर्तितः। मेतार्यो दशमो जज्ञे, प्रभासस्त्वन्तिमो मतः ॥२४॥ (वसन्ततिलका)-सरस्वप्यमुष्य चरमस्य जिनेश्वरस्य, तावत्प्रमाण-गणपेषु समुल्लसत्सु । द्विद्विप्रवाचन-गतैकतया बभूवुः, ख्याता गणा नवमिता इति चक्षते हि ॥ २५ ।। (उपजातिः)--विदेहतीर्थाधिपतिं प्रवन्दे, विश्वाद्भुताऽशेष-गुणाभिरामम् । वन्दे सुधर्माणमभीष्टिs(प्सितार्थ-सम्प्राप्तये नित्यमपच्छिदं हि ॥ २६ ॥ ( द्रुतविलम्बितम् )-चरमकेवलिनं प्रभुजम्बुक, परिणुमः प्रथिताऽमलकीर्तिकम् । शिवपदं परमं समुपागतं, प्रबलमोहविजित्वरमाघदम् ॥ २७ ॥ ( अनुष्टुप् )-चरमः केवली जम्बू-स्वामी श्रीप्रभवाऽभिधः । शय्यम्भवो यशोभद्रः, सम्भूतिविजयाभिधः ।। २८ ।। भद्रबाहुः स्थूलिभद्रः, पडेते परसरयः । श्रुतकेवलि
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श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिचरित्रम्
।। ५५ ।।
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नोऽभूवुः (वन्), शारदेन्दुयशोधराः ।। २९ ।। महागिर्यादिका अष्टौ वज्रान्ता दशपूर्विणः । व्युच्छित्तिं च ततः पश्चादगमद्दशमो हि सः ॥ ३० ॥ श्रीमहागिरिनामानं, सुहस्त्याचार्यकं परम् । सुस्थिताऽभिधमाचार्य, तं श्रीसुप्रतिवद्धकम् ।। ३१ ।। इन्द्रदिनाऽभिधं दिन्न, सूरिं वन्दामहे भृशम्। आचार्यं सिंहगिर्यारूयं वज्रस्वामिनमेव च ॥ ३२ ॥ वज्रसेनाऽभिषं चन्द्रं, सामन्तभद्रकं ततः । देवं प्रद्योतनं स्तौमि मानदेवाऽभिधं नुमः ॥ ३३ ॥ आचार्य मानतुङ्गाऽऽख्यं वीरं सूरीश्वरं तथा । जयदेवाऽभिधं सूरिं, देवानन्दं महाधियम् ॥ ३४ ॥ विक्रमं नरसिंहाऽऽख्यं, समुद्रविजयं तथा। मानदेवं नमस्यामि, विबुधप्रभरिकम् ।। ३५ ।। जयानन्दमभिष्टौमि कीर्तिमन्तं रविप्रभम् । यशोभद्राऽभिधं सूरिं, श्रीमद्विमलचन्द्रकम् ||३६|| देवच न्द्राऽभिधं नौमि नेमिचन्द्रं नमामि तम् । सूरिमुद्योतनं स्तौमि वर्द्धमानं जिनेश्वरम् ॥ ३७ ॥ जिनचन्द्रप्रभुं भक्त्या - ऽभयदेवमभिष्टुवे । जिनवल्लभनामानं जिनदत्तं प्रभाविनम् ॥ ३८ ॥ जिनचन्द्राऽभिधं सूरिं, जिनपतिं यतीन्द्रकम् । लक्ष्मीजिनेश्वरौ वन्दे, श्रीसंघसुखकारिणौ ।। ३९ ।। जिनप्रबोधमाचार्य, जिनचन्द्रं यतीश्वरम् । जिनकुशलनामानं पद्ममूर्ति च नौम्यहम् ॥। ४० ।। जिनलब्धिमहं वन्दे, जिनचन्द्र-जिनोदयौ । जिनराजाऽभिधं सूरि-माचार्य जिनभद्रकम् ॥ ४१ ॥ जिनचन्द्राख्यमाचार्य, श्रीमजिनसमुद्रकम् । जिनहंसमभिष्टौमि जिनमाणिक्यसूरिकम् ॥ ४२ ॥ ( पश्चचामरम् ) - महागिरिं श्रियाऽन्वितं मुनीश्वरं शमाऽम्बुधिं, जगञ्जनाऽऽधिवारकं दयालुतासुमन्दिरम् । नमामि सूरिनायकं जिनागमाब्धिपारगं, समस्तलोकमानितं विशालकीर्तिमण्डितम् ॥ ४३ ॥ सुहस्तिसूरिराजकं ह्यशेष-सद्गुणाऽऽकरं, रविप्रभा - समप्रभं सुधा - समानदेशनम् । विवादि-वृक्ष - कुञ्जरं जगद्धितप्रवर्तकं, भृशं स्ववीमि सादरं भवाम्बुधिप्रतारकम् || ४४ || ( उपजातिः ) - श्रीसुस्थि
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प्रथमः सर्गः ।
॥ ५५ ॥
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ताssख्यं प्रणमामि सूरिं जगञ्जनाऽऽनन्दकरं प्रभासम् । सद्धीमतामादिममर्च्चवर्यं विद्वत्तमं बोधितभूरिलोकम् ॥ ४५ ॥ ( शार्दूलविक्रीडितम् ) - श्रीमत्सुप्रतिबद्धरिमनिशं तोष्टोमि सत्कीर्तिकं, श्रीमद्वीरवि प्रशासन सरोजस्तोम-हंसायितम् । लोकाऽज्ञान-तमिस्रपुत्र हरणे सूर्यायितं भूतले, सद्बोधामृतपायिनं सुभविनां संसारवार्धं तरिम् ।। ४६ ।।
( आख्यानकी ) तमिन्द्रदिनाऽभिधसूविर्य, संसार बाधा - दव- वारिवाहम् । वादीन्द्र-दन्तिब्रज- सिंहकल्पं, भक्त्या - भिवन्दे जगदर्चनीयम् ॥ ४७ ॥ ( उपजातिः ) - श्रीभिरिं प्रथितप्रताप मदश्रमाहात्म्यमुपेतवन्तम् । कारुण्यकूपं कुम ताज शीतं स्तवीम्यहं निर्मलकीर्तिमन्तम् ॥ ४८ ॥ सिंहोरुसचं बिलसच्चरित्रं, जगत्पवित्रं निरवद्यशीलम् | अध्यात्मविज्ञानवतां वरिष्ठं, नोनोमि तं सिंहगिरिं च सूरिम् ।। ४९ ।। ( शार्दूलविक्रीडितम् ) – वज्रस्वामिनमानतक्षितिजां मौकुट्यरत्नप्रभाभास्वत्पादनखप्रभं सुयमिनामग्रेसरं श्रीकरम् । सद्ध्यानाऽसि हताऽऽन्तरार (रि) मनघं दुर्वादिपक्षच्छिदं धर्हद्भाषित-शुद्धधर्मजलजोल्लासभानुं स्तुवे ॥५०॥ ( उपजातिः ) — श्री वज्रसेनाऽभिधविर्य, सर्वेषु शास्त्रेषु कृतश्रमं च । यशोऽभिरामं सुतपःप्रतिष्ठं, जितेन्द्रियं तं शिरसा नमामि ॥ ५१ ॥ चन्द्राऽऽख्यमाचार्यवरं प्रणौमि चन्द्रावदाताऽमलकीर्तिमन्तम् । सूर्यो तेजिष्ठमतुच्छबुद्धि, त्रिगुप्तिमन्तं (गुतं ) शमताम्बुराशि ॥ ५२ ॥ समन्तभद्रं धवलीकृताऽऽयं शङ्खेन्दु - कुन्दोपमयाऽऽत्मकीर्त्या । सूरीश्वरं सर्वमत-प्रविज्ञं, प्रकाममीडे कमनीयमूर्तिम् ॥ ५३ ॥ प्रयोतनं खिरं नमामि प्रद्योतनांऽशुप्रतिमानभासम् । सम्पूजनीयाङ्गिसरोजयुग्मं, सत्कीर्तिमालं सभिवादयेऽहम् ॥ ५४ ॥ ( वसन्ततिलका ) -- श्रीमानदेवयतिराजमुदार कीर्ति, स्वीयाऽन्यदीय- मतसागरपारयातम् । सन्मुक्तिमार्गपरिदर्शन दक्षिणं च , सन्तोष्टवीमि शरणागतदुःखवारम् ॥ ५५ ॥ श्रीमा
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श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिचरित्रम्
॥ ५६ ॥
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नतुङ्गमनघं मुनिराजमेनं, नैदाघ- भानुसम - दुःसह- दीप्तिमन्तम् । निःशेष-भूमिजनतामहितं समीडे, नानानृपालसदसि प्रकटप्रभावम् ।। ५६ ।। ( शार्दूलविक्रीडितम् ) वीरं सूविरं नमामि शिरसा दुर्जय्य - मोह- क्षितेः कर्तारं भुवि देहिनामघततेहन्तारमिष्टप्रदम् । कर्मोन्मूलन - संविधानकुशलं सम्यक्त्वसम्प्रापकं, संसारार्णवतारकं सुभविनां ध्येयक्रमाम्भोरुहम् ॥ ५७ ॥
( त्रोटकम् ) - जयदेव सुनामकसूरिवरं जनता भवभीति-विनाशकरम् । शरणाऽऽगत - दीनजनाऽऽर्तिहरं, करुणामयमूर्तिमहं स्तुवके ॥ ५८ ॥ ( शार्दूलविक्रीडितम् ) – येनाऽकारि सुशासनस्य बहुधा सौनत्यमुर्वीतले, जित्वाऽनेक- विवादिष्ट - न्दमसकृच्चक्रे स्वपक्षस्थितिः । माहात्म्यं विजयश्रिया सह परं व्यस्तारि विद्याऽब्धिना, देवानन्दमभिष्टवीमि तमहं सूरीश्वराऽग्रेसरम् ।। ५९ ।। ( उपजातिः ) — श्रीविक्रमं विक्रमवन्तमीडे, सच्छास्त्रपारीणमगाधबुद्धिम् । सत्कीर्तिबह्वीललितालवालं, सूरीश्वरं शान्ततमं वरिष्ठम् ॥ ६० ॥ सिंहोरुसत्वं नरसिंहसूरिं क्षान्त्या च पृथ्वी समतामुपेतम् । कान्त्या महत्या शशिनः समानं, तेजोऽधिकैर्भानुसमं समीडे ॥ ६१ ॥ जाज्वल्यमानं विहिताऽतिघोर तपःप्रभूतोत्थिततेजसा हि । रत्नत्रयीभूषणभूषितं तं, समुद्रसूरिं प्रणमामि नित्यम् ।। ६२ ।। आचार्यवर्यव्रज-मौलिरत्नं, श्रीमानदेवं यशसाऽभिरामम् । नमस्यतां पापतरोः कुठारं, सम्पश्यतामव्ययसौख्यदायम् ।। ६३ ।। ( त्रोटकम् ) -- विबुधप्रभसूरिवरं जयिनं जगदुज्ज्वल-भूरि-सुकीर्तिकरम् । कतिजन्म- सुसञ्चित - पापहरं, निजभक्तिकृतामनिशं प्रणुमः ॥ ६४ ॥ ( भुजङ्गप्रयातम् ) - जयानन्दस्रुरिं नमामि प्रकामं, भवाब्धिप्रतारं समेषामुदारम् । लसत्कीर्तिमालं ज्वलत्सत्प्रतापं जितात्मानमुचैः शरण्यं वरेण्यम् ॥। ६५ ।।
( प्रमाणिका ) -- रविप्रभं विभासुरं जगज्जनैः समीडितं, पारधाममन्दिरं समस्त रिनायकम् । अनेक-भूप-चर्चित क्रमा
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प्रथमः
सर्गः ।
।। ५६ ।।
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ऽरविन्दकद्वयं, नमामि जैनशासन-प्रभूत-वृद्धि-कारकम् ॥ ६६ ॥ ( शिखरिणी ) - यशोभद्रसूरिं भविकजनताऽज्ञानतिमिरं, प्रहातुं भास्वन्तं समुदितमनुं नौमि सततम् । कृपापारावारं सकल-वसुधापावनकर, भवाम्भोधौ मञ्जत्सुजननिवहानां दृढतरम् || ६७ ।। (द्रुतविलम्बितम् ) – विमलचन्द्र शुभाऽभिघसद्गुरुं, प्रथित-विश्वजनीनमघाऽपहम् । स्व-पर-शास्त्र-विशेषविचक्षणं, सुयशसं परिणौमि महत्तरम् ।। ६८ ।। ( उपजातिः ) - श्रीदेवचन्द्राऽभिधमुख्यरिं, शिष्योपशिष्यैः परिषेविताङ्गिम् । कक्कुब्गणं मण्डितमात्मकीर्त्या, तं लोकमान्यं विबुधं स्तवीमि ॥ ६९ ॥ श्रीनेमिचन्द्र बरसूरिराजं प्रौढप्रतापं शरदिन्दुकीर्तिम् । श्रीवीतरागोदित-धर्म्म-पद्म- दिवाकरं प्राज्ञतमं वन्दे ॥ ७० ॥ श्रीमन्तमुद्योतनसूरिराज, प्रेक्षावतामय्यतमं समीडे । प्रभाविनं निर्मलकीर्तिमन्तं सद्धर्मसेतुं कुमतैककेतुम् ॥ ७१ ॥ श्रीवर्द्धमानं जनगीयमान - यशः श्रिया सत्तपसां श्रिया च । शोशुभ्यमानं जितमोहमलं, हताऽऽन्तराऽऽरं विबुधं नमामि ॥ ७२ ॥ ( पञ्चचामरम् ) - जिनेश्वरं प्रभावकं विशेष-शेमुषीधरं, हाखण्ड - शील- शालिनं दयालुतासुमण्डितम् । अनेकशास्त्रवेदिनं सभा-सुबादि जित्वरं समस्त जीवपालकं नमामि तं गुणोदधिम् ॥ ७३ ॥ ( तोटकवृत्तम् ) – जिनचन्द्रमदअसुकीर्तिकरं, जनता भवभीति- कुबुद्धिहरम् । पुनरागमहा रिमहाव्रतिनं, प्रणमामि सदा सकलार्तिश (ह) रम् ॥ ७४ ॥ ( द्रुतविलम्बितम् ) - सुजन - वारिजराजिनभोमणिं, शम-दमाऽऽदि-समस्तगुणाऽऽश्रयम् । शशिकलाऽमलकीर्तिलताऽऽकुलं ह्यभयदेवयतीशमभिष्टुवे ॥ ७५ ॥ ( शार्दूलविक्रीडितम् ) - श्रीमन्तं जिनवल्लभं सुविदुषामग्रेसरं सत्तमं मार्तण्डप्रभमुन्नतं सुयशसा चन्द्रोपमेन क्षितौ । संसाराब्धि-- निमज्जतामसुमतां पोतायमानं प्रभुं स्त्रीयोदार-चरित्र-चित्रितभुवं सन्नौमि सूरीश्वरम् ॥ ७६ ॥ नक्षत्रेशसुशीतलं दिनमणि- प्रस्फारतेजस्विनं, भक्त्यानम्र-धराधिपेन्द्र
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श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिचरित्रम्
।। ५७ ।।
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मुकुटप्रोद्भासिरत्नांशुभिः। दीप्रास्थिपुनर्भवं वितरणे स्वः शाखिसाम्यङ्गतं, प्राचार्य जिनदत्तसूरिमनघं नौमीड्यवर्यं प्रभुम् ॥ ७७ ॥ ( त्रोटकम् ) – जिनचन्द्रममुं समशास्त्रविदं, जिनधर्मविकाशकश्विरम् । भवरोगमहौषधदानकरं, प्रणमामि सदा तमभीष्टदुहम् ॥ ७८ ॥ ( माहिनी ) - - जिनपतिवरसूरिः सर्वशास्त्रप्रवीणः, सुरतरुरिव लोके कामितैकप्रदित्सुः | अतुलवलयशोभिः शोभमानोऽत्र योऽभूत्, तमनिशमहमीडेऽचिन्त्यमाहात्म्यमेनम् ॥ ७९ ॥ ( पश्चचामरम् ) -- जिनेश्वरं प्रणौम्यहं सुतेजसं जगद्गुरुं, समस्तसूरिमण्डलेऽद्वितीयभासुरं प्रभुम् । परोपकारिताऽऽदिभिर्विशिष्टसद्गुणैः श्रितं सदा स्वकी यकर्मणि प्रदक्षतामुपागतम् ॥ ८० ॥ ( उपजातिः ) -- जिनप्रबोधं यमिनां वरिष्ठं दिक्षु प्रसारिप्रचुराऽवदातम् । यशश्चयं विभ्रतमाश्वर्यै, शास्त्रेष्वभिज्ञं विविधेषु नौमि ॥ ८१ ॥ ( त्रोटकम् ) -- जिन चन्द्रमपास्त कषायगणं, बहुल प्रतिबोधित - भव्यजनम् । सदनन्तपप्रतिपित्सुममुं परिणौमि महान्तमनङ्गजितम् ॥ ८२ ॥ ( मालतीवृत्तम् ) -- जिनकुशलं घनशास्त्रकोविंद, जगति जनाधिकबोधकारकम् | अनुपमकीर्तिलता-सुवेष्टितं, सुधियममुं परिणौमि सर्वदा ॥ ८३ ॥ ( प्रमिताक्षरावृत्तम् ) -- जिनपद्मसूरिमनघं जयिनं, वसुधा-प्रसिद्ध - बहुकीर्ति-कलम् । सकलागमज्ञमतुलं तपसा, परिचिन्तयामि सततं हृदये ॥ ८४ ॥ जिनलब्धिरिमतिधीरधियं, जनता-सुपूज्य - चरणाजयुगम्। (परितोदधामि हृदयाब्जदले ) क्षमता-सुधारस - निमग्नतरम् ॥ ८५ ॥ सुजना - म्बुजवजविकाश रविं भविनां भवाब्धितरणे तरणिम् । यमिनां वरिष्ठजिनचन्द्र गुरुं, परिणौमि सूविरमीडयतमम् ॥ ८६ ॥
( उपजाति: ) - जिनोदयाऽऽख्यं वरसूरिराजं जितेन्द्रियं तत्यविदां वरिष्ठम् । यशस्विनामादिममेनमीडे, कुबुद्धिकातारदवानलं हि ॥ ८७ ॥ ( तोटकम् ) - जिनराजमगाधमतिं गुणिनं, कलुषौघमहीधपत्रिं सुविदम् । शरणागतवत्सलमृद्धिकरं,
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प्रथमः
सर्गः ।
॥ ५७ ॥
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सकलाऽऽईतपूज्यतमं प्रणुमः ॥ ८८ ।। (मजुभाषिणी)-जिनभद्रसूरिमखिलाऽऽहंतेजनैः, परिपूज्य मान-पदसारस-द्वयम् । अतिदुर्लभाऽव्यय-पदाऽऽप्तिकारक, परिणीमि तारकवरं त्रिगुप्तिकम् ॥८९ ।। परमाऽऽतीय-हृदयाजभास्कर, मदनातिदर्प-दलनाऽतुलौजसम् । निज-भक्त-चित्त-शमताविधायकं, जिनचन्द्रमूरिमनिशं नमाम्यहम् ।। ९०॥
(दुतविलम्बितम् )--जिनसमुद्रमशेषविवादिनां, सदसि जित्वरमागमपारगम् । अभयदानपरव्रतमुज्वलं, प्रथितसूविरं प्रणुमः प्रभुम् ॥९१||(मञ्जुभाषिणी)-जिनहंससूरिमवनीभुजाऽऽदिभिः, पूजिताउतिपब-युगलं दयानिधिम् । निरवद्य-विद्यमतिहृयदेशनं, भिवादये तमनिशं प्रभासुरम् ।। ९२ ॥ (वैतालीयम् )-दिनमणिसम-तानव-विर्ष, श्रीजिनमाणिक्याऽभिधानकम् । प्रणमामि प्राणिरक्षिणं, स्व-पर-समयविदुषां पुरःसरम् ।। ९३ ।। (उपजातिः)–श्रीमन्तमेनं जिनचन्द्रसूरिं, वशीकृताऽनेकसुरं महान्तम् । सुखस्थितं गुर्जरदेशमध्ये, रम्ये पुरे पट्टणनामधेये ॥९४।। अकबराख्यः पृथिवीपतीन्द्रः, आकर्णितैतरहु । चित्रशक्तिः । विज्ञप्तिपत्रैरतिभक्तिपूर्णः, प्राजूहवत्तं वरलाभपुर्याम् ॥ ९५ ॥ (युग्मम् ) युगप्रधानः स हि संविहृत्य, क्रमेण तत्राऽभ्युपयात एषः । चमत्कृताऽनेकविशेष शक्ति, प्रादीदृशत्तं यवनाधिराजम् ।। ९६ ।। निरीक्ष्य लोकोत्तरशक्तिमस्य, निपीय पीयूषसमोपदेशम् । अमोमुदीच्छ्रीयवनाधिपेन्द्र-श्चमत्कृतः सत्कृतांश्व रिम् ॥९७।। अमारिघोष समचीकरत्स, पर्युषणादौ गुरुपर्वघने । धर्म विशुद्धं परमार्हतं हि, गुरूपदेशादमताऽवनीपः ॥९८॥ ( स्रग्धरा )-तत्पढे सिंहसरिः समभवदतुला प्रोल्लसत्कीर्तिशाली, सर्वाऽऽशाव्याप्त-तेजा रविरिव सकलाऽज्ञान-तामिस्रहन्ता । बुद्ध्या वागीशकल्पः सुरतरुवदसौ याचकाऽर्थ प्रदाता, निर्मुक्ताऽशेषमोहः क्षितितलविजयी शासनौनत्यकारी ॥ ९९ ॥ ( वसन्ततिलकावृत्तम् )-श्रीमानशेषगुणवाजिनराज
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श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरि
चरित्रम्
॥ ५८ ॥
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सूरिः, पट्टं तदीयविमलं समलञ्चकार । सूर्यः सुराद्रिमित्र जैनजनाऽब्जबन्धुः, पापौध-गाढ - तिमिर - ब्रजनाशकारी ॥ १०० ॥ (उपजातिः) - अमुष्य पठ्ठे जिनरत्नसूरि-रध्यास्त सर्वाऽऽगम-पारहवा । वादीन्द्र जिष्णुः प्रभविष्णुरेष, दिगन्त-विख्यातविशालकीर्तिः ॥ १०१ ॥ श्रीजैन चन्द्रोऽभवदेतदीय-पट्टे निषण्णः शरदिन्दुकीर्तिः । विद्यानिधिस्तच्वविचारदक्षा, संसारकूपाञ्जनतोद्धरिष्णुः ॥ १०२ ॥ विद्वत्तमः श्री जिनसौख्यसूरि-रुपाविशच्चारुतदीयपट्टे । सर्वासु दिक्षु प्रततान कीर्त्ति प्रावृबुधद् भूरिजनांश्च तत्रम् ॥ १०३ ॥ ( वसन्ततिलका ) – तत्पट्ट - मेरुशिखरोदित- लोकचक्षुः, सल्लोक -हृद्य-कुमताऽन्धनिराकरिष्णुः । निर्वाण-पद्म- विचकास नहेतुभृतः, प्रादिद्युतजगदिदं जिनभक्तिरिः || १०४ ॥ एतत्क्रमाब्ज- मकरन्द- मिलिन्द एष, योगीशवृन्द परिजुष्ट-पदाऽरविन्दः । विश्वाऽतिशायियशसा परिपूरिताऽऽशः, प्रज्ञाऽधिकः समभवअिनलाभसूरिः ।। १०५ ।।
( शार्दूलविक्रीडितम् ) — अध्यग्न्यैष्ट - वसुन्धराप्रमिति के श्रीवैक्रमे वत्सरे, मासे चाऽऽश्वयुजे सुमेचकदले स्मारे तिथौ सत्पुरे | गूडाख्ये प्रतिपद्य सूरिपदवीं गुर्वासने तस्थिवान् स श्रीमाञ्जिनचन्द्रसूरिरनघः श्रीसङ्घभूत्यै भवेत् ।। १०६ ।। रम्ये सूर्यपुरे कुशाग्रमतिमाञ्जाते च चारुत्सवे, श्रीमद्गौरवमासनं सुविधिनाऽध्यासिष्ट सूरीश्वरः । श्रीमच्छ्रीजिनहर्षरिरपरो भास्वा निवोद्यन् क्षितौ, शान्त्यादिप्रगुणाऽऽकरो विजयिनामग्रे सरोऽस्तु थिये ।। १०७ ।। श्रीमद्विक्रमहायने दल-निधानाऽष्ट- क्षमासं ख्यके, मार्गे मासि सिते दले गुरुदिने लक्ष्मीपतेः सत्तिथौ । ख्याते विक्रमपत्तने सुविहिते संघेन चारुत्सवे, आचार्यासनमारुरोह विधिवलग्ने शुभे यः सुधीः ॥ १०८ ॥ स श्रीमजिनपूर्वकः सुमहिमा सौभाग्यसूरीश्वरो, नानाशास्त्रविचक्षणः सुगरिमा चारित्ररत्नोउवलः । मोहाऽरातिविषूदनः सुभविनां पापौघविद्रावणः, षट्त्रिंशद्गुणधारकः प्रणमतां तन्तन्तु
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प्रथमः सर्गः ।
।। ५८ ।।
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&ानः सच्छ्रियम् ।। १०९ ।। (युग्मम् ) वर्षे नाग-धराग्रहेन्दुतुलिते मासे तपस्ये शुभे, पक्षे स्वच्छतरे तिथौ मधुरिपोर्गीर्वाण
वन्ये दिने । श्रीमद्विक्रमनामधेयनगरे जाते गरिष्ठे महे, त्रिंशद्गुणभूषितं गुरुतरं सौरं पदं प्राप्तवान् ॥ ११० ॥ सोऽयं श्रीजिनहंसमरिरनिशं दादेतु नः सच्छिवं, सद्भक्ता सदसि प्रवादिनिवहाऽशेष-प्रभाहारकः । योगीन्द्रः क्षिति--सन्तताऽमलयशाः प्रौढप्रतापानलः, संसारार्णवतारकः शुभधियां सद्भक्तशर्मप्रदः ॥ १११ ॥ (युग्मम् ) अब्दे चाण-गुणाङ्क-भूमितुलिते सम्बत्सरे बैक्रमे, माघे मासि सिते दले गुरुदिने सत्पूर्णिमायां तिथौ । दुगे विक्रमसत्पुरे बहुविधैरारब्धचारूत्सवै-राचार्याऽऽसनमध्युवास महिमाऽकूपार उग्रप्रभः ॥११२ ।। सेप श्रीजिनचन्द्रसरिरखिलाऽऽशाव्याप्तकीर्तिबजो, मार्तण्डयुतिमावहन बुधवरांस्तोतोषयन् विद्यया । श्रीसंघ परिमोदयन्नतितरां चन्द्रश्चकोरानिव, व्याख्यानाऽमृतपायनरहरहस्तन्तन्तु शं नः सदा ॥११३ ॥ वर्षे तर्क-शङ्कि-चन्द्रगणिते सूर्जे सुमासेऽसिते, पक्षे चन्द्रसुवासरे फणितिथावाचार्यतामाप्तवान् । श्रीमद्विक्रमसु| प्रसिद्धनगरे जाजायमानोत्सवे, श्रीमच्छ्रीजिनकीर्तिमरिरनिशं बोमोतु नः श्रेयसे ।। ११४ ॥ (उपजातिः)-तुरङ्ग-तर्कग्रहचन्द्रवर्षे, माघेऽसिते भोगितिथौ सुवारे । समीयिवान् सूरिपदं जिनाऽऽदि-चारित्रसूरिर्जयतु प्रविद्वान् ।। ११५ ॥
(मालिनी )-खरतरगणनाथः सञ्चरित्रः पवित्रः, कृत-विविध-तपस्या-निर्धताऽशेषपापः । अधिगत-कतिशास्त्रः प्राप्तभूरिप्रतिष्ठः, स भवतु जिनचारित्राऽभिधः श्रेयसे नः ॥ ११६ ॥ (इन्द्रवजा)-स दीनबन्धुः करुणैकसिन्धु-युगप्रधानो विगताभिमानः । प्रविस्तृणातु प्रभुरेष शर्म, प्रभावकः श्रीजिनभद्रसरिः ।। ११७ ।। (शार्दूलविक्रीडितम् )-पत्रिंशद्गुणरत्नवारिधिरसौ सच्छङ्खवाले कुले, जातः स्वीय-विशुद्ध-गच्छ-जलज-प्रोल्लासने भानुमान् । पादाब्ज-प्रणताऽखिल-क्षितिपतिः सद्दीप
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श्रीजिन
कृपाचन्द्र
सूरिचरित्रम् ।। ५९ ।।
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चन्द्राऽङ्गजः सूरिः श्री जिनकीर्तिरत्नविमलाख्यो नः श्रिये जायताम् ॥ ११८ ॥ ( वसन्ततिलका ) - भूम्यग्नि-वेदे धरणीमितहायनेऽसौ प्रादुर्बभूव रस- वेद-युगेन्दुवे । दीक्षां ललौ शशि पंडन्धि-धरामिताऽब्दे, जग्राह सूरिपदवीं जिनवर्द्धनाऽऽरूयः ॥ ११९॥ सूरीश्वरः सकल-तन्त्र - गभीरबुद्धि - भूमण्डल- प्रसृत-शारदचन्द्रकीर्तिः। श्रीवीरशासन विकासन-कारकोऽसौ वाजिं -हाsब्धि-शशिनि स्वरगाच वर्षे || १२० || ( युग्मम् ) शैलाब्धि- वेद-शशि- सम्मितैर्वत्सरेऽसौ जन्माग्रहीत् क्षिति-रसोदधिं भूमिवर्ष आदाद् व्रतं घर तुरङ्ग-युगेकवर्ष माघे सिते शुभदिने जिनभद्र एषः ॥ १२१ ॥ सम्प्राप सूरिपदमुत्तमसिद्धतेजा राकातिथौ युग मही-शेरे-भूमिताब्दे । मार्गेऽसिते हिमगिरीन्द्रसुता सुतियां, यातो दिवं कुभलमेरुपुरे महीयान् ||१२२|| ( युग्मम् )
-
( पृथ्वी ) - चतुर्दशसमावयाः सकलसम्पदं लोष्ठवद्, विहाय शुभहायने दहन तर्क-वेदें क्षितौ । शुभङ्कर-कराब्जतः स जिनवर्द्धनस्य प्रभोः, शुचावसित पक्षके शुभदविश्वविध्यामसौ ॥ १२३ ॥ ( मन्दाक्रान्ता ) -- दीक्षां लावा ख-मुनि-जलधीन्दुप्रमाणे चे वर्षे, संलेभानो गणिपदमसौ सर्वशास्त्राऽवगाही सोपाध्यायस्तदनु समभूद्विन्दु-स्वब्धि-चन्द्रे काब्धि-क्षिति- मित- समायामभूत्सूरिभाजः ॥ १२४ ॥ ( युग्मम् ) ( उपजातिः ) श्रीकीर्तिरत्नाऽभिघ सर्वसूरि-चूडामणिर्विश्वगुणाभिरामः । जगद्धिताऽनेक सुकृत्य कर्ता, पायात् सदा नः सुसुतान् पितेव ॥ १२५ ॥ आजन्म - शीलवत-जात - तेजो- देदीप्यमानः सवितेव लोके सुधांशुवच्छीतलशान्तमूर्ति - रासीदसौ शासनदीसिकारी ।। १२६ ।। प्रधानशिष्यः समभृदमुष्योपाध्याय एप प्रथितः सुविद्वान् । श्रीमानशेषाऽऽगमसत्पटीयाँ - लावण्यशीलो गणभृत्कलावान् ।। १२७ ।। एतस्य शिष्यो विनयी बभूवोपाध्यायभाजो निरवद्यविद्यः । मान्यः सतां विश्वजनीन आर्त- त्राता विधाता जनता- सुखस्य ॥ १२८॥
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प्रथमः
सर्गः ।
॥ ५९ ॥
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श्रीपुण्य-धीराऽऽख्यगणी सुवक्ता, स्वाम्नाय शुद्धाऽऽचरण प्रतिष्ठः । बादि-प्रकाण्ड-द्विरदेषु सिंहः, पापौघ-भूभृच्छतकोटिकल्पः ॥ १२९ ।। (युग्मम् ) श्रीज्ञानकीर्तिगणभृत्तदीयो-पाध्यायभागुजबलकीर्तिशाली । विद्वदरिष्ठ: सुजनाऽब्जभानु:, प्रभावकोऽभूजनतानुतातिः ॥ १३० ।। गुणप्रमोदोऽभवदस्य शिष्यो-पाध्याय एप प्रततान कीर्तिम् । सर्वासु दिक्षु प्रभयोपपनो, विद्याविवादे विजयी सभायाम् ॥ १३१ ।। छात्रस्तदीयः समयाऽऽदिकीर्ति-रभूदुपाध्यायगणी यशस्वी । विद्वत्प्रकाण्डो गुणिवर्यगण्या, सुरक्षिताऽखण्डित-शीलशाली ॥ १३२ ॥ श्रीहर्षकल्लोलगणी बभूवो-पाध्यायतत्पाद-सरोज-भृङ्गः । समिद्धतेजाः करुणाऽऽर्द्रचेता, आदर्शभूतो जगदहणाऽर्हः ॥ १३३ ।। (आर्या )-शिष्यश्चाऽस्य विनीतः, श्रीमान् गणी विनयकालोलाऽऽसया । उपाध्यायपदयुक्तो, जातः स्वपर-समयनिष्णातः ॥ १३४ ।। (आण्यानकी)-तदीयशिष्यः समभूदुपाध्या-या कीर्तिशाली प्रभयोऽशुमाली । श्रीचन्द्रकीर्तिगणभृत्कृपालु, सद्भक्तचित्ताऽम्घुज-पनवन्धुः॥ १३५॥
(उपजाति:)-अमुष्य शिष्यो गुणकीर्तिरासीत्, गणी सुविद्वान् गुणरत्नसिन्धुः। स्वानाय-सैद्धान्तिक-वेद-वित्तोपाध्यायमुरुयो जनता-शुभंयुः ॥१३६ ॥ (द्रुतविलम्बितम् )-सुमतिरङ्गगणी समजायत, प्रवरवाचक उत्तमशीलपः। गुरुवरस्य हि तस्य सुशिष्यका, सुमतिदायक इज्यवरः प्रभुः ॥ १३७ ॥ (उपजातिः) तदीय-शिष्यत्वमयं समार, श्रीयुक्तिरङ्गो गणभृदयालुः । विद्याचणो जातजगत्प्रतिष्ठो-पाध्याय आबाल-सुशीलपाली ॥ १३८ ।। अस्याभवच्छीमुखलाभशिष्यो-पाध्याय आनम्र-समस्तजैन: । अर्हन्मताऽम्भोज-विकाशनाऽके, सम्यक्त्वदाता गणिमुख्य एषः ॥ १३९ ॥
(तामरसचम्)-जयपाल: सुविनीतसुशिष्यः, समभवदस्य सुवाचकमुख्यः । सकल-जिनागम-पाठनशक्तः, क्षिति
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श्रीजिनकृपाचन्द्र
सरिचरित्रम्
प्रथमः सर्गः।
॥६०॥
CROCHACAX
| जनपण्यगणीश्वर एपः ॥ १४० ।। (तामरसम)--जयकुशलः सुविनीतसुशिष्यः, समभवदस्य सुवाचकमुख्यः । सकल| जिनाऽऽगम-पाठन-शक्त:, क्षितितल-गण्य-गणीश्वर एपः ॥ १४१॥ (द्रुतविलंबितम् )-अचलबर्द्धन-शिष्यवरोऽभवत्, सकल-शाख-विचारण-दक्षिणः । प्रथित-वाचक-वृन्द-शिरोमणि-गणभृदस्य गरिष्ठगुरोरयम् ।। १४२ ॥
(उपजातिः) एतस्य शिष्यो जिनहंसनामा, गणी सुधर्मा सदसि प्रवक्ता । यशस्करो भूतिददो बभूवो-पाध्यायवृन्दाऽय्यतमो जितात्मा ॥ १४३ ।। एतत्क्रमाऽम्भोज-युग-द्विरेफ-माणिक्यमूर्तिर्गणभृद्धभूवान् । शास्त्राब्धि-पारीण उदारबुद्धिः, सद्वाचकाऽग्रेसर आप्तवक्ता ॥१४४॥ श्रीज्ञानमूर्तिर्गणभृत्प्रजजे, शिष्यस्तदीयो यशसा गरीयान् । जिताऽऽन्तरारिर्ममता-विमुक्तो-पाध्याय उष्णांशु-समप्रभासः ॥१४५॥ श्रीभावहर्षी गणभृद्बभूवो-पाध्याय उच्चैर्यशसाऽभिरामः । सुदक्षिणः सर्वकलासु तस्य, प्रशस्य-शिष्यः परमार्थदर्शी ॥ १४६ ।। (प्रमुवितवदना)-अमर-विमल-शिष्य-वर्यो गणी, समजनि-सम-वाचकाग्रेसरः । तदतुल-पदपद्म-भृङ्गोपमो, जगदुदित-सुकीर्ति-वल्ल्यावृतः ॥ १४७॥
(द्रुतविलंबित्तम )-अमृतसुन्दर उचल-कीर्तिमान् , समजनिष्ट गणी बरवाचकः । तदनुकूल-विनेयवरः प्रधी-रधिकविद्य उपास्यतमः कृती ॥ १४८ ।। (तोटकम् )--अमुकस्य सुशिष्य-महामतिमान् , निरवद्य सुविद्य उदारयशाः। महिमायुत-हेमगणी समभूत् , प्रभुरेष सुवाचक ईडयतमः ॥ १४९ ॥ (उपजाति:)--एतस्य शिष्यत्वमगादनल्प--तेजा महौजा गणिवाचकोऽसौ । मान्यः समेषां जयकीर्तिनामा, वशीकृतात्मा शशि-शुभ्रकीर्तिः ॥ १५० ॥ प्रतापसौभाग्य-गणी बभूवो-पाध्यायभाक् तस्य गरिष्ठकीर्तेः। शिष्यो महीयानुदधिर्गुणानाम् , अनेक-शाखेषु कृतश्रमोऽसौ ॥ १५१ ।।
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का॥६०॥
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( तामरसवृत्तम् ) -- प्रणत-नृपाल - शिरोमणि-दीप्रः, प्रथितसुवाचक आप्तयशस्कः । समभवदस्य गुरोरिह शिष्यः, सुमतिविशालगणी प्रभविष्णुः ॥ १५२ ॥ ( उपजातिः ) - समुद्रसोमः समभूदमुष्यो- -- पाध्याय उद्यत्सुयशोगरीयान् । गणी जगत्यामुदित-प्रताप, शिष्यो यशस्यः प्रभया पतङ्गः ।। १५३ ।। श्रीयुक्ति युक्ताऽमृतनामधेयो, ह्यन्तेसदस्याऽभवदेष जिष्णुः । सद्वाचकोऽशेष - कषाय-मुक्तो, गणी प्रविद्वाञ्जित - वादिवृन्दः ॥ १५४ ॥ ( शार्दूलविक्रीडितम् ) -- कालैकाङ्कनिशांकर-प्रमितिके वर्षेऽजनिष्टाऽसुकः, तर्काऽग्नि-ग्रह - भूमिते च जगृहे दीक्षां परामार्हतीम् । नेत्राऽऽङ्क-महीमिते च धवले पक्षे सहस्ये शुभे, पक्षान्ते सुतिथौ समस्त-सुजनाऽऽरब्धे सुचारूत्सवे ॥ १५५ ॥ श्रीमच्छ्रीगुरुवर्यकस्य जिनयुक्चारित्रसूरेः करात् प्रापत्सूरिपदं कुशाग्रधिषणः श्रीमान् प्रविद्वान्महान् । सैष श्री जिनकीर्तिसूरिरपरः श्रीमजिनाऽऽदिः कृपाचन्द्रः सागर आविभाति सकले भूमण्डले सद्गुरुः ॥ १५६ ॥ श्रीमन्मोहमयीपुरे जिनयुतचारित्रसूरीश्वरस्तुभ्यं सद्गुणसद्मने सुविदुषामग्र्याय मेधाविने । प्रादात्सूरिपदं प्रसन्नहृदयश्चाऽऽचार्यतामध्य सौ, गच्छेऽस्मिन् सकले त्वमेव गुरुतां धत्सेऽधुना सर्वथा ।। १५७ || ( उपजातिः ) - गच्छे प्रभावी पुरुषो यतस्त्वं ज्यायानपि त्वं बहुविद्ययाऽऽन्यः । गीतार्थ - कत्वादपि तस्य पट्ट-मलङ्करिष्णुर्भविता त्वमेव ॥ १५८॥ वालोत्तरायां पुरि नेत्र-नाग- नवेन्दु-वर्षे सह शिष्यवर्गैः । प्रावृद चतुर्मासमिह न्यवात्सीः, नॄन् पाययन् धर्म्यकथामृतानि ॥ १५९ ॥ ( आर्या ) - तत्र हि भावहर्षीय शाखोपाध्याय - श्रीमदनाsssयः । निज- गुरुफर्तेन्द्रसूरि-स्थाने त्वामेव सम्मेने ॥ १६० ॥ श्रीजिनफतेन्द्रसूरेः, पट्टाऽऽलङ्कारि-जिनलब्धिसूरिः । तावकीन - करकमलैः, क्रियोद्धृतिमचीकरद्यत्नात् ।। १६१ ॥ ( उपजातिः ) - जाते त्वदीये अमुके विनेये, मुमुक्षुवर्ये गुणवद्
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प्रथमः सर्गः।
श्रीजिनकपाचन्द्र
सरिचरित्रम्
गरिष्ठे । तदीय-तत्पढ़-नियन्तृतैवं, त्वय्येव जाता जगदेकजिष्णो! ॥१६२॥(वैतालीयम्)-मालवीय-जावरापुरे, पिप्पलकखरतरीय-शाखिकः । समजनि जिनचन्द्रसरिको, जिनोदयसरिरास्त तत्पदे ॥१६३ ॥ (उपजातिः)-महात्मनाऽनेन सुबुदिनाऽपि, समुज्झिताऽशेष-परिग्रहेण । वेदाऽव-नन्देन्दुमिते च वर्षे, क्रियोवृतिं स्वं समचीकरब ।। १६४ ॥ अतस्त्वमेवाऽसि तदीयपट्ट-प्रधाननेता जगदुज्ज्वलाऽऽभ!। जिनाऽऽदिकीर्तेर्वरसूरिकस्य, बस्त्येव पट्टाऽधिकतिस्त्वयीश ॥१६५॥ इत्थं चतुम्शाखिक-पट्टकीयाss-चार्यत्वमापद्य बरीवृतीपि । महीयसस्तेऽतुलतेजसोऽस्माद्, गायन्ति धीराचरितं खुदारम् ॥ १६६ ।। मत्पूर्वजो गौरवबन्धुरासीद्, विद्वत्तमानां धुरि कीर्तनीयः । विभूषणः सञ्जनपुङ्गवाना-मानन्दनामा महिमाउम्पुराशिः ।। १६७॥ नेत्राब्धि-नन्द-क्षितिहायनेऽसौ, प्रादुर्बभूवात-धरौक-चन्द्रे । बर्षे तपस्ये शुभवासरेऽस्य, जाता सुदीक्षा महता महेन ।। १६८ ॥ नमस्तुरङ्गाङ्क-शशाङ्कवर्षे, चैत्रेऽसिते तिथौ च शुक्रे । ख्यातो मराले नगरे समाधि-ना घेतसि श्रीपरमेष्ठिपश्च ॥ १६९ ॥ स्मरबजलं वरमुक्तिदाय, सीमन्धर-वामि-पदारविन्दम् । ध्यायछुमध्यानमना मनीषी, सुरेशपुर्या गतवाननंहाः ॥ १७० ॥ (युग्मम् ) गार्हस्थ्यवासे दशपश्चवर्षी, सुसंयमित्वेऽपि च तावतीं सः। सम्पूर्णमायुर्गुणबिन्दुमब्द, भुक्त्वा सहस्राक्षपुरी जगाम ॥ १७१॥ राजन्यवंशीय-सुवत्सगोत्र-श्रीखूमसिंहात्पडिहारगोत्रा। श्रीअमृताख्या जनयाञ्चकार, गुणाऽब्धि-नन्देन्दुमिते चे वर्षे ॥ १७२ ॥ शुभाभिधानं युगराजमासीत् , नक्षत्रमासीदमिजित्प्रधानम् । बभूव राशिर्मकरस्तदानी-मित्थं सुवंशे जनितोऽस्म्यहं हि ॥१७३॥ माईस्थ्यवासे दशपञ्चवर्षी, सुसंयमित्वेऽपि च तावतीं सः । सम्पूर्णमायुर्गुणबिन्दुवर्ष, भुक्त्वा सहस्राक्षपुरी जगाम ॥ १७४ ॥ राजन्यवंशीय-सुबत्सगोत्र-श्रीखूमर्सिहात्
॥६१॥
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पडिहारगोत्रा । अजीजनच्छीअमृता सुपुत्रं, गुणाऽब्धि-नन्देन्दुमिते च वर्षे ॥ १७५ ।। गार्हस्थ्यसंज्ञा युगराज आसी-बक्षत्रमासीदभिजित्प्रधानम् । बभूव राशिर्मकरच सोऽहं, जातः सुधांशाविव शुद्धवंशे ॥ १७६ ॥ पाण्यम्बुजाच्छीजिनकीर्तिसूरेस्तकेंषु-रन्ध-क्षितितुल्यवर्षे । सुदीक्षितस्तर्क-हृयाऽईचेंन्द्रे-ऽलमे युपाध्यायपदं किलाहम् ॥ १७७॥
(शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् )-वर्षे व्योम-नैवाऽङ्कचन्द्रगणिते श्रीपादलिप्ते पुरे, मासे फाल्गुनिके सिते रविदिने चक्षुःश्रवःसत्तियौ । चन्द्रे मीनगते शुमेहि शुभदे मेषे नवांशे भृगोः, श्रीमच्छीजिनकीर्तिमरिगुरुभिः प्रादायि मूरेः पदम् ।। १७८ ॥ | चन्द्रागार-विशाल-सर्वजनताचेतोहरे सुन्दरे, द्वैतीये वरभूमिके विरचितायां गोष्ठिकायां मुदा । श्रीसङ्घर्चहुसज्जनैश्च विबुधै
रामण्डितायां भृशं, श्रीमत्सूरिपदप्रदानमभवद्भर्युत्सवैर्मामकम् ॥ १७९ ॥ ( मालतीवृत्तम् )-जिनजयसागरसूरिनाम | मे, प्रथितमनेन गुणाऽम्बुराशिना । सकल-महाजन-पूजिताऽङ्किणा, सजिनकृपायुतचन्द्रसूरिणा ।। १८०॥
(शार्दूलविक्रीडितम् )-इत्याचार्यशिरोमणेर्जिनकृपाचन्द्रस्य सूरीशितुः, सूरिश्रीजयसागरेण मयका रम्ये चरित्रे गुरोः । सत्पधैरतिमन्जुलैर्विरचिते मोदप्रदे धीमता, सन्तानोद्भवकीर्तनोज्वलतरः सर्गोऽयमाद्योऽभवत् ।। १८१ ।।
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प्रथमः सगे।
श्रीजिनकृपाचन्द्रसरि
चरित्रकर्तुः श्रीजिनजयसागरसूरेः सूरिपदप्रदानकुण्डली
२ १२. 7
चरित्रम्
॥६२ ॥
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॥ इति प्रथमः सर्गः ॥
६२॥
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॥ अथ द्वितीयः सर्गः ॥
(उपगीती )-धन्वनि योधपुर-नगर-पश्चिमे चतुर्मुखो ग्रामः । न्यवसत्तत्र श्रीमान् , मेघरथो बाफणागोत्रः ॥१॥
(उपजातिः)-स वृद्धशाखीय उदारतेजा, ज्ञातिश्च तस्याऽभवदोशवालः । ऊकेश आसीदिह मूलवंशः, सतीप्रकाण्डा हमरा सुपत्नी ॥ २ ॥ तयोः सुपुत्रोऽभवदेष कीर्ति-श्चन्द्रः कुमारः शुभलक्षणाङ्गः । रामेषु-रन्धेन्दुमिते 'चे वर्षे, कुशाग्रबुद्धिचतुरः सुवक्ता ॥ ३ ॥ अर्थकदा योधपुर समागा-मात्रा सहायं प्रतिबोधमापत् । धर्मश्रिया दर्भमुख-प्रख्या , तत्रस्थया साचिकया महत्या ॥ ४ ॥ त्रयोदशाऽब्दोऽपि भवाणवं स-न्तितीपुरेतत्सकलं जिहा। । तर्क-ति नन्देन्दुमिते 'चे वर्षे, वैराग्य-भावोजवलतामियाय ॥ ५ ॥ निःशेप-कर्मक्षयरूपमोक्षं, विज्ञान-पूर्वक्रिययैव याति । तत्रापि हेतुः सुगुरुर्महीयान , इत्यब्रवीत्ता विनयी तदर्थी ॥ ६ ॥ आर्य ! द्रुतं मां सुगुरोः समीपे, विद्यार्थिनं प्रेषय मा विलम्बम् । कृथा इदानीं शरणाऽऽगताऽऽर्त-बालोपरिष्ठात्करुणां विधाय ॥ ७॥ यो द्रव्यषट्कं न हि वेत्ति सम्यह, नाऽसौ यथार्थां मुनितामुपैति । ज्ञानेन साधुः परिकीर्त्यते हि, नाऽरण्यवासेन कदापि काले ॥ ८॥ ये द्रव्यमात्रेण हि मुण्डयित्वा, शिरः स्वकं मौनिकवेषवन्तः । जानन्ति किश्चिन हि वस्तुतच्च, कुक्षिम्भरास्ते कुगतिं लभन्ते ॥ ९॥ इत्थं तदुक्क्या करुणाऽऽर्द्रचित्ता, धर्मथिका सा हृदयेऽवधार्य । अग्रे भविष्यन्तममुं महान्तं, विद्यामुपादातुमतुच्छबुद्धिम् ॥१०॥ समुद्रसीमाभिधमरि-शिष्य-युक्त्यादिकश्रीअमृताऽख्यसूरेः । विशुद्धधर्म-प्रतिपादकस्य, नैकेषु शाखेषु कृतश्रमस्य ॥ ११ ॥ पार्थे तदैनं गत-जन्म-सम्य-गाराधित-ज्ञानमहा
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श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिचरित्रम्
॥ ६३ ॥
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व्रताऽऽदिम् । मत्वा कुमारं विनयाऽवनम्रं सम्प्राहिणोत्तज्जननीं च पृष्ट्वा || १२ || (त्रिभिर्विशेषकम् ) - प्रणम्य धर्मश्रियमार्थिकां तां स्वमातरं चाऽपि सुखेन तस्मात् । शुभे मुहूर्ते चलितः कुमारः संप्राप्तवान् विक्रमपत्तनं हि ॥ १३ ॥ सच्चैत्रिके शुक्लदले तृतीया - तियां समागत्य गुरून् मिमेल । आरब्धवाञ्यसि सौम्यघस्रे, बलिष्ठलग्नेऽध्ययनं शुभंयुः ॥ १४ ॥ मेघाविनामुत्तम एष शीघ्रं, सल्लौकिकं धार्मिक शब्दशास्त्रम् । सतर्कशास्त्रं सकलं महार्थं, वेदान्त - वैशेषिक- जैमिनीयम् ।। १५ ।। साङ्ख्यश्च पातञ्जल - तन्त्र-मन्त्र- चार्वाक - बौद्धाऽऽदिकसर्वशास्त्रम् । नैमित्तिकं शाकुनिकं बहूनि काव्यानि चम्पू वरनाटकानि ।। १६ ।। ज्योतिस्तथा वैद्यक - सर्वकोशा - ऽलङ्कार- सामुद्रिकशास्त्रमेवम्। सद्गद्यकाव्यानि बहूँश्च वृत्त-ग्रन्थान् समध्यैष्ट यथावदेषः ॥ १७ ॥ ( त्रिभिर्विशेषकम् ) इत्थं पटीयान् सकलेषु जातः, शास्त्रेषु गाम्भीर्यपयोधिरेषः । चातुर्यतायामयमद्वितीयो बभूव विद्वद्वनचारि-सिंहः ||१८|| ततः प्रविद्वांसमनुं महीयान् जैनाऽऽगमी याऽध्ययनाय योग्यम् । मत्वा गुरुस्तर्क-गुणाऽङ्कुचन्द्रमाने सुवर्षे शुचिशुक्लपक्षे ॥ १९ ॥ प्राविव्रजद्याम्यतिथौ सुलग्ने, स्वाम्नाय दीक्षाविधिना विधिज्ञः । पात्रे समेतेऽसमयेऽप्यवश्यं, सिद्धान्तसद्वाचनमस्य देयम् || २० || ( युग्मम् ) अमानि चेत्यप्यपवादमार्गः, सिद्धान्तशास्त्रे बहुभिः सुधीभिः । कुशिष्यकाः किल वाचनाया, दानं तदादानमपि न्यषेधि || २१ || अश्नन्ति नित्यं विकृतं हि भक्ष्यं कुर्वन्ति ये नो विनयं महत्सु शठाच दुष्टा अतिकोपिनो ये, ब्युद्धाहिता भिक्षु-मतान्तरीयाः ॥ २२ ॥ स्वाचारशैथिल्यमुपागता ये तेषां समेषां श्रुतवाचनायाः । दाता ग्रहीता च ततः स पापी, छेदश्रुतावेवमलेखि सर्वम् ॥ २३ ॥ अतो गुरुस्तं प्रथमं प्रदीक्ष्य, प्राध्यापिपत्सर्वजिना - गमांच | सिद्धान्तनिष्णातमबीभवच्च, त्रिनेत्रवर्षाणि गतं विनीतम् ॥ २४ ॥ इत्थं स्वकीयाऽन्यमतीयशास्त्र - पाथोधि- पारङ्गत एष
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द्वितीयः सर्गः ।
॥ ६३ ॥
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जिष्णुः । अचीकमच्छ्रीगुरुभिः समेतः, क्रियासमुद्धारमगाधबुद्धिः ॥ २५॥ अथाऽसको दर्शनशुद्धतायै, श्रीमद्गुरोरगिसरोजयुग्मम् । शेश्रीयमाणः सुजनान् प्रबोधन्, चम्भ्रम्यमाणो विषयाननेकान् ॥ २६ ॥ महापुरग्रामटिकीयशश्व-दशाश्वतश्रीजिनराजबिम्बम् । पश्यनयं प्राच्य-समस्ततीर्थ-यात्रामकाविहुवृद्धभावः ॥२७ ।। युग्मम् ॥ ऐदन्तरिक्षस्थितपार्श्वनाथ-तीथं तथा श्रीकुलपाकतीर्थम् । समाययौ केशरियाख्यतीर्थ, ननाम तीर्थशमनल्पभक्त्या ॥ २८ ।। (इन्द्रवंशा)-श्रीमाण्डवादिं गढमाप गुजेरे, देशे ततः श्रीमकसीपुरस्थितम् । आजग्मिवान् सामलियासुपत्तन, सागारवन्ती विवडोदपत्तनम् ॥ २९ ॥
(शार्दूलविक्रीडितम् )-नाकोडामगमत्ततः पुनरसौ संप्राप्तवाँल्लोद्रवां, कापेडामपि सङ्गतो जिनवराऽपूर्वच्छर्वि दृष्टवान् । भूविख्यात-फलोधिसंस्थितमसौ श्रीपार्श्वनाथप्रशं, दृष्ट्वाऽगादरमेदनीपुरमितो यातो जवालीपुरम् ॥ ३०॥
(उपजातिः) ततः करेडापुरि शान्तिनाथं, महाद्भुतं प्रैक्षत भूरिभक्त्या । तत्रत्यलोकानमृतायमान-सदेशनाभिः सकलानतीत् ॥ ३१ ॥ आमाचतो देवलयुक्तवाडा, पुरीं सुरम्यां कृतवांश्च यात्राम् । उपादिशद्धार्मिकतचमत्र, प्रापत्प्रतिष्ठा महतीं च सखे ॥ ३२ ॥ (भुजङ्गप्रयातम् )-ततचित्रकूट समेत्य प्रभक्या, जिनेशं प्रणम्य प्रमोदं समाप । भृशं सत्कृतोऽशेषपौरैश्च तत्र, विजड़े ततोऽपारधामा महात्मा ॥ ३३ ॥ (जलोद्धतगतिः)-स राजनगरं प्रभासुर इत-वकार जिनदर्शनं प्रमुदितः । दावमृतदेशनां सुजनतः, दिनेश इव भासुरः समुदितः ॥३४॥ (पञ्चचामरं)-ततः कनिष्ठधन्वनि प्रसिद्धतीर्थकस्थलं, महाचुदाऽचलाभिषं प्रभासपङ्कनं मुदा । बले च मांगरोलकाभिधानतीर्थमुत्तम, सुरैवताऽचलं परं सुजामनाऽऽदिकं गरम् ॥३५॥ प्रशस्तमोशियाऽभिधं जगाम तीर्थनायक, ददर्श मोदमेदुरः प्रधीवरः शुभकरः । अनेक-तीर्थकद्गणि-प्रधान-वीरवेषिणां, सुजन्म
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द्वितीयः सर्गः।
चरिचरित्रम्
श्रीजिन
दीक्षणाऽऽदिभिः पवित्रमंहसां हरम् ॥३६॥ (युग्मम् ) (उपजातिः)-अनन्त-कैवल्यसमुद्भवच, यस्मिश्च निर्वाणमुपेयिवांसः। कृपाचन्द्रा अनेक-कल्याणकमाविरासीव, समावसारो रचितश्च यत्र॥३७॥ संघ चतुओं समतिष्ठिपच, श्रीवीतरागो भगवान्हि यत्र । प्राय
च तत्तव्यतिशायितीर्थ-स्थलं प्रविद्वान् समुपाजगाम ।। ३८ ।। प्राचीन-नूत्नाखिल-पौर्वमेवं, सगौरं वृद्धमरुस्थलीयम् । कच्छीय-सौराष्ट्रिक-कौङ्कणं च, लाट्यं समस्तं वढियारदेश्यम् ॥ ३९ ॥ वैदर्भिकं मालवदेशजातं, सौवीर-सिन्धूद्भव
मैदपाटम् । छत्तीशयुक्तं गढमाप्य सर्वे, पाश्चालिक तीर्थमपश्यदेषः ॥ ४० ।। (बसन्ततिलका)-शत्रुञ्जयाऽऽदिबहुपावन॥६४॥
तीर्थभूमि, कल्याणकाऽऽदिबहुतीर्थभुवश्च रम्याः । संस्पृश्य भूरितपसा कृतनिर्मलं हि, देहं व्यशोधयदसौ जगदेकवन्धः ॥४१॥ विशुद्ध-सैद्धान्तिकतत्वबोध, सम्प्राप्य वाचा निरवद्यया हि । शश्वत्तदाख्याय गिरं स्वकीयां, पवित्रयामास महामनीषी ॥ ४२ ॥ ( उपजातिः )-महाबतानामथ पञ्चकानां, बाण-द्वि-सद्भावनया महत्या । अनित्यतायक-विभावनाभि-मनो व्यशोधि प्रभुणाऽमुना हि ।। ४३ ।। ( वसन्ततिलका )-सद्दान-शील-तपसा जप-संयमाऽऽद्यैः, पूर्त व्यधात् त्रिकरणाऽऽदिकयोगमीडयः । षड्दर्शनोदित पदार्थमचोधि सम्यग् , जग्राह चाऽस्य परमार्थमसौ पटीयान् ॥ ४४ ॥ स्वीयान्यदीय-समयाध्ययनं विधाय, तत्रोभयत्र परमां पटुतां प्रपद्य । प्रख्यातिमाप्य सकले धरणीतलेऽस्मिन् , सम्यक्त्वमित्थममलं समवीवृधत्सः ॥४५॥ सद्गौरवाऽतिविनय-प्रवितानदक्षो, ज्ञानं च सर्वविषयाऽवगमक्षम हि । लब्ध्वा तदीय-विषय-प्रतिपादनेन, प्राशुशुधच जयदुचलकीर्तिशाली ।। ४६ ॥ आलोचिता च विहिताऽखिल-पातकाऽऽदे, शुद्धव्रती निरतिचार--सुशीलपाली। चारित्र--रत्न--सतताऽधिकशोभमानः, प्रादीपि भूरि सवितेव जगत्यजस्रम् ॥४७॥ निष्काम--बाब-विविधं तप आन्तरं च,
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निःशेष- कर्मदलनाय समारराध । सद्भव्यजीवनिकरं समवृबुधथ, नैशं तमो रविरिवाsहिनदेष मोहम् ॥ ४८ ॥ ज्ञानाऽऽदिकत्रितय-- सत्तपरूपमोक्ष मार्गे च ये सुमनसः सुधियः परस्मिन् । तिष्ठन्ति नित्यममलाः सफलं तदीयं मानुष्यमत्र वरधीरत एव सोऽपि ।। ४९ ।। ( इन्द्रवंशा ) - हग्- ज्ञान - चारित्र - तपोऽतिसंयमान् सन्त्यज्य सर्वा अपि वासना मुदा । आराध्घुमेषोऽतिशय प्रभावकः स्वान्ते दृढं निश्वयमाततान सः ॥ ५० ॥ ( स्रग्धरा ) - साध्वाचारं विचारं सकलमपि दिवारात्रिकृत्यं सुसाधोः, प्रारेभे कर्मकाण्डं विजितविषयिकः सर्वशास्त्राऽवगाही । पञ्चत्रिंशत्समाभिर्निज--परसमयं दत्तचितोऽध्यगीष्ट, भूमी-तर्काऽङ्क--चन्द्रप्रमितं-शरदि सोऽध्यायपूर्ति व्यधत्त ॥ ५१ ॥ ( उपजातिः ) न सोऽस्ति तीर्थो न च सोऽस्ति देशः, यत्राsent नागमदी व्यवर्यः । पुराऽऽदिकं वा न हि विद्यते तत् नापावि यत्तस्य पदाऽम्बुजेन ॥ ५२ ॥ या नामुनापाठि न साsस्ति विद्या शाखं च तन्नैव जगत्यमुष्मिन् । नाऽशिक्षि दर्भाऽग्रधियाऽमुना यत्, मेधाविना सद्गुणशालिना हि ॥ ५३ ॥ नाऽऽलोक्यते सोऽत्र गुणोऽपि लोके, यो नाऽवसत्तत्र महीपुनाने । कलाऽपि शस्ता न हि वीक्ष्यते सा भेजे न या मानवरत्नमेतम् ॥ ५४ ॥ मेधाविपुंसामयमद्वितीयो व्याख्यानशैली समभूदमुष्य । क्लिष्टाऽर्थ-सौगम्यविबोधदक्षा, पीयूषवृष्टेस्तुलनामवाप्ता ॥ ५५ ॥ परिस्फुटार्थाऽधिकमिष्टवाणी, भवाऽऽमयामोषमहौषधिश्च । संसार - कान्तार - जरा -- विपत्ति - दावोपशान्त्यै जलदायमाना ॥ ५६ ॥ प्रश्नोत्तरस्फूर्ति--विशेषशाली, विद्वत्कदम्बाऽधिसभं महिष्ठः । प्रत्युत्तरानुत्तर-शक्ति-हेतु--दृष्टान्त--सद्युक्ति-विरोध-मङ्गः ॥ ५७ ॥ सभाविसंवादिजनैकजेता, महानयज्ञः सदसद्विवेक्ता । विनाऽपि शब्द सकलार्थवक्ता, मितप्रवक्ता रिषुताविमोक्ता ॥ ५८ ॥ पृथ्वीव सर्वेसह एप लोके, शशीव कान्तः कनकप्रभाऽऽभः । निश्शेष-
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श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरि
चरित्रम्
3619
| साद्गुण्य-सुरत्नवार्चि-न हीदृशः कोऽप्यपरोऽस्ति नूनम् ।। ५९ ।। (स्रग्धरा )-भूयांसः सखिर्या विविधपदधराः सन्ति है। द्वितीय:
भूमप्रतिष्ठाः, एकैकस्माद्गुणाऽऽव्या निजनिजगणके मामाना महान्तः । श्रीमगीरप्रभूक्ताऽखिलगुणसहितो नि:स्पृहः सर्ग:। साम्प्रतं हि, वा(आ)भाति वाहशोऽन्यो न हि जगति गुरो! सत्यमेतद्वदामः ॥६॥ (भुजङ्गप्रयातम्)-असौ यत्यवस्थ: समासीत्समानां, नवैव स्वकीयाऽन्यदीयश्रुतानाम् । समध्येतुकामः समाः सप्त तत्र, सदा भावचारित्रपर्यायकस्थः ॥ ६१ ॥
(उपजातिः) चाणोऽन्धि-नन्देन्दुमिते च वर्षे, क्रियोद्धृति नागपुरे चकार । कर्मक्षयार्थ शिवधामलिप्मु-र्नानाविधं दुष्करसत्तपश्च ।। ६२ ॥ अचीकरत्तत्र पुरे हि राय-पुरे प्रधाने सुचिदा वरिष्ठः। चैत्यद्वयस्याऽतिमनोहरस्य, सम्यक प्रतिष्ठामतुलोत्सवेन ॥ ६३ ॥ प्रान्ते च तस्मिश्चरणेन साधो-विहर्तुमासीदतिदुष्करं हि। गुरोः क्रमाऽब्जं श्रयमाण एष, नौज्झत् किलैकं वरधूमयानम् ॥ ६४॥ शशाङ्क-वेदाङ्कमहीमितान्दे, चैत्रे सिते पक्षसमाप्तितिथ्याम् । जाते गुरूणां परलोकवासे, सुदुःसहोऽभूद्गुरुसंवियोगः ॥६५॥ संवेग ऐधिष्ट ततोऽमुकस्य, जगत्स्वरूपं परिपश्यतो हि । विमुक्तमोहस्य जितेन्द्रियस्थ, पक्षे च शुक्ने शशिनः कलेव ।। ६६ ॥ पपात तस्मिन् समये महिष्ठ-कपूरचन्द्रस्य महोपकर्तुः। कपागस्योपरि भूयसी हि, शुभाऽऽशिर्ष चाऽस्य ददौ महात्मा ॥ ६७ ॥ अमुष्य पत्रेण तदेन्दिराऽऽदि-पुरीयसः सकलो गरिष्ठम् । आजूहबच्चाऽऽगमवाचनाय, विज्ञप्तिपत्रैरमुमाप्तकीर्तिम् ॥ ६८॥ (आर्या ) तदवसरे नागपुरे, प्रज्ञापनासूत्रवृर्ति वाचयन् । प्रवचनसारोद्धार-प्रकरणवृत्तिं च सभासीत्सः ॥६९॥ (उपजातिः)-प्रारब्धमेतद्वयमप्यसौ हि, सम्पूर्णमत्रत्यजनानशेषान् । संश्राव्य तस्मादचिरं विहृत्य, बागच्छदिन्दौरपुरी महीयान् ॥७०।। (युग्मम् ) समागतं तं महदग्रगण्यं बेण्डाऽ5- ॥६५॥
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ला दिवाथैः सह भूरिलोकैः । तामिन्दिराऽऽरुयां नगरीमनल्पैः, प्रवेशयामास महोत्सवैः सः ॥ ७१ ।।
(शार्दूलविक्रीडितम् )-तत्राऽऽगत्य जनाऽऽग्रहाद्भगवती प्रज्ञापनाऽऽख्यं वृहद्-वृत्यावश्यकसूत्रमेष वरधीनन्दीपयन्ना| दिकम् । सानन्दं सुचिरं समस्तजनताचेतांसि सन्तोपय-ञ्छीसा समशुश्रवन्मधुरया वाचा सुधातुल्यया ॥ ७२ ॥ एतद्वक्त्र-सुधामयूख-विगलत्पीयूषवाचं जनाः, पायं पायमनारतं श्रुतिपुटैः संसारनिस्तारिकाम् । जन्मव्याधि-जरा-विपत्तिमरण-त्रासाऽपहां सद्धियां, वृप्ति कामपि लेभिरे निजजनुः संमेनिरे सार्थकम् ।। ७३ ॥ मेघाऽऽरावगभीरया स्फुटगिरा पीयूषमाधुर्यया, सद्धोधाऽमृतवर्षिणीं गुरुवरप्रत्याहिकी देशनाम् । श्रावं श्रावमशेषतचमखिलाः प्रावेदिषुश्चाऽऽहतं, श्रीमन्तं जगदद्वितीयविबुधं चैन गुरुं तुष्टुवुः ॥ ७४ ॥ ( उपजातिः )-विहृत्य तस्मादयमाजगाम, तद्राजयुक्तं नगरं जितात्मा । प्रवेशितस्तत्र महोत्सवेन, प्रौढप्रतापः सकलैब परैः ॥ ७५॥ धर्मोपदेशैश्चराशिहारः, पर्याशुभिर्ध्वान्तमिवाऽत्रलोके । प्राघुबुधचाऽऽहतशुद्धधर्म, सई समस्त विजहार तस्मात् ।। ७६ ॥ क्रमेण शत्रुञ्जयतीर्थमेत्य जिनाऽऽदिनाथं प्रभुमालुलोके । स्तुत्वा च नत्वा बहुशोऽतिभक्त्या, भव्यांश्च लोकान् बहुधोपदिश्य ॥ ७७॥ (भुजङ्गप्रयातम् )-ततो रैवताऽसिमायात एष, ननामात्र तीर्थाऽधिनाथं प्रभच्या । ततोऽसावुपेतो महातीर्थेश -श्वरं वीक्ष्य यातः क्रमागोयणीं सः ॥ ७८ ॥
(शार्दूलविक्रीडितम् ) तारङ्गाऽभिधतीथमेष गतवान् ख्यातं महीमण्डले, साधं शिष्यगणैरुदारचरितश्चारित्रपूतीकृतः। विद्याचञ्चुरसावपारमहिमाऽम्भोधिः पतङ्गप्रभो, नत्वा तीर्थपतिं चकार सुचिरं तस्य स्तुति भूरिशः ॥ ७९ ॥
(उपजातिः)-ततोऽगमच्छीविबडोदनाम-पुरं प्रसिद्धं गुणवद्गरिष्ठः । कृत्वा च यात्रां परमर्द्धिलोकैः, सुसत्कृतोऽदाद्वरदेशनां ११
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द्वितीयः सर्गः।
चरित्रम्
॥६६॥
सः ॥ ८० ॥ ततोऽप्यगात्सेमलियाऽभिधानं, ददर्श तीर्थेश्वरमद्भुतं सः । प्रणम्य संस्तुत्य जगत्प्रभु हि, प्रबोधयामास
जनांश्च भव्यान् ॥ ८१ ॥ (विभावरीवृत्तम् )-अवन्तिकापुरीमगादसौ प्रभु-र्ददर्श तीर्थनायक सुभक्तितः। नुनाव रम्य४ा गायनैजिनेश्वर, पुपाव कायमात्मनः सुधीवरः ।। ८२॥ (उपजातिः) ततोऽगमच्छ्रीमकसीप्रभृत्य-नेकांच तीर्थानतिभक्ति
युक्तः । आनम्य तीर्थेशमनेकजन्म-निकाचितैः कर्मदलेरमोचि ।। ८३॥ अगात्तराणामथ कायथाऽऽसयां, विशुद्ध-चारित्रधरोऽतिधीरः । पुरद्वये पौरजनैरशेषैः, प्रावेशि चारूत्सव-संवितानः ।। ८४ ।। (वंशस्थवृत्तम् )-मुधोपमा तत्र ददौ च देशना| मधर्म-सद्धर्मविचार-कारिणीम् । अघौध-वृक्षौष-कुठाररूपिणी--मपार-संसार-समुद्रतारिणीम् ।। ८५ ॥ श्रीमलेवावरतीर्थयात्रा-विधित्सया सङ्घमुपादिदेश । स कायथावासिजनैमिलित्वा, सहर्षमङ्गीकृत एतकस्य ॥ ८६ ॥ ततो वियद्वेदमितैः खभूत- सुश्रावकाऽऽयैः सह सञ्चचाल । कृत्वा धुलेवाऽभिधतीर्थयात्रां, पुरं समागादुदयेन युक्तम् ।। ८७ ॥
( शार्दूलविक्रीडितम् )-तत्राऽकारि महाजनैर्गुरुवरस्याऽमुष्य तेजस्विनो, बेण्डाऽऽदिश्रुतिसौख्यदायिनिनदैः सत्स्वर्णयथ्यादिभिः । शङ्खध्वान-जयारवैश्व मधुरैः सुश्राविकागायनै-रश्वैर्भूषणभूषितैर्नृपभटैः पौरप्रवेशोत्सवः ।। ८८॥
(इन्द्रवत्रा)-संघाऽऽग्रहात्पक्ष-शरार्चन्द्र-वर्षे चतुर्मास-निवासमेषः । शिष्यद्वयी-सेवितपादप-स्तत्राऽकरोनिजिंतवादिन्दः ॥ ८९ ॥ (उपजातिः)-सुधामयीं धार्मिकदेशनां हि, ददजनाना हृदयाऽम्बुजानि । प्रफुल्लयन्नर्क इस प्रकामं, सम्यक्त्ववन्तं सकलं व्यधत्त ॥ ९० ॥ त्रिगुप्तियुक्तः (गुप्तः) समितीव पश्च, दधन्मुनीशो वरखेडवाडे । चैत्यप्रतिष्ठा त्सवेन, चक्रे मनीषी गुणि-गण्यवर्यः ॥९१॥ इत्थं निजाऽऽचार-सुपालनैक-दाढ्य वितन्वञ्जनताः प्रबोधन् (धयन्)। स देसुरी
॥६६॥
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माऽऽर सुमारजेता, सच्छिष्यवगैरवनीं पुनानः ॥९२।। सुसत्कृतः पौरजनैश्च सर्वै--धर्मोपदेशैरमृता यमानैः । प्रबोध्य सर्वानयमाप्तवक्ता, गुणाऽनुरागी परिषत्सुवक्ता ।। ९३॥ (भुजङ्गप्रयातम् )-ततो गोडदेशं समेत्योपदेशे-रसौ नाडलाई-महापत्तनाऽऽदौ । महाजीर्ण-चैत्योद्धतिं संघवगैः, शुभंयुः समाचीकरचारुकीर्तिः ॥ ९४ ॥ ततो बति-भूताऽपृथ्वीमिताऽब्दे, पुरी देसुरीमेत्य संघाऽऽग्रहेण । चतुर्मासवासं द्यकात्सिशिष्यः, समश्रावयत्सर्वसंघ च सूत्रम् ॥ ९५ ।। (इन्द्रवन्ना)-प्रभावनापूजन-सत्तपस्या, गुरावमुष्मिनिवसत्यजस्रम् । प्रवृद्धभावैरखिलाः प्रचक्रुः, सत्स्वामिवात्सल्यमपि बनेकम् ॥ ९६॥ ततो विहृत्याऽऽगतवांश्च योध-पुरे महापत्तन एष धीरः । तत्रत्यसंघः कृतवानपूर्व-पुरप्रवेशोत्सबमेतकस्य ।। ९७ ॥ वेदेषु-रेन्धेक्षितिसंमिताऽब्दे, बह्वाग्रहाचत्र जनस्य चक्रे । प्राट्चतुर्मासमनेकशाखा-ऽकूपार-पारीण उदारबुद्धिः ।। ९८॥
(द्रुतविलंबितम् )-भगवतीवरमूत्रमशुश्रवत् , सकलसंघमसौ सुविदां वरः। जलद-नाद-गभीरतरै रवैः,परमपावनमव्ययधामदम् ॥ ९९ ।। (उपजातिः)-अभूच तत्राधिकधर्मवृद्धि-स्तपोभिरुनियमोपवासैः । आष्टाहिकाऽनेकमहोत्सबाथै-रनाथपंग्वादिक-भूरिदानः ॥ १०॥ अगात्ततो जेसलमेरनाम-पुरीं महर्द्धि सह शिष्यवर्गः। बाणेषु-नन्द-क्षितिहायनेत्र, वर्षतुकालं गमयाश्चकार ।। १०१॥ (शार्दूलविक्रीडितम् ) व्याख्याने जनताऽऽग्रहाद्भगवतीसूत्रं पवित्रं मह-माना-जन्म-समजिंताऽधपटलीहारं श्रुतं प्राणिनाम् । जीमूताऽऽरव-सोदरेण वचसा श्रोतृनसंख्याऽऽगतान , वागीशखिदशानिव प्रतिदिनं प्राशिश्वत्सद्गुरुः ।। १०२॥ (उपजातिः)-उपेयिवानेप ततो विहृत्य, नाम्ना फलोधि नगरं समृद्धम् । संसार-कान्तारजराऽऽदिदुःख-दावोपशान्त्यै जलदः सशिष्यः ।। १०३ ।। समागतस्याऽस्य पुरप्रवेशो, व्यधायि पौरैः सकलैः प्रशस्यः ।
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लाद्वितीयः
सर्गः।
श्रीजिनकृपाचन्द्र-
सूरिचरित्रम् ॥६७॥
सङ्घाऽऽग्रहादङ्ग-शराचन्द्र-सम्वत्सरे प्राकृषि स न्यवात्सीत् ॥१०४॥ (द्रुतविलंबितम् )-भगवतीमखिलाऽऽग्रहतोऽसकौ, प्रतिदिनं समवाचयदत्रकि। मधुरया परया स्फुटया गिरा, घनरवोपमया बहुलाऽथेया ।। १०५ ।। ( उपजातिः)-श्रद्धालव: श्राद्धगणा अशेषा, जाताः प्रबुद्धाः सकलं निशम्य । अगाधपाण्डित्यममुष्य नित्य, प्राशसिषुः सभ्यजनाः समस्ताः।। १०६॥ इतः समागात्सुरविक्रमादि-पुरेऽश्व-भूताङ्कमहीमिताऽब्दे । सन्तस्थिवान् प्रावृषि निष्कषायः, स्थानाङ्गवृत्ति समवाचयत्सः ॥ १०७ ॥ जेतारणे शैलें शर-ग्रहैक-वर्षेऽयमस्थाचतुरश्च मासान् । श्रीसंघबह्वाग्रहकारणेन, धर्माऽम्बुवृष्ट्यै जलदायमानः ॥ १०८ ।। (द्रुतविलंबितम् )-भगवतीमिह सूत्रमवाचयत् सुजनता-विहिताऽऽग्रहहेतुना । उपचकार जनानतिभावुकान्, सकल-शास्त्रमहोदधिपारगः।। १०९॥ (भुजङ्गप्रयातम् )-ततो गौडदेशे लघु-ज्येष्ठपश्च-प्रतीर्थी प्रकुर्वञ्जनान् बोधमानः । जगत्यां कुरीतिं कुबुद्धिं विलुम्पन , सुबुद्धिं ददानः सदा चाऽऽहतानाम् ॥ ११ ॥ (उपजातिः)-आहोर-जालोर-गुडा
पुरेषु, कोरण्टके पावटपत्तनादौ । गत्वा च यात्रां विधिवद्विधाय, शरीर-साफल्यममस्त सद्यः॥ १११ ॥ पापौष-गोत्राऽशदानिरेष लोके, भव्याऽऽत्म-चित्ताऽम्बुज-बोधभानुः । आनन्दनाम्ना मुनिना जयेन, साधं समागाच्छिवगञ्जपुर्याम् ॥ ११२ ॥ * बेण्डाऽऽदिसद्वाद्य-विशेषनादैः, सीमन्तिनीनां मधुरैश्च गीतैः । जयध्वनि ताररवेण कुर्वत्-सुश्रावकैः केतनधारिभिश्च ॥११३।।
इत्थं महाऽऽडम्बरतः समस्त-तत्पौरसंधैरचितोत्सबेन । प्रावेशि तत्राऽखिलसन्मुनीन्द्र-शिरोमणिः श्रीमुनिराज एषः ॥११४॥
(युग्मम) सद्बोधिदायं भव-भीतिवारं, पापौघहारं श्रुतिवृप्तिकारम् । धर्मोपदेशं ददिवान् किलैप, सुधाऽधरीकारमतुच्छबुद्धिः Pा ॥११५ ।। फलोधिपुर्याः फुलचन्दगोले-च्छेत्याख्यकस्याऽऽगमदत्र संघः । तेनैव साधं झगमच्च पद्भिः, सिद्धाचलं शिष्यदलैः
॥६७॥
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सहपः ॥ ११६॥ (मालिनी)-नव-शर-नव-भूमीमानसम्बत्सरेऽसौ, यकृत परमभक्त्या पूर्णिमापा हि चैश्याम । विमलगिरिसुयात्रा प्राप्तहर्षप्रकर्षः, तदनु स हि महवाग्राम-दाठा-तलाजाः ॥ ११७ ॥
(उपजातिः)-आगत्य सर्वत्र विधाय यात्रा, श्रीपादलिप्तं पुनराजगाम । प्रावदचतुर्मासमिहैव कृत्वा, व्याख्यानपीयूषमसौ ववर्ष ॥ ११८॥ (युग्मम् ) ततो विहृत्याऽगमदुजयन्ताऽ-चलं महात्मा शमताऽम्बुराशिः । विलोक्य तीर्थेशमजहषीच, वनस्थलीमापदनन्तरं सः ॥ ११९ ।। तत्रत्ययात्रामयमुञ्चभक्तथा, विधाय चाऽऽर्छरमांगरोलम् । प्रणम्य संस्तुत्य च तीर्थनाथ-मायिष्ट वेरावलपत्तनं सः ।।१२०॥ ददर्श तीर्थेश्वरमाप मोदं, प्रभासयुकपट्टणमाजगाम। विधाय यात्रामयमैबलेचं, ततः समागावर-पोरबन्दरम् ॥ १२१ ॥ तीर्थेशसन्दर्शनतः स्वकार्य, पूत्वा बगाद् भाणवडं पुरं सः। जिनेन्द्रबिम्ब प्रबिलोक्य तत्र, प्रामोमुदीभावितभावनाभिः ॥१२२।। (प्रियंवदा)-अथ स जामनगर समागतः, प्रशम भूषण-सुशोभिताऽऽत्मकः । प्रजित-मोहमदनादिशात्रवः प्रभुवरोऽकृत जिनेशदर्शनम् ॥ १२३ ।। (रथोद्धता)-पोरबन्दरपुरीमसो पुनः, प्राप्तवान् प्रचुरशिष्य-सेवितः । आदृतः सकलपौरवासिभि,-र्भानुमानिव सुतेजसा ज्वलन् ॥१२४ ।। व्योम-तर्क-न-चन्द्रसम्मिते, वत्सरे न्यवसदन साऽऽग्रहः । प्राकृषि प्रथितविद्यकः सको, देशनाऽमृतमपाययञ्जनान् ॥ १२५ ॥ (उपजातिः)-सूत्र च जीवाभिगमाऽभिधानं, जैनानशेषानतिभक्तिभाजः । अश्रावयन्मेष-रवस्य जेत्रा, वेण सूत्रार्थपरिस्फुटेन ।। १२६ ।। सदैव पर्यषण-पर्ववद्धि, प्रावर्तताऽनेकमहोत्सवोत्र । प्रभावना-दीनजनाऽऽदिदान-तपःप्रवृद्धिमहती बभूव ।। १२७॥ गते चतुर्मास इतो विहृत्य, सिद्धाऽचलं रैवतकाऽचलं च । गत्वा सुखेनाऽकृत तत्र यात्रा-मगानवाग्राममितो विहृत्य ॥१२८॥ मही
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द्वितीय सर्गः।
श्रीजिनकृपाचन्द्र
सूरिचरित्रम् ॥६८॥
यसस्तस्य समागतस्य, पुरप्रवेशं महतोत्सबेन । वेण्डाऽऽदिनादैर्चधिरीकृताऽऽशः, सङ्घने बकापर्षीच्छुभभावयुक्तः ॥ १२९ ॥ सद्देशनाभिर्गुरुरत्र लोकान् , भव्याननेकान् प्रतियोध्य तस्मात् । सणोसराग्राममयाम्बभूव, प्रावेशि पौरैमहता महेन ॥१३०॥
(भुजङ्गप्रयातम् )-ततः पालियादं पुरं सञ्जगाम, विनेयैरनेकैः श्रिताचब्जयुग्मः । अकारि प्रवेशः पुरे सर्वपौर-रपूर्वगरिष्ठर्मरेतकस्य ॥ १३१ ॥ ददौ देशना वारिधारासमाना, भवाऽम्भोधिताराः कृताऽधौघहाराः। महाबोधसारा निवारा कुगत्याः , कषायाऽऽदिमारा दयासुप्रचाराः ॥ १३२ ।। (पञ्चचामरम् )-सुदामडापुरीमगादसौ परीषहाऽऽसहः, पुर-प्रधानसजन-प्रवर्तितैर्महोत्सवैः । समस्त-वाय-वादनैर्जयाऽऽरवैश्च सद्भटै-श्चकार धीरधीरयं पुरप्रवेशनं मुदा ॥१३३ ॥ अशेषशास्त्र-सागर-प्रमन्थनैकमन्दर, कुवादि-वृक्षकुञ्जरः प्रमुक्तिमार्गदर्शिनीम् । सुधामयीं सुदेशनामदादनल्पबुद्धिमान् , निपीय तत्कथाऽमृतं प्रबुद्धतां प्रपेदिरे ॥ १३४ ॥ ततो विहृत्य सायलाप्रधानसत्पुरीमगात्, सुपावनः क्षितेस्तलं महाविषविदग्रणीः । प्रमोदिपौर-सजनैर्विरच्य भूरिसूत्सवं, प्रवेशितः पुरीमसौ प्रभाकर-प्रभासुरः ।। १३५ ।। अदायि धर्मदेशनाऽमुना मुशालिना गुणे-टुंतप्रबोधकारिणी भवाब्धिपोतरूपिणी । पयोधर-प्रणादजिगिरा विशालपर्षदि, निशम्य सर्वसजना बभूवुरस्य रागिणः ।। १३६ ॥
(उपजातिः )-थानाऽभिधानं नगरं ततोऽगात् , संघः समेतं विपुलोत्सवेन । प्रवेशयामास पुरं स्वकीय, महान्तमेनं गुरुदेववर्यम् ।। १३७ ।। शशीव सौम्यो गुरुरप्यमुस्मिन् , व्याख्यानपीयूपमलम्प्रवृष्य । अदीधपदव्यजनानशेपान्, प्रावीविदचाऽऽर्हतधर्मसारम् ॥ १३८ । (शार्दूलविक्रीडितम )-वांकानेरमुपाययौ गुरुवरः प्रख्यातिमजूतले, बेण्डाद्याङ्गलबादनैरुप
॥ ६८॥
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गतं विद्यावतामादिमम् । अत्युचर्जनताकृतैर्जयस्वैस्तुङ्गैरनेकैर्वजैः, श्रीसंघो गुरुराजमेनमनघं प्रावेशयत्स्वम्पुरम् ॥ १३९ ।।
(वसन्ततिलका)-आनन्दयन् सकलसंघमयं महात्मा, धर्मोपदेशमददाबहुलार्थसारम् । संथुत्य सर्वजनता मुदिता भवन्ती, त्यागाऽऽदिनकनियम जगृहे तदानीम् ।। १४० ॥ (उपजातिः)-ततः क्रमादायत मोरबी स, श्रीसंघ एतं प्रचुरोत्सबेन । प्रावीविशत्वं पुरमादरेण, गुर्वागमेनाऽतिमुदं दधानः ॥१४१॥ (इन्द्रवंशा)-ओजस्विनीमेप ददौ सुदेशनां, सर्वस्य हृयाऽऽखिल-बहनच्छिदाम् । दुपार-संसार-समुद्रतारिणी, संश्रुत्य सम्यक्त्वमयुध सजनाः ।। १४२ ।।।
(भुजङ्गप्रयातम)--रणं मालिकायाः समुल्लकच कच्छ, पुरेऽञ्जारके यातवानेप धीरा। ददर्शाशु भद्रेश्वरस्थ जिनेन्द्र, निजं जन्म धन्यं स मेने तपस्वी ।। १४३ ।। इतः कच्छमुन्द्रामयासीत्सशिष्यो, नदद्वेण्टु-शताऽऽदिकध्वान-गीतः। पुरीयप्रवेशे ततं सूत्सवं हि, प्रचक्रेऽस्य संघस्ततस्त्यः समस्तः ॥ १४४।। (उपजाति:)-मही-सोऽङ्क-वितिसम्मिताऽब्दे, वर्षर्तवासं जनताऽऽग्रहेण । सच्छिष्यपन्देः परिजुष्यमाण-श्रके महीयामड़तपारचा ।। १४५ ।। अत्रोत्तराऽऽद्यध्ययनश सूत्र, सभाऽऽसनाऽऽसीन-विलीनरागः । जीमूतनादाऽतिगभीरवाचा, संश्रावयामास जनानशेषान् ॥ १४६ ।। ततोऽगमत्कच्छभुज विहृत्य, बुपस्थितं तं नगरोपसीमम् । वेण्डाऽऽदिवायैः सह सर्वसंघः, प्रवेशयामास पुरं प्रहृष्टः ।। १४७ ॥ नेत्राऽङ्गानन्देन्दुमिते च वर्षे, पौराऽऽग्रहात्प्रावृपि तत्र तस्थौ । जोजुष्यमाणक्रमपङ्कजोऽसौ, शान्तस्वभावो यमिनां वरिष्ठः ॥ १४८ ॥
(मनोरमा)-भगवतीमिहाऽसको गुरुः, सुजनताऽऽग्रहादयाचयत् । घन-खाऽनुकारिवाचया, मधुरया सुधासमानया ॥ १४९ ॥ ( इन्द्रवंशा)-कच्छीयरम्यामथ माण्डवीपुरी, सम्प्राप शिष्यः सहितो महान् गुरुः । प्रावेशि
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द्वितीया सर्गः।
श्रीजिनकृपाचन्द्र-
सूरिचरित्रम्
॥६९।।
पौरैरधिकोत्सवेन स, रामर्तु-रन्ध्र-क्षितिमानवत्सरे ॥ १५०॥ चक्रे चतुर्मासमिहाऽऽग्रहानुणां, प्राशिश्रवत्प्रज्ञपनाऽऽख्यसूत्रकम् । तच्छ्रोतुमाजग्मुरसंख्यका जना, धर्मप्रवृद्धिमहती बजायत ॥ १५१ ।। अनूपदेशे भिदडाऽभिधानं, पुरं जगामैष | सहाऽऽत्मशिष्यः । वितत्य भूयुत्सवमेतमेनं, प्रवेशयामास समस्तपौरः ॥ १५२ ।। श्रीमन्तमागृह्य समस्तसंघा, समुद्र-तर्कग्रह-भूमिवर्षे । अतिष्ठिपत्प्रावृषि संनिवस्तु, प्रौढप्रतापात्तपनायमानम् ॥ १५३ ।। (द्रुतविलंबितम् )-भगवतीवरसूत्रमशुश्रव-दगणिताऽऽगत सञ्जनमण्डलीम् । प्रमुदमाप निशम्य जनोऽखिलो, गुरुममुं प्रशशंस दिवानिशम् ॥ १५४ ॥
(उपजाति: )-कच्छीयमञ्जारपुरं ततोऽसौ, पनीपदामास विशालबुद्धिः। बेण्डाऽऽदिवाद्यैर्महिमानमस्य, गायश्च पौर: पुरमानिनाय ।। १५५ ।। अत्याग्रहाद्भूत-रसाङ्कपृथ्वी-प्रमाणवर्षे चतुरश्च मासान् । तस्थौ च तस्मिन् सह शिष्यजातैः, स उत्तराऽऽद्यध्यनं जगाद ।।१५६।। (द्रुतविलंधितम् )-अभवदेषु पुरेष्वपि पश्चसु, प्रतिसमं युपधानमहातपः। क्रमिकमस्य गुरोरुपदेशतो, विविधजन्मकृताऽध-विघातकम् ।। १५७ ।। (जलोद्वतगतिः )-अगाच्च सुथरीपुरीमभयदः, सतां प्रभुमुदीक्ष्य नष्टकलुपः । असावनलसन्निभः सुतपसा, प्रबोध्य जनता(ता) ततो विहृतवान् ॥१५८।। (उपजातिः)-घृताऽऽदिकल्लोलसुतीर्थमागात् , प्रैक्षिष्ट तीर्थेशमुदारभक्या । ततो जखाऊनगरीमुपेत्य, व्यालोकताऽसौ जिनराजबिम्बम् ॥ १५९ ।। ततो नलीयापुरमाययौ हि, तत्रस्थतीर्थेशमपश्यदेषः। विहृत्य तस्मादयमाजगाम, तेरापुरी तीर्थपति ननाम ॥ १६० । कोठारपुर्यादिकभूरितीथे--यात्रां प्रकुर्वन् दश साधुसाध्वीः । प्रदीक्षयामास जगद्धितषी, देशे बनूपे बिहरनजस्रम् ॥ १६१॥
(शार्दूलविक्रीडितम्)--वर्षे बाण-रसाऽङ्कचन्द्रतुलिते कच्छीयसन्माण्डवी-वासि-श्रेष्ठिगणाऽग्रगण्य-बजपालाङ्गप्रजन्मा
॥६९॥
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कृती । नाथाभाइसुनामकः शुभमतिः सिद्धाऽद्रियात्राचिकीः, श्रीसचं निरजीगमदहुमुदा षड्रीपमुचैस्तरम् ।। १६२ ।।
( उपजाति: )--तेनैव सत्रा व्यचलत्किलाऽसौ, तुरङ्गादिङ्मानमुनिप्रयुक्तः । शत्रुञ्जयं तीर्थमुदीक्षितुं हि, विशुद्धचारित्रपवित्रदेहः ।। १६३ ॥ श्रीपादलिप्ने नगरे महीयान्, तर्काऽङ्गरन्ध्रक्षितिमानवर्षे । तस्थौ च तस्मिन्महताऽऽग्रहेण, पयोदकालं व्यपनेतुकामः ॥ १६४ ।। नन्दीश्वरद्वीपमरीरचच, श्रद्धालुकः संघजनः समुत्कः । द्विसाधुसाध्वीत्रयदीक्षणं च, महामहेनाऽभवदत्र पुर्याम् ।। १६५ ।। ( रथोद्धता )-उज्जयन्तगिरिमाययौ ततः, शिष्यवृन्दकलितः क्षमान्चितः। तीर्थनाथमवलोक्य हर्षित-चैच जामनगरं कृपान्वितः ॥१६६।। आगतो गुरुवरो मुदान्वितः, सर्वसंघरचितैर्महोत्सवैः । प्राविशत्पुरमथाऽऽग्रहास्थितः, प्रावृपं गमयितुं मुनीश्वरः ।। १६७॥ (प्रियम्बदा)--हय-रस-ग्रह-धरामिताब्दके, भगवतीमिह जनाऽनुरोधतः। जलद-नादसमया सुवाचया, सदसि सर्वजनतामशुश्रवत् ॥१६८।। (भद्रिका)-समवसरणमत्र सुन्दरं, व्यरचि सदुपधान-मप्य भूत् । विविध-रुचिर-सूत्सवोऽभवत्, परमगुरुवरोपदेशतः ॥१६९।। ( वंशस्थम्)-प्रभावना नित्यमपूर्ववस्तुभि-रकारि पूजा विविधोपचारतः । तपांसि भूयांसि बभूवुरत्र हि, ददौ चतुभ्यों गुरुरेष दीक्षणम् ॥१७०॥ ( भद्रिका ) तदनु स हि जगाम मोरवीं, विविध-सुजनकारितोत्सवः। पुरमविशदयं महातपाः, स्व-पर-निगमपारगो महान् ।।१७१।। (रथोद्धता)-शैल-तकेनवचन्द्रवत्सरे, प्राकृपेण्यवसताववाचयत् । आग्रहाद्भगवतीमसौ गुरु:, पाययंत्र सुजनान् कथाऽमृतम् ॥१७२।। (तोटकम्)--तत एष सुरैवतशैलवरं, सहशिष्य उपेत्य ददर्श जिनम् । विमलाऽचलतीर्थमगच्छदितः, प्रणनाम जिनेश्वरमादिविभुम् ।। १७३ ।।
( उपजातिः)-शद्धेश्वरश्रीप्रभुपार्श्वनाथं, ननाम गत्वा स हि भोयणीं च । विहृत्य तस्मादयमाजगाम, राजाऽऽदिकं
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द्वितीय सर्गः।
श्रीजिनकृपाचन्द्र
सरिचरित्रम् ॥७०॥
तनगर प्रशस्तम् ।। १७४ ।। (इन्द्रवंशा)-नानद्यमानैर्वरखेण्डकाऽऽदिमिः, श्रीसंघकाऽऽरन्धमनोहरोल्सवैः । सुश्रावकाऽशेष-महर्द्धिकेभ्यकै विन्धमानः पुरमाविवेश सः ॥ १७५ ॥ नवाङ्गनन्द-क्षितितुल्यवर्षे, वर्षतुवासं विपुलाऽऽग्रहात्सः । कोठारिपोल-स्थित-नव्यकोपा-श्रये बकार्षीत्सह शिष्यवगैः ॥ १७६ ॥ सुधाऽधरीकारिमहोपदेशै-र्भवाब्धितारैरघराशिहारैः । श्रीसंघमत्यन्तमसौ प्रतणे, प्रादिद्युतच्छासनमाहतं सः॥ १७७ ॥ ततो ययौ पानसरं सशिष्यः, पौरैध सर्वैरतिसत्कृतोऽभूत् । प्रबोधयामास जनांच तत्राऽ-मोघोपदेशैः सकलार्थसारैः ॥ १७८ ।। स भोयणीपत्तनमेत्य चक्रे, शकेश-पार्श्वप्रभुदर्शनं च । सञ्चकुरेतं पुरवासिनश्च, श्रद्धालवः श्राद्धगणा अपीह ।। १७९ ।। (वैश्वदेवी)-तारङ्गातीर्थ सङ्गतोऽसौ महात्मा, वन्दित्वा भक्त्या संस्कृतोक्त्या जिनेन्द्रम् । दचा भव्यानां सम्प्रबोधं यथेष्टं, दीनानाथत्राता विजहे च तस्मात् ।। १८०॥
(वसन्ततिलका)-वीसाऽऽदिकं नगरमागतवान् क्रमासः, श्रीसंघ-रम्य-रचितोत्सवमीक्षमाणः । पुर्यां प्रवेशमकरोदनिलप्रभोऽसौ, धर्मोपदेशममृतं सकलालपिष्यत् ॥ १८१ ॥ ( प्रमुदितवदना )-वडनगरमितो विहृत्याऽगमत् , पुरजनरचितोत्सवैरुज्वलैः । अविशदयमनल्पधीस्तत्पुरं, जलद-ख-गिरा ददौ देशनाम् ॥ १८२ ।। (उपजातिः)-पथि क्रमादागतांस्ततोऽयं, नाम्ना च लादोलपुरं गरीयान् । प्रवेशितः स्वम्पुरमादरेण, संधैरशेष रचितोत्सवेन ।। १८३ ।। संसारविस्तारहरीमघौघ-बिद्राविणी धार्मिकदेशनां च । प्रदाय सर्वान् भविकानतीत, सत्यप्रवक्ता भवबार्द्धितारी ।। १८४ ॥
(आख्यानकी)--इयाय वीजापुरमेष तस्मात् , कृत्वा विहारं सुधियश्च पौराः । वादित्रवृन्दैनगरप्रवेश-मकारयंस्तेन * महीयसा हि ।। १८५) ( उपजातिः)-जीमूतनादानुकृता स्वरेण, श्रीवीतरागोदित-शुद्धधर्मान् । स्वर्गाऽपवर्ग-प्रतिपत्ति
॥ ७० ॥
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हा हेतून् , उपादिशत्तत्र जनानुपेतान् ॥ १८६॥ ततः समेतः पुरि मानसायां, गुर्वागमादृष्टतराच लोकाः । बेण्डाss
दिवायैर्बहुभिध पौर-रानिन्यिरे तं नगराऽन्तरेतम् ॥ १८७ ॥ (इन्द्रवंशा)-तद्वक्त्र-चन्द्रच्युत देशनाऽमृत, कामं च सम्पीय समस्त-सजनाः । निःसीमकाऽऽनन्दपयोनिधौ तदा, मनाः स्वकीय सकलं विसस्मरुः ॥ १८८॥
(इन्द्रवत्रा)-शेश्रीयमाणः क्रमपमयुग्मो, लोकरशेषैर्गतमोहपङ्कः । पीथापुरं सागरं प्रपेदे, कुर्वन् विहारं गुरुराज एपः ॥ १८९ ।। (उपजातिः)-समागत सीमनि पत्तनस्य, निशम्य तत्रत्यसमस्तपौरः। सद्वाद्य-गीतैर्जय-तार-नादैः, साम्मुख्यमागत्य पुरं निनाय ।। १९० ॥ ( वंशस्थम् )-अदायि तेनाऽत्र विशेपदेशना, प्रभावनाऽर्चातपसां विवर्द्धनम् । प्रलेभिरे तत्वमशेषमाईतं, प्रभावुकाः श्राद्धगणा विचक्षणाः ॥ १९१ ॥ ( उपजातिः )-देगाँवसंज्ञं नगरं ततोऽगात् , प्रावेशयत्तत्र पुरं च संघः। वितत्य बेण्डाऽऽदिकवाद्यजातै-महामहं गौरवभक्तिनिष्ठः ।। १९२ ॥ व्याख्यानमोजस्वि ददौ च तत्र, स्याद्वाद-पीयूष-मशेषलोकान् । अदीधपद्भानुरिवान्धकार-मज्ञानमेषां समनीनशश्च ॥ १९३ ॥
(द्रुतविलंबितम् )-कपडवञ्जपुरं समुपागतः, सकलसंघजनैरतिसत्कृतः। उपदिदेश विशुद्ध-जिनोदित, शिवसुखप्रदVI धर्ममहिंसनम् ॥ १९४ ।। ( उपजाति:)-ततोऽसकावागतवान् महूधा, प्रवेशितो भूरिमहोत्सवैः सः । प्रबोधयामास जनांव | भव्यान्, विहृत्य तस्मादगमच्च खेडाम् ॥ १९५॥ महामहेनाऽखिलपौरलोकः, समागतं तं नगरं सुसञ्जम् । प्रावेशयत् सोऽपि सुदेशनामिः, सुधोपमाभिः सकलानतीत् ॥ १९६ ॥ (भुजङ्गप्रयातम् )-ततो मातराऽऽख्यं पुरश्चाऽऽजगाम, ददर्श प्रभक्त्या स सचाऽऽदिदेवम् । विनेयैः समग्रैर्युतस्तं नुनाव, चिरं रम्यपधैर्मृदुश्लोकपुजैः ।। १९७ ॥
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श्रीजिन
कृपाचन्द्र
सूरिचरित्रम् || 192 ||
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( उपजातिः ) - ततो गतः स्तम्भनपत्तनेऽसौ श्रीपार्श्वनाथप्रभुमूर्तिमुग्राम् । व्यलोकताऽसीमसुभक्तिचित्तः, तुष्टाव चैनं ललितैश्च पद्यैः ।। १९८ ।। (इन्द्रवजा ) – इत्थं विहारक्रमतः समागात्, सिद्धाऽद्रियात्रां सुचिकीर्षमाणः । व्योमाश्वनन्देन्दुमिते 'चें' वर्षे, तीर्थेशमालोक्य मुदं बभार ॥। १९९ ।। तत्राऽऽगता सा रतलामवासि - श्री चान्द मल्लाssख्यमहेभ्यपत्नी । आगृह्य नाना फुलकुमरी त मतिष्ठिपत् प्रावृषि संनिवस्तुम् ॥ २०० ॥ ( शार्दूलविक्रीडितम् ) - माहाम्यं विमलाचलीयमसको व्याचष्ट विद्याचण - स्तस्याश्चैव महाऽऽग्रहाद्भगवती सूत्रं महापावनम् । सानन्दं पधानमत्र समभूत्पूजा प्रशस्या बहुः, वात्सल्यं सहधर्मिणां बहुविधं जातं तदीयं महत् ॥ २०२ ॥ ( उपजाति: ) - प्रभावना श्रीफलशर्कराऽऽद्यैः, सद्धर्मवत्या विदधे सदैव । दीनाऽनुकम्पा बहुशस्तयाज्ञ, व्यतानि नित्यं तप आचरन्त्या || २०२ ।। सीहोरमार प्रभुरेष धीरः, पौरैरशेषैर्वहुसस्कृतोऽभूत् । सुधोपमं सोऽथ ददौ च धर्मोपदेशमागाद्वरतेजपुर्याम् ॥ २०३ ॥ सम्मेनिरे तत्र सुविज्ञपौरा, उपादिशच्चाऽऽर्हतशुद्धधर्मम् । ववन्दिरे सर्वजना अथैनं स भावयुक्तं नगरं ततोऽगात् ॥ २०४ ॥ पुरं प्रविष्टो रुचिरोत्सवेन, पापाऽद्रिवज्रां भवदुःखहारीम् । सुदेशनां सद्गुरुरत्र दवा, बहूपचक्रे सुजनाननीहः ॥ २०५ ॥ घोघापुरीमागतवांस्ततोऽसौ ततान तत्रत्य- समस्त पौरः । पुरप्रवेशाय महं गुरुणां, व्याख्यानमोजस्वि ददौ स जिष्णुः ॥ २०६ ॥ ( तोटकम् ) - तणहामगमत्सकलर्द्धिमतीं, सुपुरीमथ संघकृतैः सुमहैः । प्रविवेश मुदा ददिवानसुकः, शिवसौख्यददं ह्युपदेशमलम् || २०७ || ( भुजङ्गप्रयातम् ) - इतस्तापसग्राममायात एप, समारब्ध - नानाविचित्रोत्सबैः सः । तदन्तःप्रविष्टः पयोदस्वनेन, व्यदत्तोपदेशं भवाऽब्धि - प्रतारम् ॥ २०८ ॥ तलाजामयासीदितः श्रीमुनीन्द्रः, पुराऽशेष-लोक
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द्वितीयः सर्गः ।
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प्रवृत्तोत्सवौधैः। अविक्षत्तदन्तः सुधोद्गारिवाचा, ददौ देशनां श्रोत्रपीयूषधाराम् ॥ २०९ ॥ इतो जामवाडीपुरीमाससाद, भृशं सत्कृतः पौरलोकरशेषैः । उपादेशि तत्राऽमुना शुद्धधर्मः, सुरेन्द्राऽऽदिलोकप्रदायी नराणाम् ।। २१०॥
(उपजातिः)-इतश्च शत्रुञ्जयतीर्थयात्रा, कृत्वा समामात्पुरवल्लभी सः। साच्याश्च दीक्षामिह सम्प्रदाय, खम्भातनाम्नी नगरीमयासीत् ।।२१।। (शार्दूलविक्रीडितम् )-रत्नाऽऽदिक्रय-विक्रयी भगुसुतः पानाऽभिधः श्रेष्ठिराद, आगात् सूर्यपुरादमु निजपुरं शीघ्र निनीपुर्महान् । विज्ञप्ति महतीं चकार वरधीस्तत्राऽऽशु गन्तुं गुरोः, शीघं श्रीगुरुभिर्व्यहारि सकलैः शिष्यैश्च तस्यां दिशि ।। २१२ ।। (उपजातिः )--बटोदरं सत्पुरमेत्य तत्र, लोकांश्च भव्यानुपदिश्य धर्मम् । पालेजमागत्य जिनोरपुर्या, सत्रा च शिष्यैः समुपागतोऽभूत् ।। २१३ ।। (दुतविलंबितम् )-जगडियाऽभिध-सत्पुरमाययौ, बकत तीर्थपतेरवलोकनम् । पथि मुमुक्षुजनं समदीक्षयत् , उपगतः स हि सूर्यपुरं गुरुः ।। २१४ ।। ( वसन्ततिलका)-नानयमान-पटहाऽऽदिकवाद्यवृन्दैः, शङ्खान् धमद्भिरपरैर्जयमुच्चरद्भिः। सौवर्णयष्टि-वरकेतनधारिपुम्भिः, सुश्राविका-सलयगीतरवैश्व हथैः ।। २१५ ॥ श्रीसङ्घनिर्मितमहामहमीक्षमाणः, पोपूज्यमानचरणः प्रतिसा तत्र । अन्तः प्रविश्य सह शिष्यगणैरुदारो, गोपीपुरानव उपाश्रय एत्य तस्थौ ।। २१६ ॥ संघाऽऽग्रहेण शशि-वाजि-नवेन्दुवर्षे, वर्षर्तुवासमकरोत्समवाचयच्च । श्रीनन्दिसत्रमखिलाऽऽगमसारदर्शी, चैकस्य तत्र दददे गुरुरेष दीक्षाम् ॥२१७॥ (भुजङ्गप्रयातम् )-चतुर्मासपश्चाद्विहत्याऽऽगमत्स, कतारं प्रसिद्धं पुरं तत्र लोकैः कृता सत्कृर्ति चोररीकृत्य भूरि, ददौ चोपदेश महान्तं जनानाम् ।। २१८ । (उपजातिः)-मार्गस्थितानेककठोरकाऽऽदि-पुराणि गत्वा प्रतिबोध्य लोकान् । सद्बोधिबीजं ददिवान्महीयान्, प्रहापयन्मोहमशेषमेषाम् ।। २१९ ।।
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Gyanmar
राद्वितीय
सर्गः।
श्रीजिनकपाचन्द्र
सरिचरित्रम्
SAISAX**
॥७२॥
FACACHAR
(द्रुतविलम्बितम् )-जगडियामथ शिष्यदलैः सम, समधिगम्य जिनेशमलोकत । विहरमाण इतः पुरमाण्डवी-मुपगतः प्रतिबोधमदानृणाम् ॥ २२० ।।( तोटकम् )--भृगुकच्छपुरीमयमागतवान् , प्रविलोकितवानिह तीर्थपतिम् । अभवच्च विशुद्धमतिर्मुदभा-गयमुज्वल-शीलचरित्रधरः ॥ २२१ ॥ (उपजातिः)-ततश्चलनेष समाजगाम, पालेजपुर्यामवनी पुनानः । बावन्द्यमानः सकलैश्व पौर-ख्यिानमत्राऽददताऽतिरम्यम् ॥ २२२।। आमोद-जम्बूसरपचनेऽगात्, पुरद्वयेऽशेषजनैरवन्दि । धर्मोपदेशाऽमृतपायनेन, सन्तर्पयामास जनानशेषान् ।। २२३ ॥ आयिष्ट गन्धारपुरं ततोऽसौ, बेण्डाऽऽदिवाद्यैर्नेगरी प्रविश्य । प्रदत्तवान् धार्मिकदेशनांस, प्राबोधि तचं जनता बशेषा ।।२२४॥ कावीस्थसत्तीर्थमुपेत्य यात्रां, विधाय चागात्पुरि पादरायाम्। वितत्य रम्योत्सवमेनमन्तः, प्रावेशयत्संघजनोऽतिहृष्टः।। २२५॥ (बंशस्थवृत्तम्)-सुधामयीमस्य सुदेशनामलं, घसार-संसारविरागकारिणीम् । मुनीन्द्रदुम्प्रापविमुक्तिहारिणी, प्रशंसयामास निशम्य सद्गुरुम् ॥ २२६ ॥ (पश्चचामरम् )--दरापराभिधां पुरीमसावियाय शिष्ययुक, समागतं पुराबहिर्गुरुं हम पुरीजनः । महानकाऽऽदिवादन-स्वनैर्जयोचरावकै-रवीविशत्पुरान्तरं सुतोरणाऽऽदिसञ्जितम् ॥ २२७ ॥ ददावसौ सुदेशनां घनाऽऽरवोपमस्वन-रिहाऽऽगतं गुरुं ज्वरस्तमाशु गाढमग्रहीत् । अतो विहर्तुमक्षमः कियदिनानि तस्थिवान्, अचीकरद्भिपग्वरैस्तदौषधं महाजनः ॥ २२८ ॥ (शार्दूलविक्रीडितम् )-शास्त्रार्थस्य चिकीरदादिह तदा पछ्यासशाली सक, आनन्दाऽऽदिकसागरस्तदवर्षि पौषी परां पूर्णिमाम् । एतस्मात्तदवस्थ एष चलितः श्रीमडोदापुरः, पश्चक्रोशविद्रवर्तिनगरीमागत्य तस्थौ गुरुः ।। २२९ ॥
( उपजातिः )-शास्त्रार्थ-पाम-व्यथितस्य तस्या-ऽऽनन्दोदघेरागमनप्रतीक्षाम् । कुवर्न स्थितस्तत्र समस्तवादि
॥७२॥
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Ka
u n Gyanmand
द्विपेन्द्रपश्चानन एष सोत्कः ॥ २३० । भ्रष्टप्रतिज्ञो वितथाऽभिमानी, नैवाऽऽगतस्तत्र दिने च तस्मिन् । क्रोष्टेव विभ्यद्धरितो न जाने, कस्मित्ररण्ये प्रविलीय तस्थौ ।। २३१ ।। गतेऽवधौ नोपगते च तस्मि-श्रीमान् गुरुपैयगणाऽऽग्रहेण । ततो विहत्याऽऽगतवान् बडोदा, शरीरनैरुज्यविधातुकामः ॥ २३२ ॥ चिकित्सकास्तत्र वरेण्यमेनं मासैखिभी रोगविमुक्तकायम् । सदौषधीभिर्व्यदधुर्महान्त, ऐच्छचतो मोहमयीं प्रयातुम् ।। २३३ ।। (शार्दूलविक्रीडितम् )-इत्याचार्यशिरोमणेर्जिन कृपाचन्द्रस्य सूरीशितुः, सूरिश्रीजयसागरेण रचिते काव्ये चरित्राऽऽत्मके । सामान्यबति-नैकपत्तनकृत-ग्लो-बाजिसंख्याऽन्वितचातुर्मास-सुवर्णनः समभवत्सर्गो द्वितीयोऽप्यसौ ।। २३४ ॥
॥ इति द्वितीयः सर्गः।। (अथ तृतीयः सर्गः )
( उपजातिः) अथाऽसको माधवरम्यमासे, वटोदरात्सनगराद्विहुत्य । विनेयवृन्दैर्जगदेकजिष्णु-ईभोइसंज्ञं नगरं समा-13 गात् ।। १॥ वादिन्दर्जयरावकारि-सुधावकौघैः प्रणदत्सुशकैः । पुरं प्रविश्याऽखिललोकमान्यो, धर्मोपदेश ददिवाञ्जनानाम् ॥ २॥ सीनोरमागत्य ततो विहृत्य, प्रवेशितश्चारुकृतोत्सवेन । वारीव मेघो जनतोपकृत्यै, व्याख्यानधारा सुचिरं ववर्ष ॥ ३॥ (द्रुतविलंबितम् )--जगडियानगरीमयमीयिवा-नुपदिदेश जिनेशनिरूपितम् । परमधर्ममहिंसनलक्षण, सकल
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श्रीजिन- G
तृतीयः
सर्गः।
कृपाचन्द्र
सरिचरित्रम् ॥७३॥
KARCHANAKALASS
सौख्यसुनायकमुज्ज्वलम् ॥ ४ ॥ तदनु सूर्यपुरं परमर्द्धिक, धुपगतः पुरवासिजनार्चितः । अदित शाश्वतधर्मसुदेशनां, विविध-जन्म-महागदहारिणीम् ।। ५॥ विहरमाण इतो नवसारिका, शुभपुरीमसदत्करुणालयः । सकल-पौरिकसजनसस्कृतो, भवनिवारकधर्ममुपादिशत् ॥ ६ ॥ (शालिनी) चिल्लीमोरापत्तनं चापि गत्वा, लोकैः सर्वैश्वारुसत्कारमाप्तः । धर्माऽधौं तत्फलं चोपदिश्य, भव्याल्लोकान् रञ्जयामास धीरः ॥ ७॥ ( तोटकम् )--वरसाइपुरी सह शिष्यगणेरुपयात इतो विहरनसुकः । परमाऽऽदरमाप्य कृतं सुजनैः, शिवमार्गमदीदृशदेप जनान् ॥ ८॥ (वसन्ततिलका )-- वापीमितः परिययौ विबुधाग्रगन्ता, पौराः समेतगुरुराजममुं प्रहृष्टाः। बेण्डादिवाद्यनिनदैरनयन् पुरांन्त-श्रारूपदेशमददादयमप्यभिज्ञः ॥९॥ (इन्द्रवत्रा)-श्रीग्राममस्माद्विहरन्नुपेतः, पौरबजैर्विहितमुत्सवमेष पश्यन् । कृत्वा प्रवेशमददिष्ट महोपदेशं, लोकाः प्रसेदुरधिकं विविदुश्च धर्मम् ॥१०॥ (नन्दिनी)--समगादितः प्रथितदेणुसंज्ञक, सुपुरं समं निजसुशिष्यमण्डलैः । विपुलोत्सवैः सकलसंघनिर्मितः, समविक्षदेष ददिवांश्च देशनाम् ॥११॥ (उपजातिः)--अगादगासीनगरीमथाऽसौ, पौराश्च निन्युनगराऽन्तरेनम् । वाद्यैश्च गीतैर्जय-तारनादै-रुपादिशचैष जिनोक्तधर्मम् ॥ १२ ॥ अथाऽऽयताऽसौ नगरं भयण्डरं, प्रावेश्यताऽशेषजनमहेन । अदायि चानेन महोपदेशः प्रामोमुदीतेन समस्तपौरः ॥ १३ ।। (प्रहर्पिणी)--अन्धेरीनगरमुपागते च तस्मिन् , सत्पौरा विविधमहोत्सवं वितेनुः। आनिन्युर्दिनमणिभासुरं विभासा, व्याख्यानं रुचिरमदात्स बोधिदायम् ॥ १४ ॥ (इन्द्रवंशा)-माहीसमागत्य पुरं ततोऽसकौ, भव्यांश्च जीवान् प्रतिबोध्य सद्गुरुः । मुम्बापुरीभायखलामुपाययौ, शिष्यैर्गरिदैः परिजुष्टपत्कजः ।। १५ ।। (उपजातिः )--इतो महेभ्याः सकलाः समेत्य, बेण्डाऽऽदिवाद्यैर्जयमुचरन्तः ।
॥७३॥
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सौवर्णयष्टि-ध्वज - शङ्खनादैः, सुश्राविकामण्डल - हारिगीतैः ॥ १६ ॥ श्राद्धैरसंख्यैर्गुरुराजमेनं, स्वानीय मुम्बापुरि लालबागम् । सुसजितं तोरणबन्धनाद्यैः, प्रावीविशंश्चारुमहामहेन || १७|| प्रमध्यमानाऽर्णव- निस्वनाऽनु-कार्या गिरा प्रावृषि मेघवत्सः। सद्देशना-सौध-रस-प्रधारां, प्रवृष्य पिप्राय च सर्वसङ्घम् ॥ १८ ॥ सहेतुकं तत्र गुण-द्वि-सप्त- नवेन्दुवर्षे जनताऽऽग्रहात्सः । वर्षर्तुकालं गमयाञ्चकार, साधव्य-निश्शेप-गुण- प्रशोभः ॥ १९ ॥ ( वैतालीयम् ) - - भगवती मशिश्रवगुरुः, सह वृया जनताऽऽग्रहादयम् । वारिवाहगर्जितोपमै निस्वनैः सुमधुरैः स्फुटार्थकैः ।। २० ।। ( मालती ) - अभयकुमारचरित्रमुत्तमं विविधकथारससुन्दरं वरम्। अचकथदेव सुपावनो गुरु-मधुमधुराऽक्षरया गिरा मुदा ॥ २१॥ (उपजातिः ) -- मनोरमाssesभिरामं पुण्यप्रदं पाण्डवसच्चरित्रम् । स वाचयाचक उदारकीर्ति - रानन्दयन् सर्वजनस्य चित्तम् ॥ २२ ॥
(इन्द्र) - चन्द्राचकोरा इव सद्गुरूणामेषां शरत्पार्वणचन्द्रजेतुः । वक्त्रात्क्षरद्धर्म्यकथामृतानि, सुश्रावकाः स्वैरमलं निपीय || २३ || ते तत्क्षणं प्राच्यगरिष्ठसूरि-मस्मार्षुरानन्द पयोधिमग्नाः । ततस्त्विहत्यः परिमृश्य संघः क्रमाऽऽगताssनायिकशुद्धरीत्या || २४ || विद्यासमुद्राय गुणाऽऽलयाय, तेजोभिरस्मै तपनप्रभाय । दातुं तदाऽऽचार्यपदं चकाङ्क्ष, ततान चैतन्महमुज्वलं सः || २५ || ( त्रिभिर्विशेषकम् ) मासे च पौषे तिथि पूर्णिमायां, नफ्रे शुभानेकखगग्रदृष्टे । सत्पुष्यतारे शुभवासरे हि, जयाबहेऽनेकसुयोगलग्ने || २६ || श्रीमाञ्जिनाऽऽदिः शुभधीर्महीयां चारित्रसूरिः सह संघवर्णैः । गरिष्ठमाचार्यपदं प्रदाय, समासयत्सूरिवरीयपट्टे ।। २७ ।। ( युग्मम् ) अभूत्ततः श्रीजिन कीर्तिसूरिः, कृपादिचन्द्रो जिनपूर्वकश्च । नाम्नोभयेनैष समस्तलोके, गतः प्रसिद्धिं जयिनां वरिष्ठः ।। २८ ।। ( शार्दूलविक्रीडितम् ) - चक्रे पोडशवासरं भगवती सूत्र
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श्रीजिनकृपाचन्द्रसरि
तृतीया सर्गः।
चरित्रम्
॥७४॥
4
प्रपूत्येतयो-उर्थे भूरिमहोत्सव सुरुचिर श्रीपञ्चतीर्युत्सवे । पञ्चाऽद्रीन निरमीमपत् प्रतिदिनं श्रीसंघभोज्यं महत् , दीनानाथजनाऽऽदिरक्षणकते दानं बभूवाऽधिकम् ।।२९।। (शिखरिणी)-महेऽमुष्मिन रम्ये कति नगरलोका उपगता, निपीयैतच्छीमद्गुरुवरमुखाब्ज-प्रपतितम् । सुधापूर्ण धयं वचनमतिहृद्य बघहरं, भवाटव्याः पारं परमिह यियासोरतिमुखम् ॥३०॥
(उपजातिः)-श्रीमद्गुरोरस्य महोपदेश-मपूर्वमश्क्षुप्रतिबोधकारम् । संसारकान्तारकुठारधार, निशम्य सर्वे प्रशशंसुरेनम् ॥ ३१ ॥ विहृत्य तस्मात्तपसि प्रपेदे, श्रीमानगासी जिनकीर्तिसरिः । सीमोपयातं तमुपेत्य पौरा, बेण्डाऽऽदिरावैधिरीकताऽऽशाः || ३२॥ प्रवेशयाश्चकुरतिग्रहृष्टाः, सूरीश्वरोऽन्यत्र महाजनानाम् । प्रबोधयामास महोपदेशैदृष्टान्त दार्शन्तिकभावपूर्णः ॥३३॥ (युग्मम् )(शार्दूलविक्रीडितम् )-आयातस्तत एप देणुनगरीमातोद्यवृन्दैः पुरं, प्राविक्षद् घनगर्जितोपमगिरा धर्म चतुर्धा मुदा। धी-श्री-कीर्ति-जयप्रदं जनिजुषां स्वर्गापवर्गप्रदं, सदृष्टान्तमचष्ट धीरघिषणः सूरीश्वरो भासुरः ॥ ३४ ॥ वापीमापमितः क्षमानिधिरसौ सच्छिष्यवर्गाऽनुगः, श्रीसंधैरतिसत्कृतो बहुविधाऽऽरब्धोत्सवैरुत्तमैः । सानन्दं जनतामनःसरोजनिकरं प्रोल्लासयन् भानुवत् , जीवाजीवविचारसारमनघं धमोपदेशं ददौ ।। ३५ ।।
(दुतविलम्बितम्)-दमणनामकसत्पुरमागतः, सकल-नागर-भक्ति-सुतोपितः। विषय-वैमुख-नायक-देशना-मददताखिलपापहरीमसौ ।। ३६ ॥ (तोटकम्)-बलसारविशालपुरीमसुका, प्रभुरागतवानतिदीप्तिधरः । उपदेशमनल्पमसावददाज, जनता प्रतिबोधमवाप भृशम् ।। ३७ ।। अभियात इतो गणदेविपुरी, सुमनःपुरवासिजनैर्महितः । सकलाऽऽगमसारदयावि
१ छन्दोभङ्गनिवृत्त्यर्थ-" सानन्दं नमनःसरो." इति क्षेयम् ।
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॥७४॥
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San Mahaian Amhara Kenda
Acharya Sh Kalassagan Gyan and
पये, खुपदेशममोघमदत्त गुरुः ॥ ३८॥ (उपजातिः)-इतोऽगमत्सूरतमण्डलं सका, पथि त्रयाणामथ साधुदीक्षाम् । अदात्तदानी कमलागलाच-नाम्नी सुशीला सुरताऽधिवासा ॥ ३९॥ नाम्ना बुहारीनगरीमपेतं, विज्ञापयामास गरुं गरिमा वित प्तिमस्या अभिमत्य पूरि-स्ततो व्यहात्सिह शिष्यवृन्दैः ॥ ४०॥ ततोऽष्टकग्राममुपाजगाम, चक्रे प्रवेशोत्सवमस्य पौरः । अधौष नाश भवराशिवारं, धर्मोपदेशं कृतवानुदारम् ॥ ४१ ॥ अगानतः सातमपत्तनं च, महामहेनास्य पुरप्रवेशः । अकारि संधैरथ सूरिराजो, महोपदेशं ददिवानपूर्वम् ।।४२।। ( मालती)-कडसलियानगरं जगाम वै, परमकृपालुरशेषपापहा । अदित सुपदि देशनामसौ, गुणिगणगण्यजनाऽग्रणीगुरुः ॥४३।। (उपजातिः)-श्रीमद्गुरूणामुपदेशधारा-प्रभावयोगादिह धर्मवृद्धिः। जाता प्रशस्या जनताऽप्यशेषा, सम्यक्त्वमाप्ता गुरुदेवभक्ताः ॥ ४४ ॥ पुर्या बुहार्याः कियदग्यलोका, आगत्य विज्ञप्तिमिह प्रचक्रुः । स्वीकृत्य तामेप ततो विहस्य, पुरी बुहारीमयमाजगाम ।। ४५ ॥ सदुन्दुभिध्वान-विशिष्टबेण्ड-शवाऽऽदिनादैर्महमुज्वलं हि । विरच्य संघो गुरुमानिनाय, सुसञ्जितं पौरमुपाश्रयं तम् ॥ ४६ ।। (दुतविलंबितम)-निरतिचारसुसंयमपालको, भवगदौषधमच्युतलोकदम् । अमृततुल्यगिरा द्रुतबोधिदं, युपदिदेश समागतसद्गुरुः ।। ४७ ।। (उपजाति)-त्रिभूमिकश्रीप्रभुवासुपूज्य-सौधालये शीतलनाथकाऽऽदे। विम्बत्रयं सा कमला सुशीला, प्रतिष्ठिपच्छ्रीगुरुणाऽमुना हि ॥ ४८ ।।
(शिखरिणी)-अभूच्छान्तिस्त्रात्रं कृतविविधपापक्षयकर, धियः कीर्तेलक्ष्मयाः सदनमतिरम्य सुविधिना । प्रदायि थीमुक्तरनघगुरुवर्यस्य कृपया, ह्यविमं सम्पेदे सकलमिह कृत्यं सुविदुषः ॥ ४९ ॥ (उपजातिः) बाजीपुरायामयमेकपुंसः, संसारपाथोनिधिसन्तितीपोंः। संवेगिनोऽत्यन्तविरक्तिभाजः, प्रादत्त दीक्षां करुणैकसिन्धुः ॥ ५० ॥ श्रीसक्यवा
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श्रीजिनकृपाचन्द्र
सरिचरित्रम् ॥७५ ॥
| ग्रहतो बुहारी-पुर्येव वेदाऽश्व-नवैक वर्षे । स तस्थिवान् प्रावृषि शिष्यवर्गः, सत्रा प्रबोधजनता असङ्गः ॥५१॥ चक्रुश्च लोका तृतीया बहुधा तपांसि, बभूवुरत्यन्तविवृद्धभावाः । जहुश्च सावद्यमशेषकृत्य, सम्यक्त्वमापुगुरुराजभक्त्या ॥ ५२ ॥
सर्गः। (शिखरिणी)-चतुर्मासेऽतीतेऽभवदुभयदीक्षाऽत्र सुगुरो-रसङ्गस्याऽमुष्य प्रवर-कर-कञ्जन विदुषः । अविद्यागाढाऽन्धप्रचयमपहन्तं दिनमणेः. कषायैनिःशेषैरहितमनसो भरियशसः॥ ५३॥ (मालती)-कतमविहार इतः सम यानगरी सुधीवरः । रविवि दीप्रतरोऽवनीतले, भविकसरोजविबोधकत्सदा ॥५४॥ (उपजातिः)-सनातनं शाश्वतसौख्यहेत,
तत्र । समाययौ सातमपत्तनं स, प्रादीदृशन्मुक्तिपथं सुमव्यान ॥५५।। अथाऽष्टकग्राममभिप्रपद्य, सुश्रा-1x बकाऽशेषविशेषधर्मान् । व्याख्याय लोकानकरोत्स्वधर्म-विचक्षणान्देवगुरुप्ररक्तान् ।। ५६॥ नवाऽऽदिसारीनगरीमुपेतः, प्रणम्रलोकाऽतिशयप्रणूतः। दूरीकृताऽशेषजनाऽघराशिः, प्राबोधयभूरिजनानिहाऽपि ।।५७|| ततः समायिष्ट जलालनाम-पुरं सुपवाऽचलवत्सुधीरः । विशुद्धचारित्रविपूतवर्गः, सद्देशनाभिर्जनतामपावीत् ॥ ५८ ।। महर्द्धिकश्रावकसनशालं, प्रख्यातिमत्सूर्यपुरं ततोऽगात् । श्रीसंघ एतत्पुरसम्प्रवेशे, प्रशस्यचारूत्सवमैदिधच ॥५९|| भेरीमहाकाहल-वेण्डशङ्खा-ऽऽतोद्योत्थनादेवधिरीकृतेषु । दिमण्डलेचूच्चतमध्वजैथ, जयध्वनि कुर्वेदमेयसंधैः ॥ ६०॥ (युग्मम् ) इत्थं पुराऽन्तः प्रविवेश सेष, चक्षुःसहस्त्रैः परिपीयमानः । वाबन्द्यमानो नरनारिकाभि-रुद्रीयमानः स्तुतिपाठकाद्यैः ॥६१॥ सद्भार्मिकाऽनेकविशेषहेतो-स्तकेंषु-वाजि-ग्रह - मिताऽब्दे ।। संघाऽग्रहात्प्रावृपमध्युवास, विद्याचणश्रीजिनकीर्तिसरिः ।। ६२ ।। (उपजातिः)-मुमुक्षवः पश्च नराश्च नार्या-चुमे ललुः श्रीगुरुराजपाणेः । दीक्षा वयस्यां दुरवापमुक्तः, संसारधोरार्णवपोतभूताम् ॥६३॥ महाईसद्रत्नविभूषणादि-व्यापारिमुख्यो सा॥ ७५॥
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| भगुभाइसूनुः । पानाऽभिधः श्रेष्ठिवरः सुधर्मा, स बोथरागोत्रनभोदिनेशः ।। ६४ ।। संचीत्य तर्क-त्रि ३६००० सहस्र-मुद्रा,
उपाश्रयं शीतलवाटिकास्थम् । समुदधाराऽधिकजीर्णभृत, महोपदेशात्सुगुरोरमुष्य ।। ६५ ।। (युग्मम् )ज्ञानाऽऽलयं रम्यतरं विशालं, प्रभावकश्रीजिनदत्तसरे । नाम्ना तदीयस्मृतये प्रचक्र, सुश्रावकीयाऽखिलसद्गुणाऽऽठ्यः ॥६६॥ श्रीप्रेमचन्द्रामिधकेसरी-घ-म्मामिख्य-मंप्रमुखा धनाऽऽदयाः। उद्यापनं चक्रुरनल्प-चारु महोत्सवैस्तत्र गुरूपदेशात् ।।६७॥ सूरीश्वरस्याऽस्य महोपदेशात् , स भूरियाऽऽख्यः शुभधीरपीह । सद्धर्मशाला निरमीमपद्धि, स्थातुं समस्ताऽऽगतयात्रिकाणाम् ॥ ६८॥ ततस्ततो भूरिमहोत्सवेन, कृत्वा विहारं समुपागमत्सः । कतारमत्रत्यसमग्रसंघः, प्रादेशि चारूत्सवतः पुराऽन्तः ॥ ६९।। विशुद्धधर्मानुपदिश्य लोकान् , स्वधर्मदाढर्य समनीनयच्च । मेघो मयूरानिव पौरलोकान् , प्राममुदत्परिवरः प्रविद्वान् ॥७॥
(द्रुतविलंबितम्)-जगडियाऽऽख्यपरं तत आयया-वृषभजन्ममहोत्सववासरे। प्रभुमुदीक्ष्य जिनेश्वरमादिम, निजजनुः कृतकृत्यममन्यत ।। ७१ ।। सकलतीर्थमितः परिपेदिवान्, व्यनमदत्र मुदा जिननायकम् । भविकान्दमिहत्यमपायय-जिननिरूपितधर्मकथाऽमृतम ।।७२।। (उपजातिः)--तो विहत्याऽऽप जिनोरमेष, सुसस्कृतवारुमहेन पौर। व्याख्यानमोजस्वि । बभूव चाऽस्य, स्त्रीपुंसकानां बहुलाभकारि ॥ ७३ ॥ पाछापुराऽऽख्य नगरं समेत्य, सद्बोधदात्रीं भवभीतिहीम् । निःश्रेयसप्रापणकारयित्रीं, सद्देशनामेष ददौ जनानाम ||७४|| पालेजसत्पत्तनमाससाद वितत्य राज एषो-ऽमोचोपदेश ददिवान् सुवाचा ।।७५|| इत्वा मियाग्राममसौ वशिष्ठः, सच्चर्कतः पौरजनैगेरिष्ठः । धर्मोपदेशैर्जनतास्ततर्प, संसार-दुष्पारसमुद्रतारैः ॥ ७६ ॥ विहृत्य तस्माच्छुचिकृष्णपक्षे, तिथ्यां दशम्यां भृगुरेवतीभे । वटोदरं रम्यपुरं समागात ,
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श्रीजिन
कृपाचन्द्र
सूरिचरित्रम् ।। ७६ ।।
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सच्छिष्यजुष्टक्रमवारिजन्मा || ७७ || पुरोपकण्ठं समुपेयिवांस, श्रीमन्तमेनं जिनकीर्तिसूरिम् । महाऽऽनकै - दुन्दुभिबेन्डवाद्यैः, प्रवेशयामास पुरं हि संघः ॥ ७८ ॥ श्रीसंघविज्ञशिवशादिहैव, सप्तर्षि-नन्दैकमिताऽदकीयम् । प्राचर्करीच्छिष्यदलैः सहाऽसौ, वर्षानिवासं मुनिपालवर्यः ॥ ७९ ॥ ( द्रुतविलंबितम्) - कलुषराशिहरं जयकारकं, ध्रुवपुमर्थचतुष्टयदायकम् । गुरुरिहाऽखिललोकमहाऽऽग्रहाद्भगवतीश्रवणं समकारयत् ॥८०॥ ( वसन्ततिलका ) - छाणीपुरीमुपगतः सकलाऽऽयैनुत्यः, पौराऽतुलप्रकृत - चारुमहामहेन । प्राविक्षदेव नगरं वरतोरणाऽऽयैः, सञ्जीकृतं सकलराजपथाऽऽपणाऽऽदि ॥ ८१ ॥ व्याख्यानमेष दददे श्रुतितृप्तिकारि, पापापहारि सकलाऽऽगमसारहारि । जीवोपकारि भवसन्तति-मूलशारि, तत्वावधारि निखिलाऽऽधिनिवारि तारि ॥ ८२ ॥ ( तोटकम् ) – विहरंस्तत एष समागतवान्, अधिवासदमिभ्यवश मुदिताः । प्रणिपत्य गुरोः पदपद्मयुगे, नगराऽन्तरनेषत भक्तिभरैः ॥ ८३ ॥ उपदेशमदाद् गुरुराज इहाड-खिल - सभ्य-जन- श्रवसो रतिदम् । भव-सागर - पोतमघौषहरं, जगदुज्ज्वल-कीर्ति विकाशकरम् ॥ ८४ ॥ ( वसन्ततिलका ) आनन्दनाम नगरं तत आजगाम, पौराः प्रहृष्टमनसः प्रचुरोत्सर्वैस्तम् । अनिन्यिरे पुरमगाधधियं यतीन्द्रं, कारुण्यकूपमनघं कनकाथिताऽङ्गम् ॥ ८५ ॥ ( उपजातिः ) - सुधामयीं तत्र ददौ स सूरिः, सदेशनां सर्वजनोपकर्त्रीम् । सम्यक्त्वतूर्ण प्रतिपत्तिकर्त्री, मोहान्धकारक्षतिसूर्यरश्मिम् ।। ८६ ।। ( भुजङ्गप्रयातम् ) – नलीयादसंज्ञं पुरं सम्प्रयातः, पुरीभव्यलोकैर्भृशं सत्कृतः सन् । उपादिश्य पुंसः स्त्रियश्चाऽपि धर्मान् व्रताऽभिग्रहाऽऽदीन् बहुभ्यो यच्छत् ।। ८७ ।। ततो मातराऽऽरूयं पुरं सोऽभ्यगच्छ-समारब्धचारूत्सवैराविशच्च । अदत्तोपदेशं हृदाकर्षणाऽहं समेषां सदादेयधर्म्य सभायाम् ॥ ८८ ॥ ( स्रग्धरा ) – सच्चादेवाख्यखेडाप्रमुखकतिपुरं चाऽऽगतः
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तृतीयः सर्गः ।
॥ ७६ ॥
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| श्रीजिनानां, बिम्बान्यालोकमानः प्रतिनगरमसौ शुद्धधर्मोपदेशम् । कुर्वाणोऽखण्डशीलो जिनपदकमलध्यानलीनो महात्मा, शान्तो दान्तः प्रधूताऽखिलमलपटलः सच्चरित्रः पवित्रः ॥ ८९ ॥ (वैतालीयम्)-राजनगरमागतस्ततः, प्रविवेश पुरी चारुसूत्सवः । व्याजहार धर्मदेशना, धर्ममूर्तिरिव पापनाशिनीम् ॥ ९०।। ( उपजातिः)-विहत्य तस्मात्सह शिष्यवृन्दैरागाबरोडानगरं महीयान् । संघस्तदीयं कृतवान् प्रशस्य, पुरप्रवेशं महतोत्सवेन ॥ ९१ ।। चरित्रनेता कमनीयमत्र, धर्मोपदेशं कृतवान् समित्याम् । प्रमाणवर्ज जनता समेता, निशम्य लेमे बहुबोधिबीजम् ।। ९२॥ (द्रुतविलंबितम् )-कपडबजपुरीमित आययौ, पटह-काहल-दुन्दुभि-बेण्डकैः । गुरुवरं पुरमानयताऽऽदरान्, मुदित एतमशेषपुरीजनः ।। ९३ ॥ अददताऽधकदम्बविनाशक, जननमृत्युभयच्छिदमुत्तमम् । कुमतिवारकसन्मतिदायक, सदुपदेशमसौ सदसि प्रभुः ॥ ९४ ॥ (उपजातिः) इतः समागात पुरि गोधरायां, प्रावेश्यताऽसौ महता महेन । संसार-चक्र-भ्रमणाऽपहारी(रा), सद्देशनां धीरगिराऽददिष्ट ।। ९५ ॥ स दोहदग्राममथाऽऽगमञ्च, वादिननादैर्वधिरीकृताऽऽशैः । पुर्यन्तराविश्य महोपदेशं, प्रादादुदार भवमुक्तिकारम् ॥९६॥ कृत्वा विहारं तत आजगाम, रम्भापुरं भावुकसत्गृहस्थाः । आनीतवन्तो नगराऽन्तरेतं, वपुः-प्रभाभासित-दिग्विभागम् ।। ९७॥ आकण्ये रम्यां घनघातिकर्म-निश्शेषकीमभयप्रदात्रीम् । तद्देशनां स्त्रीपुरुषाऽऽदिलोका, आपुःप्रबोध भवमोहमोचम् ॥९८॥ (स्रग्विणी)-झाबुबाराजधानीमितश्चाऽऽययौ, सत्कृतः पौरलोकरशेषेभृशम् । हारिणीमापदा दायिनी सच्छ्रियः, सन्ददौ देशनां सद्गुरुः सरिराट् ॥ ९९।। ( उपजातिः)-विहृत्य राणापुरमेष तस्मा-दायिष्ट भूयिष्ठगरिष्ठवाधैः । प्रविश्य लोकानमृतायमान-धर्म जिनेन्द्रोदितमाचचक्षे ॥ १०॥ (तोटकम् )-पिटलादपुरीं सकलर्द्धिमती,
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तृतीयः सगे।
श्रीजिनकृपाचन्द्र
सरिचरित्रम्
॥७७॥
तत एष विहृत्य सुधीरगमत् । अतिभावुकसंघकृतै रुचिरैः, सुमहैरविशनगरी मुनिराद् ॥१०१॥ अतिमञ्जुलमत्र गुरुर्ददिवा- नुपदेशमपूर्वमघौघहरम् । भवबन्धनकुन्तनकारितरं, बविनाशि-सुखाऽच्युतलोकगमम् ॥ १०२ ॥ ( उपजातिः)-सुकर्मदीपत्तनमाजगाम, श्रीसंघजातोत्सवमीक्षमाणः । पुराऽन्तराविक्षदनल्पतेजा, गम्भीरवाण्या समुपादिशत्सः ॥१०३ ॥ श्रुत्वोपदेशं सुगुरोरपूर्व, जहुः कियन्तो लशुनाद्यभक्ष्यम् । दाढ्य स्वधर्म बहवः समीयु-रभिग्रह केऽपि ललुः समुत्काः ॥१०४॥ प्रभावना-पूजन-सत्तपांसि, नानाप्रकाराणि बभूवुरत्र । इत्थं स भव्यानुपकृत्य मरी-श्वरो व्यहार्षीदतुलप्रभावः ॥ १०५ ।।
(तोटकम् )---अधिमालवरत्नललामपुरं, स हि शुक्र-गणेशतिथावसिते । समियाय सुशिष्यदलैः सहित-स्तपसां महसाऽधिकदीप्तिधरः ॥ १०६ ॥ (शार्दूलविक्रीडितम् )--पुर्याः सीम्नि समागतस्य सुगुरोरेतस्य सूरीशितु-रागत्याऽभिमुख महर्द्धिजनता सद्वेण्डभेर्यादिभिः । चन्द्राऽऽशङ्कितडिच्छटाधरमुखीसुश्राविकागानकै-रानिन्ये नगराऽन्तरेनमघदं सत्पूज्यपादाऽम्बुजम् ॥ १०७ ।। ( वसन्ततिलका )-सत्तोरणाऽऽदिपरिबन्धनशोभमाने, प्रत्यापणे नृपपथे च महेभ्यवगैः । पोपूज्यमानगुरुराजममुं प्रद्रष्टु-मावालवृद्धजनतापरिमदे आसीत् ।। १०८॥ अत्याग्रहाद्भविकसंघजनस्य तत्र, भूभृत्तुरङ्ग-नव-चन्द्रमिते च वर्षे । वषेतुवासमकरोत्सह भूरिशिष्यैः, श्रीमानचिन्त्यमहिमा गुरुराज एपः॥ १०९ ॥
(द्रुतविलंबितम् )-भगवतीमिह सूत्रमवीवचत् , जलधरस्वनजेगिरा गुरुः। वृजिनराशि-निराकृतिकारक, परमभक्तिपारंश्रुतमाङ्गनाम् ॥ ११०।। सदुपधानमहातप आदरान, भविकवृन्द इहाऽकृत भावका त्रिपुरुषा ललनाद्वितयी गरोः, शुभ- IN करेण ललुश्च महाव्रतम् ।। १११॥ (भुजङ्गप्रयातम् )-चतुर्मासपूतौ ततः संविहृत्य, जिनाऽऽदिः कृपाचन्द्रसूरीश्वरोऽयम् ।
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॥७७॥
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अगाद् बाङ्गडोदं पूर्वोत्सवेन, स्वविक्षत् पुराऽन्तः समं भूरिलोकैः ॥ ११२ ॥ प्रबोधं जनानामपूर्व व्यदत्त, सदादेयधर्मोपदेशैमहद्भिः। पयोमुनिनादानुका रवेण, कुतर्काऽऽदिशङ्कासमुच्छेदकर्ता ॥ ११३ ॥ (स्रग्विणी)-सद्गुरुभूरिशिष्यस्ततः प्रस्थितः, सेमलीयाऽभिधं पचनं सङ्गतः । नागराऽशेषलोकभृशं सत्कृतो, देशनां सर्वलोकोपकारी ददौ ॥ ११४ ॥
(तोटकम् )-सरसीनगरीमयमागतवान् , विहरन् क्रमशः करुणानिलयः । बहुमानपुरस्सरमानयत, नगरान्तरमुं पुरवासिजनः ॥ ११५ ।। ददिवानुपदेशममोघमसौ, कृतवान् प्रतिबुद्धतरान् सुजनान् । परिहापितवान् व्यसनं सकलं, जिनशासन-काननचारिहरिः ॥११६ ॥ (भुजङ्गप्रयातम् )-ततो जावराख्यां पुरीमार मार-विजेता सुवक्ता प्रदाता सुबुद्धेः । समस्तः सुसंघो महाऽऽडम्बरस्त, प्रणिन्ये पुरान्तः समं शिष्यजातैः ।। ११७ ।। ददी चोपदेशं भवाम्भोधितारं, सुरेन्द्राऽऽधिपत्यप्रदातारमेषः । जगत्यन्धकूपे पतञ्जीवजात-समुद्धारकारं स्वधर्मप्रचारम् ॥ ११८ ।।(शार्दूलविक्रीडितम् )-रोजाणानगरीमगच्छदनपश्चारित्रदीप्त्योल्लसन् , सद्धर्मद्रढिमानमत्र सुजनैरानीनयमूरिराद् । सद्धोधाऽमृतपायकः श्रुतधरः शीतांशुवच्छीतलो, निर्धताऽखिलकल्मषः सुतपसा प्रध्वस्तमोहाऽऽदिकः ॥ ११९ ।। (वसन्ततिलका)-दिगणोदनाम नगरं समुपेत्य तत्र, बहादरेण सुजनैरतिसत्कृतः सन् । धर्मोपदेशसुधया परितर्प्य लोकान् , सद्धर्मसारमखिलान् समबूबुधत्सः ॥ १२०॥
(उपजातिः)-विहृत्य तस्माद्गुणदीमयासी-दलब्ध सत्कारमशेषलोकैः। सद्देशनां ज्ञानकरी प्रदाय, सोऽजहरीत्सर्वजनस्य मोहम् ॥१२१।। तालं विशालं नगरं सहाऽसौ, सच्छिष्यवृन्दैः समयाम्बभूव । महोत्सवैस्तत्र पुरीनिवासी, पुरप्रवेशं कृतवानमुष्य ॥१२२।। संसारदुष्पारमहासमुद्रे, नानाऽऽधियादोगणदुस्तरेऽस्मिन् । जराविपत्रासमहातरङ्गे, पोतायितं धर्ममुपादिशत्सः।।१२३।।
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श्रीजिन- आलोटमागानगरं ततोऽयं, चके प्रवेशोत्सवमत्र संघः । श्रीवीतरागोदितशुद्धधर्म, सदस्यसौ चारुगिरा चचक्षे ।। १२४ ॥ तृतीयः कृपाचन्द्र-IV ततो ह्यसौ माधवकृष्ण-सूर्य-तिथपामुपेतो रिगणोदपुर्याम् । विधाय यात्रामयमाजगाम, सीतामऊनामपुरं विशालम् ॥१२५॥ सर्गः।
सरि- समागतं सरिगणाऽव्यगण्यं, मेनकाऽऽतोयजयाऽऽरवाऽऽद्यैः । प्रवेशयाञ्चकुरशेषपौरा, ददौ च सोऽप्यत्र महोपदेशम् ॥१२६॥ चरित्रम्
अध्यक्रमान्मानपुर ततोऽगा-चोट्टयमानः पुरवासिलोकः। धर्मोपदेशैरुपकस्य लोकान् , अजीप दुर्व्यसनानि सर्वेः॥१२७॥
तालाऽऽदिनानानगराणि गत्वा, प्रबोध्य लोकान रुचिरोपदेशैः। समाययौविरो महीन्द्र-परं विशालं बहभिः सशिष्यैः । ॥७८ ॥
॥१२८।। पुरोपकण्ठाऽऽगतमादरेण, नानाविधाऽऽतोच-सुगीतनादैः। पुराऽन्तरानेषत पौरलोकाः, प्रभावनां चादिषतातिहृष्टाः ता॥ १२९ ।। भवाइटवीदावनिभानन्त-जन्माऽत्ययत्रासनिरासकारम । महोपदेशं सचिरं प्रदाय, का सुशीला समदीक्षयत्सा
॥१३०॥ इतो विहत्याऽऽगतवानवन्ती, श्रीपार्श्वनाथं समपश्यदत्र । सूरीश्वरस्तत्र विधाय यात्रा, प्रायोधि (१) लोकानिजदेशनाभिः ॥ १३१ ।। ( तोटकम)-मकसीवरपत्तनमाप सक-स्तत एष विहृत्य गुरुः प्रभुकः । समदर्शदिहस्थसुतीर्थपति, भविकानुपदिश्य ततो व्यहरत् ॥ १३२ ।। (इन्द्रवंशा)-देवासमागात्सुजनैः प्रवेशितः, प्रौढातियाऽतुलसत्सवेन सः। कल्याणकारीमघताविनाशिनी, सद्देशनामेप ददौ मुनीश्वरः ॥ १३३ ।। ( उपजातिः)-आषाढकृष्णे दशमी सतिथ्याम् , इन्दोरपुर्यामयमभ्युपेतः । पुरोपसीम गुरुराजमेतं, प्रशस्यसूरिव्रजमौलिरत्नम् ।। १३४ ॥ (शार्दूलविक्रीडितम् )-तत्रत्यः सकलो महर्दि-14 सुजनो हर्षोल्लसन्मानसो-ऽभ्यागच्छत्परिवन्दितुं सुविहितैश्चारूत्सवैरुज्ज्वलैः । बेण्डाऽऽदि-प्रचुर-प्रवाय-निनदैर्वाधिर्यमापादयन् , सर्वेषां श्रवसोर्मदा जयजयेत्यापोषयन्नुचकैः ।।१३५।। (युग्मम्) इत्थं रम्यमहोत्सवेनूपपणे यान्त गुरु पीक्षितुं, मीनाक्ष्योगा ॥७८ ॥
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धनिकाङ्गनाः सुनयनाः पीयूषधामाऽऽननाः। विद्युत्पुञ्जसमप्रभाः पथिगतप्रासादमूर्धस्थिता, वैमानिक्य इवाऽऽगताः सुरपुराल्होकेस्तदा मेनिरे ॥१३६ ॥ (उपजातिः)-अथाऽऽग्रहात्पौरजनस्य तत्र, नन्दाऽश्व-रन्]कमिते'च वर्षे । सन्तस्थिवान् प्रावृषि सरिराजः, सच्छिष्यवृन्दैः सह संयताऽऽत्मा ॥ १३७॥ (दुतविलंबितम् )-भगवतीवरसूत्रसवृत्तिक, गुरुवरः समवाचयताउसको । सदुपधानमहातप उत्सवे-रिह बभूव सुपावनमुज्ज्वलम् ।। १३८ ।। (उपजातिः)-सज्ज्ञानकोशालय आविरासीत्, चिकाय तस्मिन् यहुपुस्तकानि । समग्रहीच्चाऽपि कपाटकाऽऽदि, श्रीमद्गुरोरस्य महोपदेशात् ॥ १३९ ।।
(शिखरिणी)-महोपाध्यायं श्रीसुमतिजलधीत्याख्यमुनये, पदं प्रादाच्छ्रीमानुदधिरिव गाम्मीर्यनिलयः। विनीतश्रीराजाऽऽदिकजलधये वाचकपदं, गुरुः पन्न्यासाऽऽख्य मणिजलधिनाम्ने पदमदात् ॥ १४०॥ (इन्द्रवना)-एका सुशील: सुविनीतधीरः श्रीमद्गुरूणां करपल्लवेन । संसारवाद्धि तरितुं सुखेन, दीक्षामलासीदतितीक्ष्णवुद्धिः ॥ १४१॥
(भुजङ्गप्रयातम् )-ततो माण्डवाऽऽख्यं गढं सूरिराजा, समेत्याऽकरोतीर्थयात्रा सशिष्यः। ततो धारनाम्नी पुरीमाजगाम, पुरि प्राविशद्भरिचारूत्सवेन ॥१४२ ।। उपादिक्षदत्रत्यलोकानशेषान् , विशुद्धाऽऽर्हताशेषधर्म प्रकामम् । भवोच्छेदि-कल्याणविस्तारकार, विपद्वारि-संसारदुःखाऽपहारम् ।। १४३ ॥ (पञ्चचामरम् )-अमीजरापुरीमितो विहृत्य सरिराडसौ, समाजगाम सादरं चकार नागरोऽखिला। पुरप्रवेशद्ध(त्स)वं सुवेण्डकाहलाऽऽदिभि-र्ददौ मुनीश उत्तमां सुदेशनां श्रवःसुखाम् ।।१४४॥
(वंशस्थम्)-विहत्य भोपावरमीयिवांस्ततः, पुरीजन रिमहोत्सवः कृतः । महोपदेशः सकल: प्रबोधितः, प्रतिष्ठितेनाऽतुलकीर्तिनाऽमुना ॥ १४५ ॥ ( उपजातिः)-विलोक्य तत्र प्रभुशान्तिनाथ, समागतो राजगढाख्यपुर्याम् । श्रीत्रैश
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तृतीयः सर्गः।
श्रीजिनकृपाचन्द्र
सूरिचरित्रम्
॥ ७९
॥
लेयं प्रभुमत्र दृष्ट्वा, देशाइनाम्नी नगरीमयासीत् ॥ १४६ ॥ (वंशस्थवृत्तम् )-महामहेनाऽत्र पुरं प्रवेशितः, सुदेशनां सत्वरबोधदायिनीम् । सनातनाऽसीमसुखाऽनुभाचिनी, ददौ च संसारसमुद्रतारिणीम् ॥ १४७ ।। (पृथ्वी)-कणोदनगरीमियाय सकलाऽऽर्तिहारी गुरुः, समस्त-पुरवासिभिः प्रकृतचारु-नानोत्सवैः । प्रवेशमकरोदसौ सकलशिष्यवर्गः समं, स्वदाच वरदेशनामखिलपापनोदक्षमाम् ॥ १४८ ॥ (मालिनी)-तखतगढमयासीद्वादिवृन्दाष्टवीषु, सततविहरमाणः केसरी विश्वपूज्य: । जन-महितपदाऽकजः सत्कृतः सर्वपौर-रददत कमनीयं शुद्धधर्मोपदेशम् ॥ १४९ ।। (तोटकम् )-बदनावरपत्चनमैयरसौ, नगरीजनसत्कृत ईब्यवरः। उपदेशमदत्त सतामघदं, भुवि भुक्तिविमुक्तिददं समितौ ।। १५०॥
(प्रमुदितवदना )-वडनगरमथाऽऽययौ सूरिराद्, पुरजनकृतसत्कृति पेदिवान् । वृजिनततिविनाशिनी देशना-मदित सदसि संसृतेमोचिनीम् ॥ १५१।। (भुजङ्गप्रयातम् ) ततः सूरिराडाययौ खाचरोद, पुरं प्राविशञ्चाऽतिचारूत्सवस्तत् । जनानार्हताञ्छुद्धधर्म यतात्मा, चचक्षे महात्मा सदा शान्तमूर्तिः ॥ १५२ ।। (इन्द्रवना)-ओलीमकार्षीदिह माधवीं स, धर्माद्यनुष्ठानमभूदपूर्वम् । श्रद्धालुसुश्रावकवृन्दजुष्ट-पादारविन्दद्वय उत्तमौजाः ॥ १५३॥ (उपजातिः)-आगच्छदस्मात्स हि सेमलीया-पुरं प्रधानं सकलेश्च पौर: । प्रवेशितश्चारुमहामहेन, व्याचष्ट धर्म भवभीतिवारम् ।। १५४ ॥ स नामलीनाम पुरं ततोऽगात् , उच्चैः प्रवेशोत्सवतः प्रविश्य । सोधिबीजप्रदधर्ममत्र, प्रोपादिशत्पर्षदि संघमेषः ।। १५५ ॥
(इन्द्रवमा)-पञ्चेडमागाविहरंस्ततोऽयं, चक्रुः प्रवेशोत्सवमस्य पौराः । श्रुत्वोपदेशं सुगुरोरमुष्य, धर्म च सर्वे द्रद्धिमानमापुः ॥ १५६ ।। (उपजातिः)-ततः सलानानगरीमियाय, नोनयमानः पुरवासिलोकैः । राजानमत्रत्यमबोधयञ्च,
॥ ७९ ॥
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| सद्धर्मवाक्यैरमृतायमानैः ॥ १५७ ॥ (भुजङ्गप्रयातम्)-ततः पीपलोदाऽभिधग्राममागाद्, गरिष्ठः प्रवेशोत्सवोऽकारि पौरैः। ददे तत्र मरिर्जनाऽशेषमोह-समुद्धेदिधर्मोपदेशं प्रशस्यम् ॥ १५८ ।। सुखेडापुरीमाश्चदाप्तोपदेष्टा, समेतं तमेनं दिनेशप्रकाशम् । प्रणेमुः प्रचाजेंनाः सूत्सर्व ते, समूचे च सूरिर्जिनोक्तं प्रधर्मम् ।। १५९ ।। (उपजातिः)-अथाऽरुणोदं नगर प्रपेदे, समुत्सवं पौरजना वितत्य । तमानयन् गौरवभक्तिभाजः, सूरीश्वरोऽदत्त महोपदेशम् ॥ १६० ।। प्रतापपूर्व गढमाजगन्वान् , श्राद्धा वितेनुः परमोत्सवं हि । तदीक्षमाणो नगरं प्रविश्य, व्याचष्ट धर्म भवमूलघातम् ॥ १६१ ॥ कृत्वा विहारं तत एप मूरि-बईपुरीतीर्थमयादनंहाः । ददर्श तत्र प्रभुपार्श्वनाथ-बिम्ब मनोवाञ्छितसिद्धिदायम् ॥१६२॥ कृतप्रयाणः क्रमशस्ततोऽसौ, पुरं दशादि समुपाजगाम । बेण्डाऽऽदिवादित्रगणप्रणादैः, समस्तसंघः पुरमानिनाय ।। १६३ ।। श्रीसंघविज्ञप्तिवशादिहाऽसौ, बिन्द्रष्टनन्दक्षितिसंख्येवर्षे । समध्यवात्सीच्चतुरश्च मासान् , घनः सुशिष्यैः सह सरिराजः ॥ १६४ ॥ श्रीनन्दिसूत्रं सह वृत्तिकेन, माहात्म्यमप्येष महाविपश्चित् । शत्रुञ्जयस्य स्तनयित्नुनादी, संवाचयामास गुरुगरीयान् ।। १६५ ।। | आगादईपत्तनमेष तस्मात्, तीर्थेशमालोक्य ननाम भन्या । स कणेगेटीनगरीमगच्छत् तत्रोपदेशेः सुजनानतपीत्
॥ १६६ ॥ (वंशस्थम्)-ततोऽगमञ्जीरणनामपत्तन, सुदेशनाभिजेनता उपाकरोत् । समागतो नीमचनामसत्पुरी-मतानिषुः । पौरजना महोत्सबम् ॥ १६७ ॥ (उपजातिः)-धाराधराऽऽरावगिरात्र लोकान्, सभाऽऽसनाऽऽसीन उपादिशत्सः । | प्रस्थाय तस्मात्स हि जाबदाऽऽख्य, शिष्येरदः बितपादपयः॥१६८॥ (बेतालीयम्)-केसरपुरमागतस्ततः, सञ्चका पुर | वासिनः समे । उपदिदेश सरिराडसी, शाश्वतं धर्ममुज्वलं जनान् ।। १६९ ।। (प्रहर्षिणी)-नीबाडानगरमुपागमत्सशिष्यः,
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तृतीया सगे।
श्रीजिन- चक्रुस्ते परममहोत्सवं सुपौराः । व्याचख्यौ सदसि सुतारकं भवाऽन्धेः, सद्धर्म सकलजनोपकारिणं सः ॥ १७० ।। रूपाचन्द्र
(वैतालीयम् )-शतखण्डापत्तनं ततः, सह शिष्यैर्गुरुराययौ महान् । परिणतः सर्व-सअनै-रूचिवान् धर्मदेशनामलम् सरि- ॥ १७१ ।। (भुजङ्गप्रयातम् )-ततचित्रकूटं गढ़ सञ्जगाम, व्यतानीदतुच्छ पुरीवासिलोकः । प्रवेशोत्सवं तस्य सूरीश्वरस्य, चरित्रम् ददे भव्यवृन्द(न्दे) स धर्मोपदेशम् ॥१७२।। (उपजातिः)-सिङ्गापुरं चागतवांस्ततोऽयं, तेनेऽथ सत्संघ उदारमेषाम् । पुरप्रवे
शोत्सबमेष सूरिः, सुदेशनां चात्र ददावपूर्वाम् ॥१७३॥ कपासणाऽऽख्यं नगरं ततोऽगात, समागतांस्तान् (तं तं) बहुना. ॥८॥
ऽऽदरेण । सर्वो हि संघः पुरमानिनाय, ततोऽसको धर्ममुपादिशत्तान् (त्तम्) |॥ १७४ ।। इतः करेडाभिधतीर्थमित्वा, मैंनुप्रमाणैः श्रमणैः सहाऽसौ । श्रीपार्श्वनाथप्रभुमालुलोके, विहृत्य तस्मात्सणवाडमागात् ।। १७५ ॥ तत्रत्यसंघो महता महेन, पुराऽन्तरानेष्ट घनाऽऽदरेण । श्रीमरिराजोऽप्यददिष्ट तत्र, वैराग्यपूर्ण रुचिरोपदेशम् ।। १७६ ।। (मुजङ्गप्रयातम्)-ततो
मावलीपत्तनं सञ्जगाम, जनाः सादरं तं पुरं चाऽऽनयन्त । कषायप्रमुक्तो गुणाऽम्भोनिधिः स, महामोह-मृ(भूभृत्पविं धर्म&ामाख्यत् ॥ १७७॥ (उपजातिः)-ततश्चालित्वा पलहाणमागात, पौराऽतुलाऽऽरब्धमहोत्सवः सः। पुरप्रवेश कृतवान्मही- IC
यान, प्रदत्तवास्तत्र महोपदेशम ।। १७८ ।। (आयों)-देवलबाडामागात्, सह शिष्यः संविहत्य सूरीन्द्रः। पौर। सस्कृतिमाप्तो, धर्मोपदेशं समारभत ।। १७९ ।। (उपजातिः)-ययौ पुरं नागदहाऽभिधान.श्रीसंघ एतस्य पुरप्रवेशे। बाद्याऽऽदिभी ४ रम्यमहोत्सवं हि, चक्रे ददौ सोऽथ महोपदेशम् ।। १८० । (रथोद्धता)-एकलिङ्गशिवसनिधी महा-श्यामलां परमसुन्दराद्भुताम् । शान्तिनाथविभुसच्छवि परा-मागतो गुरुरलौकताऽसकौ ॥ १८१ ।। (मालिनी)-उदयपुरमगच्छभूरि
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॥८
॥
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शिष्यैः सुजुष्टः, पुरजनकृतबेण्डाऽऽद्युत्सवं प्रेक्षमाणः । अदित सदसि रम्या देशनां मूरिराजः, परमसुखविधात्री कर्मनिश्शेषकीम् ॥ १८२ ।। (इन्द्र वा)-कालं कियन्तं स हि तत्र तिष्ठन् , मेघो मयूरानिव पौरलोकान् । आनन्दयन् धर्मकथाऽमृतानि, सम्पाययामास गुरुर्गरिष्ठः ॥ १८३ ।। श्रीकालिकातानगरीनिवासि-सच्च्ड्रेष्ठि-चम्पाऽऽदिकलालमुख्य-प्यारेसुयुकलालमहेभ्यकाऽऽदेः, सुखेन संघः समुपागतोत्र ॥ १८४ ॥ श्रीसंघपत्याग्रहतो महीयान् , प्रभावकश्रीजिनकीर्तिमूरिः । सशिष्यकस्तेन समं चचाल, कतुं तदा केसरियाजियात्राम् ॥ १८५ ॥ (युग्मम् ) संघेन साधं समुपागतोऽत्र, श्रीमत्प्रभुं केसरियाजिनाथम् । प्रैक्षिष्ट भक्त्याऽतुलया सशिष्यः, संस्तुत्य मोदं घधिकं समाप ।। १८६ ।। मासदयं तत्र सुहेतुतोऽस्थात्, विधाय भूयिष्ठपरिश्रमं सः । सिताऽम्बरीयाऽखिलजैनसंघ-स्वामित्वमत्रत्य-सुचैत्यकेऽस्ति ॥ १८७॥ एतच्छिलालेखमलब्ध तत्र, यो गुह्य आसीदुपरिस्थितत्वात् । तल्लेखमुर्वीपतिरप्यपश्यत् , श्राद्धाऽऽदिलोका अपि ददृशुश्च ॥ १८८ ।। ततो बिहृत्योदययुकपुरं हि, पुनः समागात्सह शिष्यवर्गः । महोत्सव संघकृतं स पश्यन् , लग्ने शुभे तत्पुरमाविवेश ।। १८९ ॥ अस्याग्रहासंघकृताच तत्र, चन्द्रोऽष्ट-नन्देन्दुमिते च वर्षे । श्रीसूरिराजो जलदर्तुवासं पञ्चद्विशिष्यैः सहितः प्रचक्रे ॥ १९ ॥ सद्धर्मपीयूषमपिप्यदेष, श्रीसंघमत्रत्यमनारतं हि । तपांसि भूयांसि जना अका', प्रादियुतच्छासनमाहतं सः ।। १९१ ।।
(आर्या)-गोविन्द सिंहमहता-सराये न्यवसदसौ तुर्यदिनानि । तस्मात्कृतप्रयाणो, बेदलानगरमाजगाम सः ॥१९२।।
(उपजातिः)-पुरप्रवेशं विततोस्सवेन, विधाय लोकान् प्रतिबोध्य तत्र । मादारमागादुपदिश्य लोकान् , विशुद्धधर्म समतीपच ।। १९३ ॥ (महापणी)-गोगुन्दानगरमुपाययौ सशिष्या, सत्पौरा व्यदधुरमुष्य सत्प्रवेशम् । सूरीशः सदसि
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भीजिनकपाचन्द्र
सरिचरित्रम्
तृतीयः सर्गः।
| सुधामयोपदेशः, सल्लोकं सकलमवेदयत्स्वधर्मम् ॥ १९४ ॥ (इन्द्रवंशा)-नन्देसमा-ठोल-कमोल-सायरा-भाणापुराराणकपूर्षु सङ्गतः । यात्रां विधायेष जनान् प्रबोध्य बै, कृत्वा विहारं समुपैच्च सादडीम् ॥ १९५ ॥
(शार्दूलविक्रीडितम्)-घाणेरावपुरं समेत्य कृतवान्ट्रीत्रैशलेयप्रभो-र्यात्रामेष महामतिर्मुनिपतिर्वारा पतिस्तेजसाम् । हा लोकाऽज्ञानतमिस्रराशिहरणे प्रोद्यत्प्रभोऽहस्करः, संयातस्तत उज्ज्वलाऽतुलयशास्तां देसुरी सत्पुरीम् ॥ १९६ ।। तत्रत्यैः सकलैः
सुभावुकजनैरारम्भि चारूत्सवः, सम्पश्यन् महमुज्ज्वलं गुरुवरः पुर्या प्रवेशं व्यधात् । प्रारेमे बरदेशनां हितकरी सत्प्राणिनां बोघिदा-मागच्छत्तत एष धीरधिषणः सोमेसराऽऽख्यं पुरम् ।। १९७ ॥ (भुजङ्गप्रयातम् )-ततो णादलाईपुरं रम्यमस्मिन् , प्रयाते शरण्ये कृपालौ महिष्ठे । अकार्षीत्सुसंधः प्रवेशोत्सवं च, बदाद्देशनां तत्र सूरिः सभायाम् ।। १९८॥
(इन्द्रवत्रा)-नाडोलमागास्कृतसंविहारः, सम्मानितः पौरजनैरशेषः । श्राद्धस्य धर्म सकलं चचक्षे, सूरीश्वरः पर्षदि विश्ववन्धः ।। १९९ ॥ (वैतालीयम् )-वरकाणामाजगाम सः, पार्श्वनाथविभुदर्शनं व्यधात् । राणीपुरमेतवांस्ततः, सुसत्कृतो| ऽदाद्धर्मदेशनाम् ॥ २०० ॥ (उपजाति:)-खीमेलमाप्तो जनताकृतेन, महोत्सवेनैप पुरं प्रविष्टः । चिरं ददौ धार्मिकदेशनां ते स, संसार-मोहाऽन्धदिनेशकान्तिम् ॥ २०१ ॥ (शार्दूलविक्रीडितम्)-सांडेरावमहापुरीमुपययौ लोका अनल्पोत्सबै-भैरीकाहल-वेण्डकादिनिनदैर्षाधिर्यकारदिशाम् । गीताऽऽद्यैरमितैर्जनैश्च सुगुरुं प्रावेशयन् वं पुरं, सरीन्द्रो भवतारकं सुभविना |* धर्मोपदेशं ददे ।। २०२।। (भुजङ्गप्रयातम्)-सुजाणाऽभिधानं समागात्पुरं स, पुरीलोकचारूत्सवैः सम्प्रविष्ट: । ददौ देशनां सर्वपापौघलोनी, महीयाजिनाऽऽदिः कृपाचन्द्रसूरिः ॥ २०३ ।। (उपजातिः)-खिमाणदीपत्तनमाजगाम, प्रबोध्य
॥८१ ।।
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लोकान् वरदेशनाभिः। ऐहारुदीनामपुरं ततोऽसौ, सद्धर्ममत्रोपदिदेश सूरिः ॥ २०४॥ ( मालिनी) तखतगढमुपेतः हा प्राप्तलोकप्रतिष्ठो, दिनमणिरिव दीप्रः कल्पवृक्षाऽवभासः । अकृषत पुरलोकाः सस्कृति तस्य गुर्वी-मदित वरममोघ शुद्धधर्मों
पदेशम् ॥ २०५ ।। (हुतविलम्बितम् )-तदनु पादरली नगरौं ययौ, पुरजनेः कृतचारुमहोत्सवैः । अविशदेष पुराऽन्तरथोपदे-शममृतं जनताः समपाययत् ॥ २०६ ।। (उपजातिः)-स चांदराईपुरमध्यगच्छत् , सम्मानमेतस्य गरिष्ठमत्र । तत्पौरलोकः कृतवान् सुभक्त्या-ऽदाद्देशनां सौधरसप्रवाहाम् ।। २०७॥ चूडाऽभिधं पत्तनमेष गत्वा, प्रावेशि पौरैरुचितो(रोत्सवैस्सः। श्रीसुरिराजोऽप्यथ देशनां तां, संसार-दुर्गादधिपोतकल्पाम् (१)॥२०८।। स शङ्खवालीनगरीमपावी-सच्छिष्यवृन्दैगुरुराजवर्यः । सबोधिदानैर्जनताः सुभच्या, उपाकरोदार्यमतिर्गरीयान् ।। २०९ ॥ (इन्द्रबत्रा)-आहोरसंज्ञं नगरं ततोऽगात्, प्राप्तप्रमोदाः सुजना: प्रणिन्युः। बेण्डाऽऽदिकाऽऽतोद्य-निनादगीत, सूरीश्वरोऽदादुचितोपदेशम् ।। २१०॥
(रथोद्धता)-गोदणाऽऽख्यनगरीमथाऽऽगम, विस्तृतैः प्रकृत-सजनोत्सवैः । प्राविशत्तदनु देशनामदा-च्छोवृजीवबहुबोधदायिनीम् ।। २११ ॥ (उपजाति:)-जालोरदुर्ग तत आययौ स, बेण्डाऽऽदिवाधैर्नेगरप्रवेशम् । व्यचीकरसंघमहेभ्यवर्गों, यथोचितं धर्ममुपादिशत्सः ॥ २१२ ।। (वैतालीयम् )-भमराणीमेतवानितो, जिनकृपाचन्द्रसरिराडसी । सम्मेनेsशेषसलका, सदसि सञ्जगौ धर्ममार्हतम् ॥ २१३ ।। (वसन्ततिलका)-राज्यस्थलाऽऽख्य-रमणीयमहापुरं स, आगात्सशिध्यनिकरैर्गुणवान यशोवान । तत्रस्थ-सर्वजनता नगरप्रवेशा-पूर्वोत्सवं गुरुवरस्य चकार भक्त्या ।। २१४ ॥
(वैतालीयम् )--मोकलसरमायताऽसकौ, विविध-वाय-गीतोत्सवैरमुम् । प्रावीविशत्सजितं पुरं, श्रीसंघः सकला
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तृतीयः सर्गः।
श्रीजिनकाचन्द्र
सरिचरित्रम्
॥८२॥
KHARASHTRA
सुभक्तितः ॥ २१५॥ (उपजातिः)--सीवाणदुर्ग तत एष ऐयः, महामहं तन्वदशेषसंघः । पूर्या समानेष्ट ददौ च देश-नामेष सूरिर्षनधीरनादैः ॥ २१६ ।। कुशीवनाम्नी नगरी ततोऽगात्, कुर्वन् विहारं शमताऽम्बुराशिः । सत्कृत्य पुर्यामनयच्च संघो, धर्मोपदेशैरुपचकवान् सः ॥२१७|| आओतराग्राममथो जगाम, सहर्षमेनं विविधोत्सवेन । प्रावीविशत्स्वं पुरमत्र संघ:, सूरिस्ततो धर्ममशेषमाख्यत् ॥ २१८ ।। विहृत्य तस्मादयमाजगाम, बालोतरानामपुरीमपूर्वाम् । प्रावेश्यताऽसौ महता महेन, सद्धर्मपीयूषमलं ववर्षे ।। २१९ ॥ (द्रुतविलंबितम् )-नगरवीरमपूरमथैत्य स, यकृत पार्श्वविभोरवलोकनम् । जलधिसंख्य-| मनेकविनेययुक, दहनतप्त-सुवर्णसुवर्णधृक् ॥ २२०॥ (विभावरी )--जसोलरम्यसत्पुरीमथाऽययौ, पुरस्थ-संघसत्कृतो भृशं सकः । तडिवतः स्वनोपमै खैरदात्, सभासु धर्मदेशनामघौघदाम् ॥ २२१ ॥ ( उपजातिः)--वालोतरामाप ततो द विहत्या, नानद्यमानेः पटहाऽऽदिवायेः । प्रविश्य तत्राऽप्यददिष्ट धर्मो-पदेशमेप क्षितकाममोहः ॥ २२२॥
(भुजङ्गप्रयातम् )- ततः पञ्चभद्रापुरीमाससाद, ससत्कारमेनं पुरि प्राणयन्त । प्रचक्रे स तस्मिन्नपूर्वोपदेश-मयं ज्ञानविज्ञानदानप्रदक्षः ॥२२३।। ततो विहृत्याऽऽगतवांश्च मूरि-लोचरां पा-बसु-ग्रहेन्दौ । वर्षेत्र पौराऽऽग्रहतः स तस्थौ, | प्रावृष्यनेके सह शिष्यवर्गः ॥२२४।। (शार्दूलविक्रीडितम् )--इत्याचार्यपदस्थितस्य मतिमच्छीमञ्जिनाऽऽदे। क्रपा-चन्द्रस्यैष विनिर्मिते बरगुरोः काव्ये चरित्रात्मके । श्रीआचार्यजयाऽब्धिनामविदुषा तत्पादपद्माऽलिना, चातुर्मासविहारवर्णनमयः सर्गस्तृतीयो गतः ।। २२५॥ ॥३॥
।। इति तृतीयः सर्गः समाप्तः ॥
।।८२॥
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अथ चतुर्थः सर्गः
KKKRKAR
(उपजातिः)--अथाऽसको श्रीजिनकीर्तिमरि-युग्माऽष्टनन्देन्दुमिते सुवर्षे । वालोतरायां पुरि निश्चिकाय, कर्तुं चतुर्मासमनेकशिष्यैः ॥ १॥ आसीत्तदा दुःसह उष्णकाला, समाप्तकल्पस्थितकतुकामः । वारं कियचाऽऽगत एप नाको-डातीर्थयात्राकृतये च तत्र ।। २॥ मार्गे जसोलाऽभिधपत्चनेऽसौ, तस्थौ कियन्तं समयं महात्मा । विलुम्पकाऽऽवासकदम्बपूर्णे, मनोरम चैत्यमसावपश्यत् ।। ३॥ (वसन्ततिलका)--आलोक्य तच्छिखरशोभितभव्यचैत्य, चाऽन्तः प्रविश्य जिनबिम्बमदेवताऽसौ। आशातना बहुविधा जिनमन्दिरस, कुर्वन् प्रदक्षिणमथाऽस्य गुरुलुलोके ॥ ४॥ तासां निराकृतिचिकीः सुगुरुमहीयान् , तत्रोपदिश्य बहुधा जनताः समेताः । देवाऽऽलयेऽनुचितकृत्यमुदीक्ष्य भन्या, निमन्ति नो नियतदुर्गतिमियूरतिह ॥५॥ अज्ञानिनां जनिमतां हृदि चिन्तनाथे-मावश्यकी जिनवरच्छविरागमोक्ता । छमस्थिता यह तद्विमुखा भवन्ति, तेऽधः पतन्ति न हि तस्य कदापि मुक्तिः।। ६ ।। एतद्विमृश्य सकला उचितप्रबन्ध, धर्माभिमानि-सुजनाः सधना महान्तः । पुण्यं महचिनुत चैत्यमिदं दयध्वं, न्यायोपपत्रकमलामचलां कुरुध्वम् ॥ ७॥ पीयूषतुल्यगुरुराजमहावाक्य-माकये सादरममुष्य गुरोः समक्षम् । वालोचरापुरनिवासिजना जसोल-ग्रामाऽधिवासिजनता उभये मिलित्वा ॥ ८॥ चन्दा विधाय परिलब्धधनस्तदैव, तस्योइति बिदधिरे प्रतिमार्चनाऽऽदि । कर्तु जनज विनियुज्य जना महेभ्या, आशातनां च सकलां गमयाञ्चकार(म्बभूवुः) ॥९॥ (युग्मम् ) लाभाऽतिशायमवगत्य ततो विहृत्य, मासे शुचौ शुभदिने समुपैच तत्र । वर्षतुवासकृतये सकलाश्च पौरा, विज्ञप्तिमस्य
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चतुर्थ
श्रीजिनकृपाचन्द्र-1
सूरि
सगे।
चरित्रम्
॥८३॥
बहुधा विनयेन चक्रुः ॥ १०॥ (मौक्तिकमाला )--बाहडमेराऽऽगत इह संघो, विज्ञपयामास तइब(१) सूरिम् । योधपुराचाऽऽगतकतिसंघाः, प्रार्थितवन्तश्च सुगुरुमेनम् ।। ११ ॥ (उपजातिः)--इत्थं त्रिविज्ञप्तिविबोधितोऽसौ, विबुध्य चाऽत्राधिकलाभयोगम् । बालोतरायां कतिभिः सुशिष्यैः, स्वयं स्थितः श्रीजिनकीर्तिसरिः ॥ १२ ॥ श्रीमस्तितः श्रीसुखसागराऽऽदीन् , योग्यांत्रिसाधून किल तैश्च सत्रा। संग्राहिणोद्योधपुरे सुखेन, श्रीसंघसन्तोषविधित्सयाऽसौ ॥ १३ ॥ (आर्यागीतिः)-तत उवाच मूरीन्द्रो, वाहडमेर-जेसलमेरश्रावकान् । नैकटिकत्वाद्ययं, प्रतिदिनमिहाऽऽगत्य सुखेन लाभयत ।। १४ ।। लप्स्यथ लाभ यूर्य, कार्तिक्या: पूर्णिमायाः परमवश्यम् । अधुना भज(१) सन्तोष, सम्प्रति मत्पाा नाऽस्ति तारङ्मुनिः ॥ १५ ॥ सन्त्यन्ये द्वित्रिमुनयः, साम्प्रतं तेऽपि विहरन्ति देशान्तरे | शाखेषु तेतिकुशलाः, पृथगपि चतुर्मासं कर्तुमर्हन्ति ।। १६ ॥
(आर्यो)--एकस्तेषां ज्यायान् , मदन्तेवासी सदुपाध्यायश्च । जयसागरमणिनामा, शास्त्राऽकूपारपारीणः ।। १७ ॥
(उपजातिः)--स श्रावकाणां बहुनाऽऽग्रहेण, पालीपुरे मदचसा चिकीर्षुः । वर्षर्तुवासं विचकास्ति तत्र, धर्माऽम्बुधारां घनवद्विवर्षन् ॥ १८॥ सिद्धान्तवेत्ता सदसद्विवेका, मरालवत्पद्मसरित्पतिश्च । दिल्ल्यां सुपुर्यामधुना स वर्तते, ददत्समेषा परिवोधमालाम् ॥ १९ ॥ विवेकयुक सागरनामधेयः, सुधीस्तृतीयो मुनिरस्ति योग्यः । कर्ता चतुर्मासमसौ सिरोया-मतोऽस्म्यशक्यः प्रहितुं सुसाधुम् ।। २०॥ भवन्त आगत्य सुखेन चात्र, पयूषणाऽऽदी पुरुषाः खियब । कुर्वन्तु सर्वेऽवसरे तदस्मिन् , धर्माऽऽदिकत्यं शुभभावयुक्ताः ॥ २१ ।। इत्थं सुधासोदरसद्वचोभिः, सोन् समभ्यागतभन्यलोकान् , सन्तपेयामास ततः प्रहृष्टा, निजं निजं पत्तनमागमस्ते ।। २२ ॥ (भुजङ्गप्रयातम्)--ततश्चन्द्रताराऽऽयशेषाऽनुकूले, सुघने सुयोगे
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बलिष्ठ च लग्ने । विवाहप्रयुगज्ञप्तिमत्रं पवित्रं, महत्यां सभायां समारब्धवान् सः ॥ २३ ॥ (तोटकम् )---हरिविक्रम-रम्यचरित्रमपि, स्तनयित्नु-रखोपमया सुगिरा । जनता अमिताः समुपेतवती-रनघः सुगुरुः समबोचदसौ ॥ २४ ॥
(द्रुतविलंबितम् )-प्रतिदिनं क्रमशो जनताऽऽगमः, शशिकरः सितपक्ष इवाऽवृधत् । प्रववृधे जिनबिम्बसमर्चनं, विविधसत्तपसामपि वर्द्धनम् ।। २५ ॥ (वंशस्थम )--अथाऽऽगते पर्युपणे सुपर्वणि, दिनाऽष्टकं भूरिविशेषसूत्सवैः । सहैप आचार्य | उदारशक्ति चतुष्प्रकारैः सकलैब संघकैः ।। २६ ॥ (गीतिः )--तत्र स्थित-खरतरगच्छीयवृहदुपाश्रयश्रीपूज्येन । उपाध्यायश्रीमदन-चन्द्रप्रमुखैः सद्भिः सानन्दम् ।। २७ ।। (उपजातिः)--प्रवर्धमानाऽधिकशुद्धभा-राराधयामास विशुद्धचेताः । श्राद्धैश्च सर्वैरयमाध एवा-प्राऽपूर्वलाभाऽवसरो बभूव ।। २८ ।। (कुलकम् ) मासार्धमासक्षपणं तथाऽष्टा-हीनं तपोऽजायत भूरिशोऽत्र । अभूतपस्या नव-पञ्चरङ्गी, बेला च तेला कियती प्रशस्या ।। २९ ।। स्वधर्मिवात्सल्यमभृदने कं, जिनेन्द्र पूजा विविधोपचारैः । प्रभावनाः श्रीफल-शर्कराऽऽद्यैः, श्रद्धालवः पौरजना व्यधुस्ते ॥ ३०॥ नानाविधं दानमशेषजीव-रक्षाकृते पौरजना अकार्षुः । अखण्डितं शीलमपुश्च सर्वे, जहुश्च साऽवद्यमशेषकृत्यम् ॥ ३१ ॥ आगांसि जातानि मिथः समस्ताः, क्षान्त्वा परैः संक्षमयाम्बभूवुः । कृत्येन तेनाऽपुनत स्वकायं, वैशुद्ध्यमापुः परमार्हता हि ॥ ३२ ।। इत्थं गुरोरस्य महोपदेशविचारशक्ति प्रतिपय बुद्धाः । प्रश्नोत्तराण्यप्यधिकानि कृत्वा, नराः खवेदप्रमिताः स्त्रियश्च ।। ३३ ।। द्वात्रिंशतः शाश्वतजैनधर्म-प्रकीर्तितामाईतबिम्बपूजाम् । स्वीचक्रिरे नित्यमुखाऽपिधान-मौज्झनचित्तं जलमेव पेयम् ॥ ३४ ॥ (युग्मम् ) अशुद्धमुच्छिष्टजलं सदैवाऽ-पेय तथा पयुपिताऽनकादि । न भक्षणीयं करणीयमर्चा-सन्दर्शन श्रीभगवत्सुमूर्तेः ।। ३५ ।। इत्यादि
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नानानियमांच सर्वे, ते लुम्पकाः साग्रहमाग्रहीषुः । एतद्गुरूणामुपदेशमाला, तत्राऽकरोच्छासनदीप्तिमित्थम् ॥ ३६ ॥ इत्थं प्रबोधजनताः प्रविद्वान् आरब्ध सूत्रं परमं पवित्रम् । चरित्रमप्येष समाप्य कार्ति-क्यां पूर्णिमायां विजहार तस्मात् ।। ३७ ।। देशीय - वैदेशिकलोकपुत्रैः, चातुर्विधैः संघजनैश्व सत्रा | चित्रोत्सवैरेष समस्त शिष्यैर्जलोलनाम्नीं नगरी पुनानः ।। ३८ ।। पुरातनाऽपूर्व सुतीर्थनाम्ना- डापार्श्वनाथं क्रमिकप्रवृद्धैः । भावैरुदैक्षिष्ट समस्तसंधै धन्यं च मेने निजकायमेषः || ३९ ॥ तत्राऽऽगमिष्यत्कियतां प्रतीक्षां कुर्वन् महीयान् गुरुभक्तिभाजाम् । तस्थौ दशाऽष्टाऽहमगाधबुद्धिराचार्यवयों जिनकीर्तिमूरिः ॥ ४० ॥ विहृत्य तस्मात्तलवाडनाम पुरं समागान्महिमाम्बुराशिः । पौराथ सर्वे मुदिता वितत्य, महोत्सवं तं पुरमानयन्त ॥ ४१ ॥ तद्देशना सौधरस-प्रवाहे, निमग्नतामापुरशेपलोकाः । विसस्मरुः स्वीयमशेषकृत्यमहासिषुर्मोहमयम्प्रपञ्चम् ।। ४२ ।। ततो विहृत्याऽऽगतवांश्च गोल-पुरीमनल्पैः सह शिष्यवर्गः । वेण्डादिवाद्यादिभि रागतं तं प्रवेशयामासुरशेषपौराः || ४३ || जीमूत-सन्नाद- सम-स्वनेन सूरीश्वरस्तत्र ददौ सभायाम् । महोपदेशं कतिजन्मजात - पापापहारं शिवसौख्यकारम् ॥ ४४ ॥ प्राप्तस्ततो वायतुनामपुर्या-माडम्बरैर्दीर्घतरैश्च पौराः । प्रावेशयन्ताऽधिककीर्तिमन्तं त्वेपोऽपि धर्मं समुपादिशञ्च ॥ ४५ ॥ ततो वणिग्राममुपाययौ स, भेर्यानकाद्यैर्विविधैः सुवाद्यैः । प्रविश्य सम्यक्त्वसुदाकर्त्री, सदेशनां पापहरीमदाच ।। ४६ ।। समागतो बाडमेरपुर्यां सूरीश्वरोऽसौ सह भूरिशिष्यैः । तदागमोत्थप्रमुदा सुपौराः, प्रावीविशंस्तं धिकोत्सवेन ॥ ४७ ॥ भवाब्धिपोतायितशुद्धधर्म-मुपादिशन्मेघगभीरनादैः । आचार्यवर्यः सदसि प्रकाम - मनन्तनिःश्रेयसलब्धिहेतुम् || ४८ ।। अत्याग्रहात्पौरजनस्य तत्र, सन्तस्थिवान्मासमसौ सुखेन । सन्धापयन्
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चतुर्थः सर्गः ।
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धर्मसुधां सुभव्यान, अनारतं श्रीजिनकीर्तिमूरिः ॥ ४९ ॥ चैत्यत्रयी गौरवसम्म चैक-मुपाश्रयो द्वाविह धर्मशाला । चैका विशाला परिवर्ति रम्या, ोक सरायो रमणीयपुर्याम् ॥ ५० ॥ सदोशवंशीयमहाजनानां, शतं गृहाः पश्च समुल्लसन्ति । सर्वा च संख्या वसतेः सहस्र, दिग्वा तिथिर्वा परिकीर्तिताऽस्ति ।। ५१ ॥ सा तालुमालाऽभिधयाऽपि लोके, प्रख्यातिमाप्ता नगरी किलपा । इतः प्रयाणं कृतवान् स जेश-लमेरुदुर्गे पुरलोद्रवे च ॥ ५२ ॥ प्राचीनचिन्तामणिपार्श्वनाथ-यात्राचिकीभूरिजनैः सहाऽसौ । आगत्य ढाणीनगरं स तस्थौ, ततो विशालामथमाजगाम ।। ५३॥ ततोऽभियातः पुरि कोटडायां, सुसस्कृतः पौरजनस्ततोऽगात् । शिवाऽभिधानां नगरीमितोऽपि, जराइसंज्ञं नगरं समागात् ।। ५४ ।। स मानवामभिगत्य देई-कोटं ययौ सरिवरः सशिष्यः । इतो विहृत्याऽऽगमदेप चोकी-मितो ययौ जेशलमेरमीयः ॥ ५५ ॥ प्रतीयते भनृपालराज-धानी पुराऽस्ति प्रथिता पृथिव्याम् । इह प्रवेशोत्सववाद्यनादै-र्धाधिर्यमापुः सकला दिशोऽपि ॥ ५६ ।। सुसजिता वाजिगणा जविष्ठाः, सिताऽऽतपत्रं शशिमण्डलाऽऽभम् । सुवर्णवद्धोज्जवलचामरा हि, वजा अनेका गगनं लिहन्तः ॥ ५७ ॥ जयाऽऽरव तन्वदशेषपौरा, ग्रामान्तरीया अमिता उपेताः। सुश्राविका भूषणभूषिताऽङ्गा, जगुः कलं मङ्गलरम्यगीतम् ।। ५८ ॥ इत्थं महाऽऽडम्बरतः प्रविश्य, पुर्यामसौ श्रीजिनकीर्तिमरिः । जन्नाणियोपाश्रयमेत्य तस्थौ, विनिर्जिताऽशेषविपक्षपक्षः ।। ५९ ।। सुधोपमा श्रीगुरुराज एष, सद्देशनां भूरि विबोधदात्रीम् । जन्माऽऽदिवित्रासविनाशकी-मुपादिशत्पापततिप्रहनीम् ॥६०॥ श्रद्धालवः श्राद्धगणा निपीय, तद्देशना-सौधरसं यथेच्छम् । नूनं गुरो! स्वम्भववाईि-पोता-यितोऽसि साद्गुण्यसरित्पतिस्त्वम् ।। ६१॥ न स्वादृशः कोऽपि विशुद्धधर्मो-पदेशक: सर्वकषायमुक्तः। वर्षति लोके बपरो मुनीशा, प्रसव
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कृपाचन्द्रसूरचरित्रम् ॥ ८५ ॥
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सन्तारय नः प्रपन्नान् ।। ६२ ।। इत्थं स्तुवन्तो गुरुराजमेनं, हृष्टाः समग्राः सुजना उपेताः । आप्तप्रबोधा गुरुराजरक्ता, निजं निजं वासमुपाययुस्ते ।। ६३ ।। (त्रिभिर्विशेषकम् ) अन्येद्युराचार्यवरो महीयांस्तत्रत्यदुर्गोपरि चारुरोह । चतुर्विधैः संघजनैः समेतो, जिनेशयात्राकृतये सहर्षः ॥ ६४ ॥ अष्टौ बसाः परिपन्ति तत्र पुर्यामधस्तादपि रम्यमेकम् । विशालचैत्यं गगनावलेहि, सुपार्श्वनाथीयमपूर्वमस्ति ।। ६५ ॥ एतच लोका नवमीं सुरम्यां, जल्पन्ति सर्वे वसही मिहत्याः दुर्गोपरिस्थाssदिमस सह्यां श्रीशले यो भगवान् विभाति ।। ६६ ।। श्रीआदिनाथो बसहीं द्वितीयां, श्रीमान् सदाऽलङ्कुरुते जिनेशः । चन्द्रप्रभाख्यो भगवांस्तृतीयां, तुर्यां तथाऽष्टापद एवं नित्यम् ॥ ६७ ॥ तां पञ्चमीं सम्भवनाथनामा, विभ्राजते शीतलनाथविम्बम् । पड्यां वसह्यां सदभीष्टदोहि चिन्तामणि श्री प्रभुपार्श्वनाथः ॥ ६८ ॥ विद्योतते सप्तमसद्वसयां, सीमन्धराऽदिर्जिनविंशतिश्च । तदन्तिमायां विचकास्ति नित्यं सुपार्श्वनाथो नवमाऽभिधायाम् ॥ ६९ ॥ सन्त्यष्टरन्ध्रप्रमितानि तत्र सद्गेहचैत्यान्यपराणि तेषु । सर्वेषु गत्वा जिनराजविम्बं व्यलोकत श्रीगुरुराज एषः ॥ ७० ॥ अस्ति द्वितीया वसही द्विभूमि- स्तृतीयिका सात्रिधरान्ती । शेषा वसाः परिपन्ति तत्रै-कभूमिका रम्यतरा महत्यः ॥ ७१ ॥ वेण्डाऽऽदिनानाविधवाद्यनादैः, सुश्राविकाणां कलगीतनादैः । विधाय यात्रां परया सुभक्त्या, ससंघ एषोऽधिजगाम वासम् ।। ७२ ।। कियद्दिनाऽनन्तरमेष तस्माद्, गव्यूतिदूरे दिशि चोत्तरस्याम् । तटाक एकोऽमरसागराऽऽख्यः, प्राच्यां प्रतीच्यां दिशि सन्ति तस्मात् ॥ ७३ ॥ भव्यत्रिचैत्यानि महान्ति भान्ति, श्रीमद्गुरूणामतिमज्जुलानि । श्रीप्येव सद्मानि महत्तराणि, छुपाश्रयाणां त्रितयी विशाला ॥ ७४ ॥ (तोटकम् ) -- वनखण्डमनेकमिहाऽस्ति बृहत् सकलाऽऽर्तवसौख्य- विशेषददम् । अखिलाऽऽगत यात्रिकचित्तहरं, बहुधा
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चतुर्थः सर्गः ।
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विहगोत्कर-रम्यरुतम् ।। ७५ ।। इह यात्रिकवृन्दनिवासकते, परमर्द्धिककारितधर्मगृहाः । कमनीयतमा अतिदीर्घतमा, न्यवसत्रि दिनानि सुधीरनघः ॥ ७६ ।। ( उपजातिः)-त्रिक्रोशदूरे तत एप मूरि-र्वायव्यकोणे पुरलोद्रबाऽऽख्यम् । प्राचीनतीर्थ फलदं हि सद्यो, वेविद्यते पावनकारि लोके ॥ ७७ ॥ फणासहस्राधिकशोभमान-श्चिन्तामणिश्रीप्रभुपार्श्वनाथः । नवाम्बुदश्यामलकान्तिकान्त-स्तत्तीर्थनाथो विलसत्यजस्रम् || ७८ ।। ( वसन्ततिलका)-तन्मूलमन्दिरसमक्षविशोभमानः, सन्दीप एकतिलकाऽभिधतोरणोऽस्ति । सत्पीतरम्यपदारचितोऽतिभव्यः, सूक्ष्मप्रशिल्पनिकरैरतिसुन्दरो हि ।। ७९ ॥ वीयाय लक्षममुकस्य विनिर्मितो हि, स्तम्भद्वये वसुजिनच्छवयो ललन्ति । साक्षादिवाऽऽकृतिमिता अतिहारिरूपाः, सम्पश्यतां मनसि तोषविशेषकर्यः ।। ८०॥ (उपजातिः)-प्रदक्षिणायाः पथि मन्दिरस्य, प्राच्य सुचैत्यं प्रथमाऽहतश्च । याम्यां दिशायामजितप्रभूणां, सचैत्यमेवं दिशि पश्चिमायाम् ।। ८१॥ श्रीमत्प्रभोः सम्भवनाथकस्य, कौवेरिकायामपि भथ्यचैस्यम् । बामेयचिन्तामणिसत्प्रभूणां, मूर्द्धस्थशेपाऽखिलसत्फणानाम् ॥ ८२ ॥ (क्षमा)-त्रितयललितवमाऽतिशोभोल्लसत् , सुरविटपिघनच्छायमत्युज्वलम् । समवसरणमेतस्य पार्श्वप्रभो-विलसति निकटे सर्वचेतोहरम् ।। ८३ ।। (स्रग्धरा)-तन्मध्येऽशोकवृक्षो विलसति रुचिरो द्वौ ततः प्राचि संस्थौ, याम्यां चत्वार ईड्या वरुणदिशि तथाऽष्टौ जिनेन्द्रा लसन्ति । कौवेयाँ भान्ति तद्वद्दश जिनपतयः सर्वकर्मप्रमुक्ताः, प्रोचप्राकार एतञ्जिनभवनबहिर्वर्तुलो वर्वृतीति ।। ८४ ॥ (उपजातिः)-प्राहहिर्मन्दिरसम्मुखीन:, सुचत्वरो दीर्घतरोऽभितश्च । तत्राऽस्ति सत्सौधविशालपङ्क्ति-र्वामे च दक्षे रुचिराऽऽनुपूर्त्या ।। ८५ ।। उपाश्रया देवगृहा गुरूणां, सभानि रम्योपवनानि तत्र । वाप्यस्तटाका बहुशो लसन्ति, सरांसि कुण्डानि च पावनानि ।। ८६ ॥ सद्भव्यबृन्दैः
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परिषेव्यमानो, विमानतुल्यो विलसत्प्रभावः । पापौघनाशी सदभीष्टदायी, जागर्ति सत्पावनतीर्थ एषः ॥ ८७ ॥ समञ्च संघेन चतुर्विधेन, श्रीसूरिराजः समुपेत्य तत्र । प्रवृद्धभावेन विधाय यात्रां, दिनाऽष्टकं सोऽत्र सुखेन तस्थौ ॥ ८८ ॥ त्रिक्रोशदूरे वरिवर्तितस्मात् पुरं रूपस्यावरमीसरश्च । प्रायस्ततः क्रोशमितान्तरले, संस्थापिते श्रीगुरुपादुके स्तः ।। ८९ ।। कुण्डश्च तत्राऽस्ति यदीयवारि, ग्रीष्मे समुच्छल्य वहत्यजस्रम् । खगा मनुष्याः पशवश्च तद्धि सुशीतलं मिष्टतरं पिबन्ति ।। ९० ।। महाचमत्कारिकतीर्थ केऽस्मिन्, जिनेश्वराणां गुरुपादुकाssदे । सन्दर्शनं तत्स्तवनं विधाय भक्त्या ससंघस्तत आजगाम ।। ९९ ।। सूरीश्वरो लोद्रवयुक्पुरं हि समागमच्चाऽमरसागराऽऽरव्यम् । महातटाकं सह सर्वसंधै-मधेऽसि शैलसुतासुतिभ्याम् ।। ९२ ।। चक्रे गुरुज्जेशलमेरतीर्थ-यात्रामपूर्वामयमाद्यवारम् । निःसीममानन्दमतच लेभे, श्रीमान्महीयान् जिनकीर्तिसूरिः || ९३ || पुर्याश्चतुर्दिक्षु महान्ति सन्ति, क्रोशार्धदूरे गुरुमन्दिराणि । प्रायोऽत्र वर्षं जनताऽऽग्रहेण, सच्छिष्यवर्गः सह तस्थिवांश्च ।। ९४ ।। स वर्जयित्वा चतुरश्र मासान् शेषेषु मासेषु च मासकल्पीम् । सत्पद्धति पातुमनेकयात्रां विधातुकामो व्यहरत्पुराssदौ ॥ २५ ॥ चिन्तामणि श्रीप्रभुपार्श्वनाथ-यात्राचिकीलोंद्रवयुकपुरे हि । गमाssant शिष्यदलैश्च सत्रा, कुर्बाण आसीद्गुरुराजवर्यः ॥ ९६ ॥ चतुर्दशी तावदुपाजगाम, तस्मादसौ सर्वजनाऽऽग्रहेण । यष्टा- चन्द्रप्रमिते च वर्षे, तत्र स्थितः प्रावृषि सूरिराजः ॥ ९७ ॥ सर्वर्द्धिमज्ञेशलमेरपुर्यां कुर्वश्वतुर्मासमसौ महीयान् । उपादिश्य (आदिश्य) संघ जिनभद्रसूरि - संस्थापितानां बहुपुस्तकानाम् || १८ || सत्तालपत्रोपरिलेखितानां, सुजीर्णतां प्राप्तवतां समेषाम् । समुद्दिधीर्षुर्जिनकीर्तिमूरिः, प्राजूहवल्लेखकवर्गमेषः ।। ९९ ।। ( युग्मम् ) नानाप्रतीस्तैर्बहुलव्ययेन, प्रालेखयच्छुद्ध
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तराः सुयत्नात् । तान्यागमीयानि च पुस्तकानि तत्रत्यकोशे समतिष्ठिपच ॥ १०० ॥ अवाचयत्सूत्रकृताङ्गमत्र, तथा चरित्रं हरिविक्रमस्य । नानाविधान्युज्वलसत्तपांसि स्त्रियः पुमांसश्च सुखेन चक्रुः ॥ १०१ ॥ देशादनेकादुतिदूरतो हि तद्देशिनां चाऽत्र समागतानाम् । तत्तीर्थयात्राकृतये गुरुणा-मालोकनार्थ बहुसञ्जनानाम् ।। १०२ ।। उपस्थितिर्भूरितरात्र जज्ञे, सुधासहक्षामघताऽपडत्रम् । सदेशनामस्य गुरोर्निशम्य, हर्षप्रकर्षं दधिरेऽप्यशेषाः ॥ १०३ ॥ ( युग्मम् ) समागते पर्युपणे क्रमेण, पर्वाधिराजे मनआदिशुद्ध्या । सदान-शीलाऽधिक-सत्तपोभि-राराधयामासुरविघ्नमेतत् ।। १०४ ।। तथाऽऽश्विने शुक्लदले सुखेन, चाऽऽयम्बिलौलीत्यभिधानपर्व । सद्दीपमालाsभिधपर्वसौभाग्यपञ्चमी पूर्वमहामहेन ।। १०९ ।। ऊर्जेच शुक्लाseमिकासुपर्व, यथाक्रमं सर्वजनाः सुभक्त्या । समारराधुर्दुरखापत्रोधि - बीजं समापुर्गुरुराजयोगात् ॥ १०६ ॥
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( इन्द्रवंशा) — चक्रुचतुर्मासिकसम्प्रतिक्रमं सानन्दमानन्दघनं प्रपित्सवः । सार्वद्विमासाऽवधि सर्वसाधवः सन्तापता अभवन्ननारतम् ।। १०७ ।। तस्माच्चतुर्मासपरेऽपि साधवः, साध्यश्च तत्रैव पुरेऽधिसंस्थिताः । शक्ति विहर्तुं लभन्त नैतके, पौपेsसिते पक्षतिकाऽवधिं यतः ॥ १०८ ॥ ( इन्द्रवच ) - एकादशीं साहसमौननाम्नीं, सत्पर्वरूपां दशमीं च तैषे । आराध्य पौपाsसितसद्दशम्यां तल्लोद्रवीयामकरोच यात्राम् ।। १०९ ।। पुनस्ततो जेशल मेरमेत्य, सहस्य शुक्ले कतिथौ ततोऽसौ । सूरिचतुर्धात्मकसंघयुक्तः, सह व्यहार्षीनिजशिष्यवर्गेः ॥ ११० ॥ ( आर्यागीति: ) – मोकलसर - वासणपी-र-पीर चौकी चांदणसोढा-कोरम् | लाट्ठि-धोलिया ओडा - णीयो- पोकर्णाऽऽदिका नव ग्रामाः ॥ १११ ॥ ( आर्या ) - चम्पावतराजपुत्र - श्रीरामदेवाऽभिघठकुराणाम् । प्रधाना राजधानी, कथ्यते प्राक्तनैः पुम्भिः ॥ ११२ ॥ ( इन्द्रवंशा ) - सन्ति त्रयोऽस्मिन् सुजिनेश्व
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भीजिनकृपाचन्द्र
बरिचरित्रम् ॥८७॥
चतुर्थः सर्गः।
HARRAM
राऽऽलया-स्तावन्त एवाऽत्र लसन्स्युपाश्रयाः। प्राचीन एकोऽस्ति तडाग उजवल-स्तस्योपरिष्टा गुरुराजमन्दिरम् ।। ११३ ।। अस्त्येष सद्देवविनिर्मितो महान् , सुस्वादुपानीयसुपूर्णतां गतः । तस्मिन् पयोमानमवाप नो हि ना, माहात्म्यमस्याऽधिकमस्ति कीर्तितम् ॥ ११४ ।। (दुतविलंबितम्)-प्रथितलोद्रवपत्तनसंस्थितं, दशयुतं वरकुण्डमपि स्फुटम् । महति पोकरणे
नगरेऽपि च, य उदितो बहुदीर्घतडागकः ॥ ११५ ॥ (तोटकम् )-अजमेरपुराऽनतिदूरगते, बहुपावनपुष्करनाम्नि पुरे । है। रमणीयतडागवरो गदितः, प्रथितो जगतीतलके सकले ॥ ११६ ॥ (उपजातिः)-प्रभावती नाम सुरी किलका, चक्रे च का तांत्रीनपि दिय्यशक्तिः । दुष्कालके घोरतरेऽपि जाते, न हीयते वारि कदापि तेपाम् ॥ ११७ ।। श्रद्धालवो धर्मरताश्च लोका, गार्हस्थधर्मानखिलानयन्तः ' देबे गुरौ चापि सुभक्तिमन्तो, बसन्ति तस्मिन् कमलाविशालाः ।। ११८ ।।
(शार्दूलविक्रीडितम् )-वाप्याली-वनखण्ड-कूप-रुचिराऽऽरामा अमुष्यां पुरि, वर्तन्ते परितः सुवप्रपरिखा सत्तोयपूर्णा सदा । अम्भोजानि लसन्ति तत्र विविधाऽऽकाराणि फुल्लानि बै, भृङ्गाऽऽलीपरिषेवितानि विहगश्रेणीसुजुष्टान्यपि ॥ ११९ ॥ एतस्यां पुरि चागतं गुरुवरं संघश्चतुर्धाऽऽत्मका, सद्धेण्डाऽऽनक-काहलाऽऽदिविविधाऽऽतोद्यप्रणादरमुम् । शङ्खाऽऽराव-सुझल्लरी-खरमुखीत्याद्यकतूर्यस्वने-रागत्याऽभिमुखं प्रणम्य विधिवच्चारूत्सवैरानयत् ।। १२०। गच्छन्तं पुरि सूरिराजमनघं सच्छिध्यवर्गः श्रितं, सानन्दाः पुरवासिनः प्रतिपथं सद्भाववृद्ध्याऽऽदरात् । माङ्गल्याय शुभाऽक्षतरतितरां संवर्द्धयन्तो गुरुं, साम्भ:श्रीफलकैश्च तेऽधिकमुदाऽपूर्वोत्सवं चक्रिरे ॥ १२१ ।। (उपजातिः)-इत्थं महीयान् बहुलब्धकीर्तिः, सञ्जातचारूत्सवतः समेत्य । उपाश्रयं सूरिवरः सुवाचा, प्रारब्धवांश्चारुसुदेशनां सः ॥ १२२ ॥ समस्त दुःखाऽऽशुनिराकरिष्णुं, निःशेषमाङ्गल्य
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॥८७॥
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वितानकर्त्रीम् । सुधोपमां संसृतिनीरराशी, पोतायमानां द्रुतबोधदात्रीम् ।। १२३ ।। ( युग्मम् ) आकर्ण्य सर्वे सुजनाः प्रसेदुः, सम्पीय सूरीश्वरवक्त्रचन्द्रात् । धर्मोपदेशाऽमृतमद्रसं ते, कामप्यपूर्वी परिमापुः ।। १२४ ॥ सञ्जातमार्गश्रममेष सूरीश्वरोऽपनेतुं दिवसं द्वितीयम् । व्यत्यैच्च तत्रस्थजिनेश चैत्या-न्यालोकताऽशेपजनैरुपेतः ।। १२५ ।। स्थितं तटाकोपरि गौरवं यत् सुमन्दिरं दृश्यतरं प्रसिद्धम् । आलोक्य तचेतसि मोदभारं बभार निःसीममसौ प्रविद्वान् ॥ १२६ ॥ चक्रे विहारं दिवसे तृतीये, तस्याः पुरः श्रीजिनकीर्तिसूरिः । तत्पञ्चपीरं नगरं समेत्य, धर्म विशुद्धं समुपादिशत्सः ॥ १२७ ॥ ततो विहत्यागतवांश्च पीप - लीपत्तनं पौरजनोऽप्यमुष्य । पुरप्रवेशोत्सवमुत्तमं हि व्यधाददौ सोऽथमहोपदेशम् ॥ १२८ ॥ क्षोणी पुरं प्रापदितो विहृत्य, विधाय संघोऽथ समुत्सर्व हि । पुराऽन्तरानेष्ट गुरुस्ततोऽसौ, धर्मोपदेशैः सकलं तर्ष ।। १२९ ।।
( इन्द्रवंशा) - आगच्छदस्मात्फलवर्द्धिपत्तनं, संघश्चतुर्धा ह्यवगत्य सङ्गतम् । तत्रत्य आगत्य ततोऽस्य सम्मुखं, बेण्डाऽऽदिकाssतोयलसन्महोत्सबैः ॥ १३० ॥ तं भूरिभक्त्या विधिनाऽभिवन्द्य, सर्वो हि पौरः प्रथितप्रभावम् । प्रावीविशत्सूरिंगणेन्द्रमेनं प्रेक्षावतामादिममद्वितीयम् ॥१३१॥ ( युग्मम् ) अटाट्यमानस्त्रिचतुष्पथाऽऽदौ, चेक्रीयमाणो जिनदर्शनं सः । ईर्यासमित्या परिशोधयन् हि मार्ग समागच्छदुपाश्रयं च ॥ १३२ ॥ ( वंशस्थवृत्तम् ) - ततश्च पीयूषसमानदेशनां भवाब्धिपोतायितकर्णदाम् । अघौघ-कुधोत्करवज्ररूपिणीं ददौ गुरुर्मुक्तिविलासिनीसखीम् ॥ १३३ ॥ ( उपजातिः ) – महीयसचाऽस्य विशेषधर्मोपदेशमाकर्ण्य समस्तसभ्याः । असीमसन्तोषमलप्सतैतन्, माघे सिते धातृतियाँ बभूव ॥ १३४ ॥ परेद्युराचार्यबरोऽवशिष्ट-जिनेश्वरीयाऽखिलचैत्यकानाम् । सगौरवाणामपि मन्दिराणा- मालोकनं सम्यगसौ चकार ॥। १३५ ।। कालं
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सूरिचरित्रम् 11 44 11
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कियन्तं गमयाञ्चकार, तत्रैव तिष्ठन् प्रतिबोधयन् हि । जीवांश्च भव्यान् गुरुदेवभक्ताशलेयोदितशुद्धधर्मम् ।। १३६ ।। कियदिनाऽनन्तरमिभ्यकृष्ण-लालाभिधः संपतलालसूनुः । लूनावतीयो महता महेन, रथोत्सवं रम्यतरं विधाय ॥ १३७ ॥ सार्धं चतुर्धात्मकसंघ केनाऽऽचार्य गरिष्ठं जिनकीर्तिमूरिम् । अत्यन्तमागृह्य खिचन्दनाम्नि, सत्पत्तने सादरमानिनाय ।। १३८ ॥ ( युग्मम् ) तत्राऽस्ति भव्यं जिन चैत्यमेकं स्नात्राऽर्चनं तत्र यथाविधानम् । आष्टाकिखाभवदुत्सवो हि, सत्स्वामिवात्सल्यमभूदजस्रम् || १३९ || प्रभावना श्रीफल -शर्करा - नानाप्रकारी (श) जिनराजपूजा । अकारि तेनेभ्यवरेण भक्त्या, दानं यथावित्तमपि प्रचक्रे ॥ १४० ॥ पुनः सर्वैः सह शिष्यवृन्दैः, शेश्रीयमाणाऽमलपादपद्मम् । श्रीमन्तमाचार्यवरं च तत्रैवानीतबान् रम्यपुरे सुखेन ।। १४१ ।। अथैकदा मासिककल्पपूर्णे, विहर्तुमुद्युक्तगुरुं गरिष्ठम् । व्यजिज्ञपचैत्य मुदा गुलेच्छा-गोत्रीयसु श्रावकभावपूर्णः ॥ १४२ ॥ माणिक्यलालोऽप्यथ सम्पताऽऽदि-लालाऽनुगः श्रीगुरुराजवर्य । श्रीकृष्णलालाऽभिघ इभ्यवर्यो, लूनावतीयो भवदाज्ञया हि ॥ १४३ ॥ सार्धं सहस्रं द्रविणं स्वकीयं, संवीत्य रम्यां रथकीययात्राम् । निष्काश्य लेमे बहुलाभमेप, ततान कीर्तिं महतीं पृथिव्याम् ॥ १४४ ॥ (त्रिभिर्विशेषकम् ) तदन्यमप्येष यथाऽऽत्मशक्ति, लब्धुं प्रयत्नं कुरुतेऽतिवेलम् । ममाऽपि चित्ते समुदेति भावः, सद्भाग्ययोगाय दुपागतस्य ॥ १४५ ॥ कषायमुक्तस्य परोपकर्तुः, संसार - घोरार्णव तारकस्य । तवेदृशाऽमोघमहोपदेश- माकर्ण्य नित्यं सुविदां वरिष्ठ ! ॥ १४६ ॥ चतुर्विधैः संघजनैः सहाऽहं सत्तीर्थयात्रां चरिकर्तुमीहे । तस्यां त्वयाऽवश्यमशेषशिष्यै - गन्तव्यमित्यस्ति मनोरथो मे ॥ १४७ ॥ ( त्रिभिर्विशेषकम् ) अनुग्रहं मय्यपि संविधे हि, पिपूर्ति में काममनुं ध्रुवं त्वम् । पुनीहि मे कायमिदं च वित्तं, श्रीमन् ! गुरो ! ते शरणं गतोऽ
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स्मि ।। १४८ ।। तदीयविज्ञप्तिमसौ निशम्य, तमब्रवीत्परिवरस्तदेत्थम् । धर्मिष्ठ ! सुश्रावक! तावकीनोऽन्त्यन्तप्रशस्योऽस्ति | मनोरथोऽयम् ॥ १४९ ।। न्यायेन सम्पाद्य धनं घनं या, सद्धर्मकृत्यं कुरुते स धन्यः। आराधितोऽयं किल धर्मकल्प-तरुः समस्तं ददते नराणाम् ॥ १५० ।। तवानुरोधात्सह शिष्यवगै-रवश्यमैतास्मि सुकृत्यकेऽस्मिन् । पूर्णे च मासे विजिहीपुरस्मि, झेका क्रिया व्यर्थकरी किलैवम् ।। १५१ ॥ कियांश यातः समयो ममापि, श्रीओशियातीर्थबिलोकनाय । अतो भवद्भिः सह गन्तुमिच्छा, जागर्ति सम्प्रत्यनघा ममाऽपि ॥ १५२ ।। तस्मिन् किले ब्रुवति प्रहृष्टः, श्रीसूरिराजे जिनकीर्तिमरौ । सम्पाद्य सर्वामचिरं तदीयां, सामग्रिको संघमचीचलत्सः ।। १५३ ।। माणिक्यलालाऽभिध-सम्पताऽऽदि-लालप्रमुखो निरगाच्छुमेऽहि । संघश्चतुर्धा दिशि दक्षिणस्या-मागत्य तस्थौ चिखलानगर्याम् ।। १५४ ॥ ततश्चलन् संघदल: सुखेन, लोहावटाऽऽख्यं पुरमाजगाम । तरिंमच पूर्वाऽपरसंविभागौ, तदन्तरे गौरवमन्दिरं हि ।। १५५।। इष्टेशनं चाऽपि सुरम्यमस्ति, सझमयानस्य महाविशालम् । पूर्वो विभागः प्रथितश्च जाटा-वासेतिनाम्ना सकलप्रदेशे ॥ १५६ ॥ परश्च भागो विसनोयिवास-नाम्ना प्रसिद्धिं गतवानिहाऽस्ति । तत्रत्यपूर्वीयविभागवासी, श्रीसंघमे(ए)तं परमाऽऽदरेण ॥१५७ ।। वेण्डाsदिवाद्यैः पुरमानिनाय, श्रीमांस्ततः सूरिवरः सभायाम् । सङ्घद्वयीमण्डलमण्डितायां, विनिर्जिताऽम्भोद-निनादरावैः ॥ १५८ ।। संसार-दुष्पार-समुद्रतारं, सद्धर्ममेदस्फुटताऽभिरामम् । सुधोपमं श्रोतमनःप्रसादं, धर्मोपदेशं ददिवानपूर्वम् ॥ १५९ ।। (युग्मम्) सुदेशनामस्य गुरोनिशम्य, शिरो धुनानाः सकला हि सभ्या: । अपूर्वमीष्म गुरोरमुष्य, मुखारविन्दादिति सञ्जजलपुः ॥ १६० ।। ततश्च सर्वे त्रिचतुर्दिनानि, स्थातुं किलाऽत्रैव समाग्रहीषुः । उवाच सूरिः सकलांस्तदानीं, नैवाऽधुना
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कृपाचन्द्र
सूरिचरित्रम्
।। ८९ ।।
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स्थातुमलम्भवामि ।। १६१ ।। ततः परावृत्य सुखेन चाहें, कालं कियन्तं स्थितिमत्र कृत्वा । मनोरथं वः परिपूरयिष्ये, तावच धर्मं सकलाः कुरुध्वम् ।। १६२ ।। (इन्द्रवज्रा ) - तानेवमाख्याय ससंघसूरिः, प्रस्थाय तूर्णं तत आजगाम । घाणीपुरं किन्तु समस्तसंघ - स्थानासच्वात्पुरतश्चचाल ।। १६३ ।। गव्यूतियुग्मोपरि हारलाया - मागत्य संघो न्यवसद्विरात्रम् । ततचलित्वा पुनरेष पश्च-क्रोशोपरिष्टाद्विककोरमागात् ॥ १६४ ॥ इतः शरकोशिकमोशियाख्यं सत्तीर्थमासादयदेप संघः । विलोक्य तीर्थेशमशेपसंघो, विधाय यात्रां प्रमुदं प्रभे ।। १६५ ।। पूर्व हि तत्तत्समये बभूवुः, श्रीनाभिनुप्रमुखा महिष्ठाः । बामेयपाऽन्तिमकाथ सिद्धा, जिनात्रयोविंशतिसंख्यका हि ॥ १६६ ॥ तेष्वस्य पार्श्वादिकनाथकस्य, सत्पुरुषाऽऽदेयतरस्य गच्छाः । अष्टौ गणेशा अपि तत्प्रमाणाः, काले च तस्मिन्नभवन् सुवन्याः ॥ १६७ ॥ यथा शुभंयुः शुभदत्त आर्य घोषो
प्रचारी | सौम्यस्तथा श्रीधर वीरभद्रौ यशोधरश्वाऽष्टगणाऽश्विनाथाः ॥ १६८ ॥ कर्तार एते पृथगेव ते स-माचारिकायाः सकला गणेशाः । मिथो विभिन्नाऽऽचरणा बभूवन् पृथक् पृथक ते रचयाम्बभूवुः ।। १६९ ।। ते द्वादशाङ्गीमथ वाचनापि, जाता यमीपां पृथगेव लोके । तस्याश्च भेदे हाभवन् हि गच्छा, अष्टौ प्रसिद्धा अवनीतलेऽस्मिन् ॥ १७० ॥ श्री पार्श्वनाथप्रभुततुर्थ पट्टावधिं मोक्षमुपेयिवांसः । युगान्तकृद्भूमिमिदं वदन्ति परावरज्ञा ऋपयो महान्तः ॥ १७१ ॥ श्री पार्श्वनाथप्रभुकेवलज्ञानोत्पत्तिपश्चातृतयाऽब्दतो हि मोक्षः प्रवृत्तोऽभवदेव पर्यायान्तप्रभूमिरुदीर्यते तत् ।। १७२ ।। अमुष्य शिष्यः शुभदच आयो, द्वितीयशिष्यो हरिदत्तनामा । केशी तृतीयोऽभवदार्ययुक्त-समुद्रनामा समभूच्चतुर्थः ।। १७३ ।। स्वयम्प्रभोऽभूदथ पञ्चमश्च, रत्नप्रभश्चाऽभवदेप पष्ठः । निशम्यतेऽनेकचिरन्तनाऽऽस्या-द्वत्तं किलैतद्बहुधा मया हि ॥ १७४ ॥
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चतुर्थः सर्गः ।
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सूत्राऽनुसारात्तु विनिधिनोमि, केशीकुमारः श्रमणो महीयान् । नाऽन्तेसदस्येति परम्परातो, यद्गौतमाऽन्तेसदयं बभूव ॥१७५।। आवस्तिकायां पुरि सङ्गतौ तौ, केशीकुमारो मुनिगौतमश्च । प्रश्नोचराभ्यां सुचिरं कृताभ्यां, श्राद्धाऽऽदिवर्गाऽश्चितसत्सभायाम् ॥ १७६ ॥ (वसन्ततिलका)-स्वस्वाऽन्तवासिमुनिवृन्दमनःस्थ-शङ्का, उत्साये गौतममुनि प्रणिपत्य केशी । तुर्यात्मकवतमयं परिहाय धर्मम् , पश्चव्रताऽऽत्मकमुरीकृतवांश्च धर्मम् ॥ १७७ ॥ इत्थं जगाम भगवत्प्रभुगौतमीय-शिष्यत्वमेष मुनिराद् श्रमणः स केशीतद्वधमानजिनशासन-वर्तमानो, लात्वा निदेशमथ गौतमसहरूणाम् ।। १७८ । (उपजातिः)-कशीकुमाराभिधसन्मुनीन्द्र-स्ततोव्यहात्सिह शिष्यवनः । देशे बनेके बिहरन् (देशेष्यनेकेषु चरन्) सुभव्यान् , प्रबोधमानः समवाप्तवान्सः ।। १७९ ।। (इन्द्रवंशा)-कैवल्यविज्ञानमनन्तमुज्वलं, त्रैकालिकाऽशेषसदर्थदर्शकम् । भूवं भविष्यत्सकलं ततोऽसकौ, जाननजस्रं बिजहार सर्वतः॥१८०॥ (त्रिभिर्विशेषकम्)(उपजातिः)-जैने च धर्मे जनताममोघ-स्वदेशनाभिः समतिष्ठिपत्सः । प्रान्ते च कृत्वाऽनशनं स केशी, हृत्वा (हत्वा)चतुष्कर्म गतश्च सिद्धिम् ॥ १८१॥ तदीयपट्टावलिकाक्रमोऽयं, श्रीवर्द्धमानप्रभुपट्टकेऽस्थात् । श्रीगौतमस्वामिवरो हि सिद्धः, पट्टे तदीये निषसाद केशी ॥ १८२ ।। तदासने चाऽऽर्यसमुद्र आसीत् , तत्पडमेरावुदियाय भानुः । इव प्रदीपः कमनीयमूर्तिः, स्वयम्प्रभाचार्यवरो महीयान् ॥ १८३ ।। अमुष्य पट्टे सममूच रत्न-प्रभाभिधाचार्यवरो गरीयान् । आसन् किलैते दश-तुर्यपूर्व-वेत्तार ईच्या जगदद्वितीयाः॥ १८४ ॥ | बीराच पञ्चाशति सप्ततौ वा, वर्षेऽस्य सत्ता स्थविरावलीषु । कृत्वा शरीरद्वयमेककाले, चके प्रतिष्ठां नगरद्वयेऽसौ ॥ १८५ ॥ महोपकेशाऽभिधपत्तनं स, पमारगोत्रीपलदेवनामा । दिल्लीस्थ-मौहम्मद-साधुसाहि-पुरुसेनसाहस्यमहीशितुर्हि ॥ १८६ ।।
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कृषाचन्द्रबरिचरित्रम्
॥ ९० ॥
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साहाय्यमासाद्य कुमारकोऽसौ संवासयामास गरिष्ट्रयत्नात् । पूर्वाऽपरीयं किल मानमस्य, समीरितं योजनषट्कमेव ॥ १८७॥ ( युग्मम् ) याम्योत्तरीयं तदभूभत्रको - शमात्रकं सर्वगुणाऽभिरामम् । रत्नप्रभाचार्यमहोपदेशात्, सुवासितेऽस्मिन्नगरे मनुष्याः ।। १८८ ।। लक्षत्रयत्रि-द्विसहस्रसंख्या, वसन्ति सर्वे धन-धीलसन्तः । सत्कृत्य रक्ता गुरुदेवभक्ताः, सजैनधर्म परिदीपयन्तः ॥ १८९ ॥ ( युग्मम् ) आचार्यवर्य प्रतिबोधितानां तत्पत्तनीयाऽखिलजैनिकानाम् । गोत्राणि चाऽष्टादशसंख्यकानि यातानि लोके सकले प्रसिद्धिम् ।। १९० ।। तेषां समेषां महती सुरी चामुण्डेति नाम्ना जगति प्रसिद्धा । कुलप्रपूज्या सकलेष्टकर्त्री, पोपूज्यमाना च्छ्गलादिभिः सा ।। १९१ ।। हिंसानिवृच्या जनतासुखाय, रत्नप्रभस्तां वशगां विधाय । स्वमन्त्रशक्त्या कुलदेवतां हि, छागादिहिंसां समजीहपत्सः ॥ १९२ ।। साऽवक् तदा सूरिवर! त्वयाऽहं यद्वश्चिता तेन जना हि जैनाः । नैवात्र वत्स्यन्ति न चेह वृद्धिं यास्यन्ति शापं कुपिता ददौ सा ॥ १९३ ।। पौरास्ततो भूरिसुमिष्ट भक्ष्य-पेयाऽऽदिभिस्तां परिपूज्य भक्त्या । रक्तं कनिष्ठाऽङ्गुलिकीयमस्यै, दातुं प्रलना अथ सा प्रसन्ना ।। १९४ || जगाद भय्या ! न हि वश्मि रक्तं, विगर्हितं तन्न हि मे प्रदेयम् । जाता तदारभ्य विशेषभक्ता, रत्नप्रभाऽऽचार्यगुरोरमुष्य ॥ १९५ ॥
( इन्द्रवंशा) – सम्यक्त्वघात्री सकलानुकम्पिनी, जाता ततः श्रीपरमेष्ठिमत्रिणी । मांसाद्यभक्ष्यं मनसाऽपि सा सुरी, नाचीकमज्जातु महाऽऽर्द्धता सती ॥ १९६ ॥ ( तोटकम् ) - तदनुपलदेवकुमारवरो, हरिमन्दिरमत्र चिकीर्षुरभूत् । दिवसे कृतकुड्यममुष्य निशि न्यपतत्कतिवारमशेषमपि ॥ १९७ ॥ ( उपजातिः ) - तदद्भुतं वीक्ष्य कुमारको हि, समेत्य शीघ्रं गुरुराज मेतत् । पप्रच्छ कस्माद्धरिमन्दिरस्य विनिर्मितौ मे बहुविघ्न एति १ ।। १९८ ।। आचार्य आख्यत् क्षितिपाऽङ्गज !
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चतुर्थः सर्गः ।
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त्वं, श्रीमत्प्रभो रजिनस्य चैत्यम् । कुरुष्व नारायणमन्दिरं हि, जहाहि तस्मिन्न हि तेऽस्ति विघ्नः ॥ १९९ ॥ तद्वाक्यमाकण्ये कुमारवये, प्रारब्ध वीरप्रभुचैत्यमेव | नाऽभूच तस्मिन् पतनाऽऽदिविघ्न-लेशोऽपि सूरीश्वरसत्प्रभावात् ।। २००॥ इतश्च सा शासनदेवताऽपि, भूमेरधस्तारिकल मासयुग्मात् । प्रागेव तद्योग्यसुमूर्तिमेकां, निर्मातुमारब्ध सुखेन भव्याम् ॥२०१॥
(इन्द्रवंशा)-तत्स्थापनारम्यमुहूर्त आगते-प्यैत्याऽवदच्छासनदेवता हि सा । स्वामिभिदानी प्रतिमासुनिर्मिती, कालो लगिष्यत्यधुना करोमि किम् ? ॥ २०२॥ तामूचिवान् सूरिवर: किलेत्थं, हे देव्यवश्य प्रविनिश्चितेऽस्मिन् । शुभ मुहा प्रतिमा त्वया हि, समर्पणीया न विलम्बयेथाः ॥ २०३ ।। यतः प्रतिष्ठादिवसो द्वितीयो, न हीदृशः सम्भवतीह वर्षे । अतस्त्वया सवरमेव मा, समर्प्यतां तत्प्रतिमा विधाय ।। २०४॥ सूर्यादिसंघाऽऽग्रहमेषिका सं-विलोक्य भाव्यश्च तदिस्थमेव । मत्वेति देवी पृथिवीतलाऽधः, सञ्जायमानां प्रतिमामपूर्वाम् ॥ २०५॥ गोदुग्धसिक्तामयिकां तदेव, श्रीत्रैशलेयस्य जिनेश्वरस्य । निष्काश्य तस्मै बरसूरयेऽदा-दुवाच तं शासनदेवतैवम् ॥ २०६ ।। (युग्मम्) उरस्यमुष्याः परिदृश्यते यो, अन्थिर्विरूपो न हि जातुचित्सः । छेद्यो भवद्भिर्धमतोऽपि यस्मा-चमत्कृतेयं प्रतिमा किलाऽस्ति ॥ २०७।। अवध्यपूता बहिरागतत्वाद् , उरःस्थितो ग्रन्धिरसौ विरूपः । भविष्यतीयं भुवि समभावा, व्याहृत्य सैवं सममूददृश्या ।। २०८॥ रत्न| प्रभाऽऽचार्यवरः किलैक-लग्ने प्रशस्ये युगपद्विरूपः । कोरण्टपुर्यामयमोशियायां, चक्रे प्रतिष्ठाममितप्रभावः ॥ २०९ ॥ कालं कियन्तं स हि शासनस्य, प्रद्योतनं भूरितरं विधाय । प्रान्ते च कृत्वाऽनशनं समाधि-ना यातवान् देवपतेर्नगर्याम् ॥२१०॥
(शार्दूलविक्रीडितम् )-चामुण्डा निजदत्तवाचि सततं स्थास्नुस्ततः सच्चिका-नाम्ना ख्यातिमुपागताऽखिलपुरे भक्ता
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चतुर्थः सगे:1
श्रीजिनपाचन्द्र
बरिचरित्रम् ॥९१॥
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गुरोधाऽभवत् । अईद्धर्मपरायणा जनिमतां कल्याणकी सदा, सर्वोपद्रवनाशिनी पुरि जनानन्दप्रदात्री सुरी ॥ २११॥ __(उपजातिः) कदाचिदेतत्प्रतिबिम्बवक्षः-स्थलस्थितं ग्रन्थिमतिप्रमूदः । शखेण चिच्छेद विरूपकवान, रक्तस्य धारा निरगच्छदस्मात् ।। २१२॥ छेत्ताऽपि तत्रैव विमूच्छितः स-बवाङ्मुखो भूमितले पपात । आलोक्य तच्छाद्धजनाः समेत्य, श्रीयक्षदेवाअभिधसरिसचा ॥२१३ ॥ रत्नप्रभाऽऽचार्य-महाप्रभाव-पस्थितः परिवरा स ऊचे । श्राद्धा! महानिष्टकर। किलेत-जातं समेषामिति वित्त सत्यम् ॥ २१४ ।। भाव्यं भवत्येव न रुध्यते तत्, कदाऽपि काले महताऽपि पुंसा । अतस्तदर्थे न हि शोचनीयं, तच्छान्युपायं चरिकर्मि शीघ्रम् ॥ २१५ ।। निगद्य तानित्थमयं तदेव, ध्यानस्थितः शासनदेवतां ताम् । आकार्य चाऽऽख्य विके! किलैकाऽ-नभिज्ञपुंसा तदकार्यनिष्टम् ॥ २१६ ।। आकस्मिकाज्ञानरुतं तदीय, मन्तुं क्षमित्वा झटिति प्रसीद । नो वेदनिष्टं महदेव नून, भविष्यतीहाऽत्र न संशयीथाः ॥ २१७ ॥ आकण्ये बरीश्वरवाक्यमेतद्, देवी समूचे भगवंस्त्वदीयः । कुश्रावकोऽज्ञानतयाऽप्यसा, मन्तुं प्रचक्रे भगवजिनस्य ।। २१८ ॥ तेनौवंशीयमहाजनानां, नामाऽपि न स्थास्यति पत्तनेऽस्मिन् । तयैवमुक्ते सति सूरिराजः, साऽस्ति प्ररुष्टेति विदाञ्चकार ।। २१९ ॥ ततोऽनुकूलैमधुरैवेचोभिः, प्रसाथ देवी तापवं सः। प्राशीशमदेवतया तयैव. रक्तप्रधारामपि तत्क्षणं हि ||२२०॥ अजीवयच्छावकमयसी ह, कृतागसं मूढधियं कृपालु: । सम्पाय सर्व सुमनास्ततोऽयं, स्वस्थानमागत्य सखेन तस्थौ ।। २२१ ॥ साधुदयेनेव पुरा । महीयान् , रत्नप्रभाचार्य इह न्यवात्सीत् । वर्षतुकाले नगरे महिष्ठे, भविष्यदनाधिकलाभहेतोः ।। २२२ ।।
(भुजङ्गप्रयातम)-शतं पश्च तस्याऽवनी भान्ति शिष्याः, समेषाच तेषामिहाऽऽहारलब्धः। अयोगः किलाऽऽसीदत-12
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स्ताननेक-प्रदेशे चतुर्मासमाकारयत्सः ॥ २२३ ।। (इन्द्रवत्रा)-अम्बाभिधाना किल शासनस्य, देवी प्रधाना वरिवर्ति यात्र । तस्याश्च वाचा बहुलाभमने, जाननतिष्ठन्मुनिपुङ्गवः सः॥ २२४ ॥ (उपजातिः)-आहारदुष्प्राप्तिमवेक्ष्य तत्र, श्रुतोपयोगादथ जैनजाती । कुलादिकस्थापनसत्प्रसङ्ग-मित्वा पुरीवासिजनानशेषान् ॥ २२५ ।। गरिष्ठयत्नैः प्रतिबोध्य सूरि-लैक्षत्रिक-त्रि-द्विसहस्रसंख्यान् । कृत्वा स्वकीयानथ गोत्रकाणि, तेषां तदाऽष्टादशधा न्ययुक्त ॥ २२६ ॥ (युग्मम् )
वभुत्सा घधिकस्य तस्य, महाजनानां खलु सजनानाम् । ग्रन्थान्तराचैरतिविस्तृतैषा, कथाऽवगम्या सकला सुधीभिः ।। २२७॥ अथौशियातो दिशि सूर्यसुनोः, षद्क्रोशदूरे तिबरी पुरी या । पुरश्चौशियायाः किल साऽपि तेली-बाडेति नाम्ना प्रथिता पुराऽस्ति ॥ २२८ ॥ कर्षच केदारमिहेव पुर्या, भूमेरधः संस्थितमन्दिरस्य । कुम्मेऽवरुद्धे हल एत्य तूर्ण, मृदं खनित्वा कलशं ददर्श ॥ २२९ ।। ततोऽप्यधः सोऽथ निखन्य रम्य, स हालिकस्तच्छिखरं लुलोके । ततः स आगत्य जनानुवाच, तदद्भुतं वृत्तमतीव हृष्टः ।। २३० ।। श्राद्धास्तदाकर्ण्य समेत्य तत्र, ह्यामूलमुत्खान्य तदैव यत्नात् । तत्कृत्यदक्षैहुकर्मकृद्भिजिनेशचैत्यं तदखण्डितं हि ॥ २३१ ॥ (इन्द्रवंशा)-निष्काशयामासुरतीव सुन्दरं, सदुर्गमास्थानिकमण्डपान्वितम् । उद्घाट्य तद्वारमपूर्वमन्दिरे, पचासनस्था जिनमूर्तिरेक्षि तेः ॥ २३२ ।। (पुग्मम्) ततः सहर्षे सकलाच जैना, विम्बाचन भक्तिभरेण चक्रुः । प्रभावनाऽऽद्यैर्महिमानमस्य, प्रवर्तयामासुरनेकदेशे ।। २३३ ।। तन्मन्दिरं चाऽहमपि स्वदृष्ट्या, सम्प्रेक्ष्य निःसीममुदं वभार । तीर्थेशमालोक्य बभूव सद्या, कृती विपापः परमप्रहर्षेः ।। २३४ ॥ अद्यापि तन्मन्दिरमस्ति तत्र, पुराsन्तिकस्थानविवर्तमानैः । चिक्नैरनेकैः पुर उक्तमान, सत्यं तथैवाऽस्ति पुरा हि काले ॥ २३५ ॥ श्रीवर्धमानप्रभुमुख्यशिष्यः,
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सगे।
श्रीजिनरूपाचन्द्र
सूरिचरित्रम्
॥९२।।
श्रीगौतमस्वामिवरः पुरा हि । श्रीमालवंशं प्रतिबोध्य सर्वान् , संस्थापयामास यथा महीयान् ॥ २३६ ॥ प्रख्यातिमागात्पुरमेतकस्मा-च्छीमालनाम्ना तत एव घस्रात् । धर्मिष्ठलोका धनधान्यपूर्णाः, सत्कीर्तिमन्तः सकलाः किलाऽऽसन् ॥ २३७ ।। तथा प्रसिद्धः किल पोरवाल-बशोऽप्यसौ पौरवकौलिकत्वात् । श्रीमालपुर्या रमणीयपूर्वो-द्याने स्थितत्वादिति च प्रसिद्धिः ॥ २३८ ।। स्वयम्प्रभाचार्यवराऽऽदिका हि, तेषां समेषां प्रतिबोधकाराः । तथैव रत्नप्रभारिमुख्यः, सदोशवंशं समतिष्ठिपत्स: ॥ २३९ ॥ त्रिंशत्सहस्राधिकमेकलक्षं, कौटुम्बिकान् भव्यजनान् प्रबोध्य । स ओशवंशाधिकद्धिकर्ता, युगप्रधानो जिनदत्तमरिः ॥ २४० ॥ आसीच दादाऽभिधया प्रसिद्धः, सर्वत्र लोकेऽतुलशक्तिशाली । सिताम्बराऽऽचार्यवरैरनेका, प्रबोधिता जैनजना लसन्ति ॥ २४१ ॥ प्रभावकाऽशेषसिताम्बरीयाऽऽ-चार्योपका नगरोपकण्ठे । नगोपरिष्ठादतिशक्तिचामु-ण्डासचिकाया वरमन्दिरं हि ॥ २४२ ॥ पथष्टगोत्रीयमहाजनाना-मिष्टप्रदाच्या कुलदेवतायाः । दाहोर्दश्यतरं सुरम्यं, चमत्कृताया अतितुङ्गमस्ति ।। २४३ ।। (युग्मम् ) ग्रामस्य मध्यादथ पूर्वभागे, कुलेश्वरीमन्दिरमस्ति रम्यम् । तद्दक्षिणस्या दिशि नातिदूरे, शैलोपरि श्रीगुरुचैत्यमस्ति ।। २४४ ॥ श्रीसच्चिकायाः कुलदेवतायाः, सुमन्दिरात्पश्चिमदिग्विभागे । ग्रामान्तिके श्रीजिनचैत्यमस्ति, प्राकारशालं तिलकायमानम् ॥ २४५ ।। ततः प्रतीच्यां दिशि धर्मशाला, भूमित्रिका गुर्वितराऽतिरम्या । यात्राऽऽगतानामतिसौख्यदात्री, श्राद्धैः सुभव्य रचिता विभाति ।। २४६॥ गौरीतिथौ फाल्गुन शुक्लपक्षे, विलेशयस्यापि तिथौ जयन्त्याः । महोत्से(त्सवे) तत्र विधाय दर्शनं, तीर्थेशितुः प्रीतमना अभूवम् ॥२४७|| आकण्ये वृत्तान्तमिदं स संघ, आमूलमाश्चर्यकरं समेषाम् । निश्शेषपापौघहरं जनानां, चतुर्विधोऽसीममुदं प्रपेदे ।। २४८ ।। मार्गेण येनाऽऽगतवान् स
HOCCASNA
S
॥ ९२॥
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पूर्व, पथा च तेनैव विहत्य तस्मात् । लोहावटाऽऽख्य नगरं ससचः, समाययौ श्रीजिनकीर्तिमरिः ॥२४९॥ चतुर्विधैः संघदलैः समेतं, सूरीश्वरं तत्पुरवासिसंघः । बेण्डाऽऽदिनानाविधवाद्यनादै-रानीतवान् सादरमात्मपुर्याम् ॥ २५० ॥ सोपाश्रयं प्राप्य सनीरमेघाऽऽ-रावाऽनुकारेण महास्वनेन । प्रारब्धवान् सद्गुरुरेष धर्मो-पदेशमानन्दकरं जनानाम् ॥ २५१॥ तत्राऽसको शील-तपः प्रदान-सद्भावमेदाचतुरथ धर्मान् । अदर्शयत्सजनसभ्यवृन्द, विस्तारपूर्व सदसि प्रकामम् ।। २५२ ॥
(भुजङ्गप्रयातम् )--विशेषप्रभावं पूर्वोपदेश, निशम्याऽतिहृष्टाः प्ररोमाञ्चिताऽङ्गाः । नरा नारिकायाः समस्तास्ततच, स्वकीय स्वकीय गृई तेऽधिजग्मुः ॥ २५३ ।। स्वस्वाऽवतारस्थलमागुरेवं, संघीयलोका अपि चाऽऽयघने । इत्थं द्वितीये दिवसे तृतीये, विश्रम्य तस्माद्विजहार संघः ॥२५४।। ( उपजातिः)-तदाध्यमाचार्यवरो पियासु, समस्तसंघ फलवर्द्धिपुर्याम् । प्रेषीन्मुनिश्रीसुखसागराऽऽदीन , सहाऽमुना तत्र निनीपया हि ।। २५५ ॥ अन्य विधि तेन तदैव सर्व, स कारयित्वा विससर्ज संघम् । स्वयं परावृत्य ततः सशिष्यो, लोहावट पत्तनमाजगाम ॥ २५६ ॥ पूर्वीयभागे पुरि तत्र जाटा-वासाभिधाने स हि मासमेकम् । स्थित्वा पुनस्तद्विसनोयिवासे, सुखेन मासं गमयाञ्चकार ।। २५७ ।। कृत्वा विहारं पुनरेत्य जाटा-वासे स तस्थौ जिनकीर्तिमरिः । तिथिप्रमाणानि दिनानि वाऽत्र, नखप्रमाणानि सुवासराणि ॥ २५८ ॥
(तोटकम्)-फलवर्द्विपुरीमधिगन्तुमसौ, सकलैः सुविनीत-बिनेयगणैः । सहितः सुविहुत्य ततो मुनिराद्, चिखलामिधपत्तनमागतवान् ॥ २५९ ।। (उपजातिः)-एका निशामेष समध्यवात्सीत्, प्रातर्विहारावसरे समेताः । लोहावट श्रीफलबदिपूयाँ, ववन्दिरे श्राद्धजना गुरूणाम् ॥२६०॥ गुरूनमस्कृत्य पुरद्वयीस्थाः, स्वं स्वं पुरं प्रत्यगमस्तदैव । स ओशियायां
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न्यवसच्च यर्हि, लोहावटाऽऽरूये वरपत्तनेऽपि ॥ २६१ ।। वैदेशिकाबाऽन्यपुरीयलोका-स्तुर्द्यागमन् भूरितरा गुरूणाम् । संवन्दना - दर्शनदेशनानां, प्रलिप्सया प्रत्यहमाईता हि ॥ २६२ ॥ पुनर्यदाऽऽचार्यवरश्चतुर्धा - संधैः समेतः फलवर्द्धिसीनि । उपेयिवांस्तर्हि फलोधिवासी, चतुर्विधः संघ इयाय तत्र ॥। २६३ ।। भक्त्या गुरूणामभिवन्दनाऽऽदि, कृत्वा सहर्ष बहुचारुभिस्ते । महोत्सबैः सञ्जितसत्पुरं तान् प्रावेशयन्मान पुरस्सरं हि ॥ २६४ ॥ उपाश्रयं सोऽथ समेत्य धीमान्, प्रधानपट्टोपरि संनिपद्य । श्री अर्हदादिस्तुतिरूपमङ्गलीं, सदेशनां मङ्गलहेतवेदात् ।। २६५ ।। ततोऽतिभक्त्या सुभगाः सुरूपाः, सुश्राविका मङ्गलगीतम्रुच्चैः । पैकाऽनुकाराऽधिकमिष्टकण्ठैर्जगुः प्रमोदाच्छरदिन्दुमुख्यः || २६६ ।। पश्चाद्यथाशक्ति जनाः कियन्तः, श्रद्धां भजन्तः सुगुरौ च देवे । श्राद्धाऽऽदिका भक्तिभरण प्रत्याऽऽ-ख्यानं समादाय ययुः स्ववेश्म || २६७ || व्याख्यानमेवं कियतव घस्रान्, सामान्यतस्तत्र स सूरिराजः । ददान आसीत्तत आगते हि सर्वानुकूले दिवसे प्रशस्ये ॥ २६८ ॥ प्रारब्धबानत्र स पश्चमाऽङ्ग- व्याख्याऽपराऽऽख्यं बहुबोधदायि । प्रज्ञप्तिसूत्रं हरिविक्रमस्य चरित्रमप्येष सहैव तेन ॥ २६९ ॥ ( युग्मम् ) तस्मिन् प्रवृत्ते प्रतिवासरं हि व्याख्यानकाले समुपस्थितानाम् । संख्या जनानां शशिनः कलेव, प्रावर्वृधीतच्छुतिभक्तिभाजाम् || २७० ।। प्रावर्तताऽशेषगृहेषु तत्राऽऽ- चाम्लाऽभिधानं परमं तपश्च । कृत्वा निशाजागरण प्रभाते, सादशाssतोद्य-निनादपूर्वम् || २७१ || अविभ्रमंश्चारुमहोत्सवैस्ते, रथस्थित श्रीजिनराजमूर्तिम् । दिव्याङ्गनामूर्द्धनि सन्निधाय, प्रज्ञशिसूत्रं च पुरे समग्रे ॥ २७२ ॥ नित्यं जिनाऽचक्रियताऽत्र भक्त्या, नानाप्रकारी (श) परमोत्सवैस्तैः । प्रभावना शश्वदपूर्ववस्तु-नाऽऽयातसंघाऽशनपानकाऽऽदि || २७३ || नानाप्रदेशान्नगरादनेकात्, समाययुः श्राद्धगणाः सहैव । सुश्राविकाभिर्गुरु
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चतुर्थः सर्गः ॥
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बन्दनायै, व्याख्यानलाभार्थमपीह नित्यम् ।। २७४ ॥ न ह्येकमप्यत्र दिनं ह्यगच्छत् , यस्मिन् विदेशादिह केऽपि नाऽऽगुः। श्रीमद्गुरोर्दर्शनवन्दनाऽऽदि-विधित्सया श्राद्धजना महेभ्या:॥२७५।। आषाढशकीयचतुर्दशीता, रामाऽब्धिसंयानि दिनानि यावत् । स्वाध्यायधर्माऽऽदिकमाततान, वेदाष्ट-नन्देन्दुमितवर्षे ॥२७६॥ अष्टाऽशिक पर्युषणं ततोऽयं, समस्तसंघेन चतुर्विधेन। साधं समाराधितवान् महीयान्, प्रमादमुक्तः परमोत्सवेन ॥ २७७॥ (शार्दूलविक्रीडितम्)-पश्चाशत्तमवासरे गुरुवरः सम्बत्सरीयप्रति-कामं संघयुतो विधाय विधिवत्क्षान्त्वा समैः क्षामयन् । जीवैर्वत्सरजातमन्तुमखिलं ज्ञातं तथाज्ञातकं, चैत्यादेरभिवन्दनं समकरोच्छीमान् महान् परिराट् ॥२७८। (इन्द्रवजा)-अथाऽऽश्चिने शुक्दले किलेपु:(लेयु.), सुश्राविकाः श्राद्धगणाध तत्र । विराजमाने गुरुराजवर्ये, कर्तुं तपस्ते झुपधाननाम ।। २७९ ॥ (भुजङ्गप्रयातम् )-ततः सूरिराजो महालाभकार्य, विदित्वा किलैतवृदि स्फारबुद्धिः । प्रशस्ते मुहर्ने सुखेटाऽनुकूले, तदारम्भयच्छावकथाविकाभिः ।। २८० ॥
(उपजातिः)-आसंस्तदाराधकपुस्त्रियश्च, शतं किलाऽष्टोत्तरमाहतास्ते । ग्रामान्तरीयाः पुरवासिनश्च, समारराधुर्विधिवन्मिलित्वा ॥२८॥ जातं किलैतच्छर-तर्कधन-मात्रं महाऽऽडम्बरतः प्रशस्यम् । निर्विघ्नमेतद्गुरुराजपाद-सरोजयुग्माऽनुपमप्रभावात् ।। २८२ ॥ सद्दीपमालोदितपर्वसौभा-ग्यपश्ची(श्चमी)पर्वमहोत्सवैस्ते । एवं चतुर्माससमाप्तिपर्व, द्वाराधयामासुरशेषलोकाः ।। २८३ ।। प्रख्यात-मौनाऽभिधभरिपुण्य-दैकादशीपर्व जनाः सहर्षम् । पौषे च मासे दशमीसुपर्व, याराध्य सर्वे मुदिता बभूवुः ।। २८४ ॥ ततः स्रगारोपणचावेंपूर्वः, समुत्सवोजायत तत्र पुर्याम् । तत्रायऽऽरात्रावजनिष्ट जाग-रणं समेषों महता महेन ॥ २८५ ।। दिने द्वितीये रथवेदिकाऽऽदि-यात्रा विशिष्टा समभूदपूर्वा । स्थाले विशाले विनिधाय माला, अने
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भीजिनकृपाचन्द्रसूरि
चरित्रम्
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कवर्णा रुचिरप्रभासः ।। २८६ ।। अनेकतत्स्थालमुपस्कृतास्ता - श्रीनांशुकाऽशेष विभूषणाऽयैः । मौलौ दधानाः सधवाः सुवर्णा, मन्दं व्रजन्त्यः सुषमामगच्छन् ॥ २८७ ॥ मिष्टस्वरैर्धवलमङ्गलगीतमुचैर्गायन्त्य उज्ज्वलतरच्छविभासमानाः । चेतोहरं श्रवणतर्पणकारि पुंसां, चेलुः सुधांशुवदनाः पुरतः कियत्यः ॥ २८८ ॥ वेण्डाऽऽदिकाऽर्कप्रमितप्रवाद्य-नादोत्थवाधिर्यमुपानयन्ती । दिशः समस्ता जनता प्रमाण वर्या चचालाऽत्र महोत्सवे हि ॥ २८९ ॥ पुर्याश्च मध्यस्थितराजमार्गे - र्बम्भ्रम्यमाणा दिशि दक्षिणस्याम् । ग्रामाद्वहिर्दीर्घतटाकपालो पर्येत्य तस्थौ रथवेदिकाऽऽदि ।। २९० ॥
( शालिनी ) - श्रीमद्गोडीपार्श्वनाथप्रभ्रूणां रम्यं चैत्यं गौरवं मन्दिरञ्च । विभ्राजेते यत्र तत्र प्रदेशे, शान्तिस्नात्रं पूजन सम्बभूव ।। २९१ ॥ ( उपजातिः ) — निवृत्य सर्वा जनता ततश्च समागतोपाश्रयमत्र सूरिः । मालासमारोपण सर्व कृत्यं, तैः कारयित्वा शुभमुहूर्त्ते ॥ २९२ ॥ ताः सूरिमन्त्रेण च मन्त्रयित्वा प्रक्षिप्य वासं शिरसि प्रकामम् । सपत्निकानां प्रथमं च पुंसां, ततः कुमारीसघवाङ्गनानाम् ।। २९३ || अनूढपुंसामथ निर्घवाना - माचार्यवर्यः क्रमतः समेषाम् । आरोपयामास विशेषमाला, गुहस्य तिथ्यामसिते च पौषे ॥ २९४ ॥ (त्रिभिर्विशेषकम् ) ततश्च ते श्रीगुरुदेवमेनं, प्रणम्य चाऽऽदेशमनुष्य लात्वा । जिनाऽविनाथप्रविलोकनाय, चैत्यं ययुर्वाद्यनिनादपूर्वम् ॥ २९५ ॥ यावन्त आगुर्नगरान्तरीयाः, सम्बन्धिनः सद्मसु यस्य यस्य । सर्वोऽपि तांस्तान् निजशक्तियोग्य वस्त्राऽऽदिदानैः समतोषयश्च ।। २९६ ॥ सुस्वामिवात्सल्यमथो जिनेन्द्र-पूजां गरिष्ठां व्यदधुः प्रभक्त्या । प्रभावनां श्रीफलशर्कराऽऽदि-सवस्तुभिर्जीवदयां च तेनुः ॥ २९७ ॥
( मालिनी ) - समवसरणमेकं चर्कराञ्चकुरेते, सकलसुजनचित्ताssकर्षि लोकप्रशस्यम् । वसुदिनमिह यावत्पूजनं नैक
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चतुर्थः सर्गः ।
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&ामेदं, प्रतिदिवसमकार्पुर्वीतरागस्य सर्वे ॥ २९८ ॥ निशि च विदधिरे ते भावनां शर्मदात्री, तनुरचनमपूर्व दर्शकाऽऽनन्ददायि । जिनवरविभुमूर्त रम्यनीराजनाऽऽदि, प्रथितसकलवादित्राणि सनादयन्तः ॥ २९९ ।।
(उपजातिः)-चकुस्ततस्ते रमणीयवारि-यात्रामपूर्वां रथवेदिकाऽऽदि । चचाल तस्यामतिसञ्जितं हि, जिनेन्द्रमूर्तिप्रबिराजमानम् ॥३००। वेण्डाऽऽदिवादिगणेषु तस्यां, नानद्यमानेषु विलासिनीनाम् । यूथेषु गायत्सु तुरङ्गमेघु, चलत्सु नेपथ्यविभूपितेषु, ॥ ३०१ ॥ इत्थं महाऽऽडम्बरतचलित्वा, ग्रामाद्वहिर्दीर्षितटाकतीरम् । आगत्य गङ्गाऽऽदिकतीर्थमष्टोत्तरं शतं तत्र विशेषमन्त्रैः ॥ ३०२ ॥ आवाह्य तावत्कलशास्तदीय-जलेन भृत्वा प्रविधाय तत्र । खात्रार्चनं तीर्थजलेन भूयो भृतांश्च कुम्भान् सघवाङ्गनानाम् ।। ३०३ ।। कुमारिकाणां च शिरासु धृत्वा, निवर्तमाना मुदिताश्च सर्वे | प्रागुक्तवाद्याऽऽदिमहामहेन, स्नात्रस्थले तत्र सुखेन चाऽऽगुः॥३०४॥ (चतुर्मिः कलापकम् )(मालिनी)-समवसरणमाप्ताः कुम्भकान् वारिपूर्णा-छुचिभुवि विनिधायैकान्तदेशे खियस्ताः । तदनु सकललोकाचाऽऽददुः सत्प्रभाव-नमथ गृहमगुस्ते मोदमानाः समस्ताः ॥ ३०५॥
(उपजातिः)-दिनेऽग्रिमे तीर्थजलेन तेन, स्नात्रप्रपूजा महती बभूव । सायन्तनं भोजनमप्यपूर्व, साधर्मिकाणामभवत्समेषाम् ॥३०६।। (वंशस्थ)-प्रभावनाऽशेष(नां सर्व)जनेभ्य आदरात्, प्रदत्तवानिम्यगणो विशेषतः। बभूव चेत्थं युपधानसत्तपो-महोत्सवस्तत्र सुचारुरुजवलः ॥ ३०७॥ (उपजातिः)-अथाऽसको विंशतिवासराणि, स्थित्वा तपोमेचकधातिध्याम् । संधैश्चतुर्भिः सह सरिराज-चक्रे विहारं फलवर्द्धिपुर्याः ॥ ३०८ । आगात् खिचन्दाऽभिधपत्तनं स, सुसत्कृतः पौरजनैरशेषः । सद्देशनामिः सकलान् प्रतये, प्रगे व्यहार्षीत्तत एप मूरिः॥३०९।। ऐद्धोलियाऽऽरख्यं नगरं ततोऽसौ, वाद्याऽऽ
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श्रीजिन
दा | दिचारूत्सवतः प्रविश्य । महोपदेशैः प्रतिबोध्य भव्यान् , प्रभातकाले व्यहरततोऽयम् ॥३१॥ प्रैद्देशनोकं पुरमेष सरिः, कपाचन्द्र-1
पुरीजनाऽऽरब्धमहोत्सवेन । पुरं प्रविष्टः सकलानतीत् , सुधोपमाभिर्निजदेशनाभिः ॥ ३११ ॥ तृतीयघले समुपेयिवान् स, परि- आऊपुरं भूरिसुशिष्यजुष्टः । तत्पौरलोका महतोत्सवेन, प्रावेशयस्तं पुरमादरेण ॥ ३१२ ॥ जिनेशमालोक्य मुदाऽसको हि, चरित्रम्
प्रमोधयन् भव्यजनान्महीयान् । द्वित्री(त्र)व घस्राञ्जनताऽऽगृहीतो, व्यश्राम्यदस्मिनगरे सशिष्यः ॥३१३॥ ततो विहृत्याऽऽग
मदेष जेग-लाख्यं पुरं तत्र जना अपूर्वम् । चक्रुः प्रवेशोत्सवमस्य सुरेः, सोऽपि प्रबोध ददिवानथैषाम् ॥ ३१४ ।। य: ॥९५॥
पाँच-धोरानगरान्तराले. ठाणीत्यपाख्यो जनतानिवासः । तमध्यतिष्ठदिनमेकमेष, आगाचता पाँचपुरं सशिष्यः ।। ३१५ ॥ अनेकवादित्रनिनादपूर्व, पुरान्तराविश्य गरिष्ठसरिः । सचैत्यमागत्य जिनं विलोक्य, लोकानुपादिश्य ततो विजड़े ।। ३१६ ॥ अथाऽऽगमत्तत् किसनासरं स, पौरास्तमर्थ्य परमोत्सवेन । प्रावेशयन् मरिवरस्ततोऽत्र, विशुद्धधर्म समुपादिदेश ।। ३१७ ॥ आयातवान् देसलयुकसरं स, कुर्वन् विहार सह सर्वशिष्यैः । समुत्सवः पौरकतैरपूर्वः, प्रविश्य तत्रोपदिदेश सरि ॥ ३१८॥ विहारमार्गस्थितदेशणोक-पुरं समासादितवांस्ततोऽयम् । अत्र स्थिता विक्रमपत्तनेश-कुलप्रपूज्या प्रथिता च कर्णी ॥ ३१९ ॥ तत्रत्यसंघो गुरुराजमेतं, वाचाऽऽदिभिश्वारुमहोत्सवं हि । वितत्य गत्वाऽभिमुखं सहर्ष, आनेष्ट पुर्यां सह भूरिलोकैः ।। ३२०॥ सूरीश्वरोऽप्यत्र जिनेश्वरस्य, विलोकनं भक्तिभरेण कृत्वा । प्रारब्धवांश्चारुमहोपदेशं, स्वधर्मदादोऽधिकवृद्धिकारम् ।। ३२१ ।। अत्राऽऽगता विक्र(म)पत्तनीयाः, श्राद्धा गरिष्ठा गुरुवन्दनाय । इतो विहत्याऽखिललोकवन्ध, उद्रामपूर्व सरमाजगाम ॥३२२॥ सहर्षमेतत्पुरवासिनोऽपि, पेण्डाऽऽदिभिस्तं पुरमानयन्त । महाऽऽसनाऽऽसीन उपादिशरस, धर्म चतुधों जिनकीर्तिबरि
का॥९५॥
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| ॥ ३२३ ॥ विहृत्य तस्मादयमाजगाम, भिन्नासराऽऽख्य नगरं प्रसिद्धम् । पुरप्रवेशाय गुरोरमुष्य, चारूत्सवं चारिहस्थलोकाः ॥ ३२४ ।। इत्थं प्रविष्टः पुरमेष सूरि-भवाऽऽमयोन्मूलनरामबाणम् । अमोघभैषज्यमहोपदेशं, ददौ सभायां महता स्वरेण ॥ ३२५ ॥ गङ्गासहेराऽऽदिकपत्तनानि, गत्वा सुचैत्यं गुरुमन्दिरं च । विलोकयञ्छीप्रभुरेलदादा-जीत्याख्यमैक्षिष्ट गरिष्ठभक्त्या ॥ ३२६ ।। अथाऽऽगमद्विक्रमपत्तनं स, सच्छिष्यवृन्दश्रितपादपभः । स्वीयाऽन्यदीयाऽखिलशास्त्र-सिन्धुपारीण आनन्दघनो वुभूषुः ।। ३२७ ।। श्रीपूज्य आसीत्स हि कालिकाता-पुर्यां तदानीं तत एव पत्रम् । लिलेख विस्पष्टतया यतीनामिहस्थिताना बहुमानपूर्वम् ।। ३२८ ॥ अहं हि मुम्बापुरि सर्वसंधै-यस्मा अदा सरिपदं वराय । समरिमन्त्रं विधिवत्सुविद्व-त्तमाय शान्त्यादिगुणाऽऽकराय ॥ ३२९ ॥ आचार्यपट्टे समतिष्ठिपञ्च, स सूरिवों जिनकीर्तिमूरिः। ऐता स्वकीयाsखिलशिष्यवगैः, तत्पत्तने शीघ्रमतो लिखामि ।। ३३० ॥ (युग्मम् ) यदेतकस्याऽभिमुखं वजित्वा, सर्वोपकृत्या स हि बन्दनीयः । तदानुकूल्ये सततं भवद्भिः, स्थेयं समस्तैर्निजशिष्यवद्धि ॥ ३३१ ॥ महीयसचाऽस्य विशेषसेवाऽ-वश्यं विधेया मनसा च वाचा । कायेन चाऽस्त्येष यतो गरीयान् , कस्यापि हान्या न हि तस्य भाव्यम् ।। ३३२ ।। एतन्मदुक्तं हृदये निधाय, तदीयभक्तौ यतितब्यमेव । चातुर्यशीला: सकला भवन्तः, परेगितज्ञा निपुणा हि सन्ति ।। ३३३ ॥ श्रीसंघमप्येष विलिख्य पत्रं, प्रागेव सर्व समबोधयच्च । यदेष गच्छाधिपतिः समस्त-जैनाऽऽगमाऽऽदेरतुलपविद्वान् ॥ ३३४ ॥ बहुश्रुतो वृद्धपुमांश्च गच्छे, मुक्तः कपायाऽऽदिकदोपजातैः । समस्तसूरिव्रजमौलिरत्ना-पितखिगुप्तः परिषेवणीयः ॥३३५॥ ईरग्गुरुर्भाग्यवशादुपैति, धियेति सर्वे करणत्रयेण । सेवध्वमेतं सततं तदीय-मनोऽनुकूला भवताऽतिमात्रम् ॥ ३३६ ।। ईदृक्
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चतथे?
श्रीजिनकपाचन्द्र
सरिचरित्रम्
॥९६॥
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| सुपत्रं परिवाच्य संघ-चारित्रसरेजिनपूर्वकस्य । अजहषीद्भक्तिभरं च तस्मिन् , विभ्र चतुर्धा मुनिराजवर्य ॥ ३३७ ॥ सूरीश्वरो यहि पुरोपकण्ठं, समागमत्तहि समस्तसंघः। श्रीपूज्यपत्राधिकसम्प्रणुन-श्चतुर्विधस्तयतिमण्डली च ॥ ३३८ ॥ सौवर्णयष्टि-ध्वज-शङ्क-वेण्ड-भेर्यानकाऽऽद्युष्णमयूखमात्रैः । वाद्यैरनेकैः प्रविभूषिताऽश्वः, प्रत्यागमं ते व्यदधुर्गुरूणाम् ॥ ३३९ ।। । | यथाविधानं सकलोऽपि संघो, विधाय तद्वन्दनमादरेण । सहैव तं श्रीगुरुराजवर्य, प्रावी विशद् विक्रमपत्ननान्तः ॥ ३४०।।
दैये च तस्या परिवर्ति पुर्याः, क्रोशत्रयांऽशद्वयसं महत्या: । तावत्प्रमाणा परिणाहताऽस्या, सद्राजधान्या: सुषमामितायाः ४॥ ३४१ ॥ भिन्नासरेशानदिशिस्थनूत्न-भूपालवासाद्गणने तु सा पूः । गन्यूतिकाऽऽयामवती लसन्ती, विशालतां क्रोशमितां विधचे ॥३४२।। नाम्ना मुहल्लेतिविभक्तिरत्र, जिनेशचैत्यानि महान्ति चाऽष्टौ । शरत्रिदंमानि च मन्दिराणि, सर्वाणि जैनानि लसन्ति तत्र ॥३४३ । सोपाश्रया जैनिकधर्मशाला:, प्रायेण पञ्चाशदिहाऽऽविभान्ति । वसन्ति लोकाः सकला द्विलक्षं, सर्वे धनाssख्या निजधर्मरक्ताः ।। ३४४ ॥ तस्यां चतुर्दिक्षु महान्ति सन्ति, निर्वाणधामानि महागुरूणाम् । प्राच्यां दिशि श्रीजिनदत्तमूरे| युगप्रधानस्य महीयसस्तत् ।। ३४५ ।। तत्पत्तनं हर्षपुराऽभिधानं, वापीसुकूपोपवनाभिरामम् । सद्भिगृहस्थरतिशोममानं, सद्धर्मकर्माऽऽरतमानवाऽऽयम् ॥ ३४६ ।। अकबराऽऽख्यक्षितिपालकस्य, प्रबोधकश्रीजिनचन्द्रसूरेः । निर्वाणभूमिर्दिशि दक्षिणस्यां, नाटताख्ये नगरेऽस्ति रम्यम् (म्या) ॥ ३४७॥ दिशि प्रतीच्या परिवर्ति तस्य, श्रीमअिनाऽऽदेः कुशलस्य सूरेः । देराउराऽऽख्ये नगरे विशालं, निर्वाणधामाऽधिक शोभमानम् ।। ३४८ ॥ भालस्थलस्थापितरत्नशालि-अख्यातिमच्छीजिनचन्द्रसूरेः । कौवेरिकायां दिशि वर्तमानं, दिल्लीपुरे राजति धाम तद्धि ॥ ३४९ ॥ यथा चतुर्दिक्षु चतुर्दिगीश-विमान
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॥९६॥
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कानि प्रविभान्ति तद्वत् । पुर्याश्चतुर्दिक्षु महत्तराणि, निर्वाणसमान्यतुलानि भान्ति ॥ ३५० ॥ बामेति यद्वद्गजदन्तसंबैनगैश्चतुर्भिः कनकाचलः सः। तथा पुरीयं गुरुवर्यमुक्ति-स्थानचतुर्मिः सततं विभाति ॥ ३५१ ।। सर्वे धनाऽऽढ्या निवसन्ति तत्र, कोटिध्वजाश्चेभ्यवरा अनेके । ततोऽधिकाः श्रेष्ठिवराः कियन्तो, न्यूनाच लक्षान हि केपि जैनाः ॥ ३५२ ।। अनेकविद्यालयमत्र भौपं, जैनीयकं चाऽपि विशालमस्ति । कन्यासुशिक्षाभवनं च नैक, सवेदशाला महती च राज्ञः ॥३५३।। सल्लेखशालाऽऽङ्गलपाठशालाः, सदौषधस्थानमनेकशो हि । स्त्रीणां चिकित्साभवनं विशालं, सद्राजकीयं पृथगस्ति तत्र ॥३५४||
(शार्दूलविक्रीडितम्)-आयुर्वेदिकमेषजालयमिहाऽनेकं वरीत्यते, वापी-प-तडाग-हारि-विविधाऽऽरामा: सरस्यस्तथा । उद्यान बहुलं नृपस्य महतामिभ्याऽऽदिकानामपि, स्वर्वेश्या इव भान्ति तत्र गणिकाश्चन्द्राऽऽनना भूरिशः ॥ ३५५ ।। विद्वांसो बहुशो वसन्ति जगति प्रख्यातकीर्तिव्रजा, विप्रा वैदिककर्मठा बुधवरा नित्यं स्वधर्म रताः । जात्याश्वा अमिता मदान्धकरिणः क्षोणीपतिर्धार्मिको, नीतिज्ञा वरमन्त्रिणो विजयिनी सेना यशस्कारिणी ।। ३५६ ।। सच्छीलाः कुलजाङ्गनाः सुनयनाः पूणेन्दुविम्बाऽऽनना, नाऽनीतिर्न च दुष्कृतं न च भयं चौराऽऽदिजं कर्हिचित् । प्राकारेण सुदुर्गमा सुरपुरी जाहस्यमानाधिका, नानाभौमिकतुङ्गसौधपटली लेलिह्यते चाऽम्बरम् ।। ३५७ ॥ ( उपजातिः)-वृहल्लघुद्वारमपूर्वमस्या-श्चतुष्प. थाऽऽदिर्विपुलो बनेक: । सद्राजमार्गो विपणिः प्रहश्या, महाऽऽपणाऽऽली बहुधा विभाति ।। ३५८ ॥ घण्टापथोऽप्यत्र विशेष
रम्यः, सर्वत्र पुर्यामतिविस्तृतश्च । रथ्या वृहत्याः परिशोभमानाः, सौगन्धिकादेविपणिश्च तासु ॥ ३५९ ॥ राठोरवंशं समल- | |कारिष्णुः, श्रीमान्महीयान् गुणवान् नयज्ञः । शार्दूलसिंहो वसुधाधयोऽस्ति, सर्वाः प्रजाः पाति पितेव नित्यम् ।। ३६०॥
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श्रीजिन
कृपाचन्द्र
सूरिचरित्रम् ॥ ९७ ॥
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तद्यौवराज्यं भजते महौजा, विपक्षकक्षौघतनूनपात्सः । गङ्गाहरिः सद्गुणताऽभिरामः संग्रामजेता हनुमानवा ॥ ३६१ ॥ इत्थं महाऽऽडम्बरतः प्रवेशं कुर्वन् महीयान् जिनकीर्तिस्वरिः । तस्मिन् पुरे विक्रमपूर्वके हि, स्त्रीपुंसवृन्देरभिवन्द्यमानः ।। ३६२ ।। शोभां पुरस्याऽधिकसञ्जितस्य, सत्तोरणाऽऽद्यैः परिवीक्षमाणः । महाऽऽपणाऽऽसनगतोऽतिभक्त्या, पोपूज्यमानः सुचिरं गृहस्थैः ।। ३६३ ॥ जिनेशचैत्यान्यवलोकमानः, स रॉघणीत्याख्यचतुष्पथेन । नाहाटगूवाडमुहलिकायां क्रमागतः श्री ऋषभस्य चैत्ये || ३६४ ॥ (त्रिभिर्विशेषकम् ) युगाऽऽदिनाथं प्रविलोक्य भक्त्या स्तुत्वा तमागाद्वहिरेष यावत् । तावच्च सुश्रावकदानमल - स्तत्र स्थितः शङ्करदानजिच्च ।। ३६५ ।। जजल्पतुस्तं भगवन् ! किलेदं भव्यं विशालं भवनं मदीयम् । भवादृशां पावनपत्कजाना-मावासयोग्यं कृपया पुनीहि ।। ३६६ ।। ( युग्मम् ) सच्छिष्यवृन्दैः सह पार्श्ववर्तिन्यस्मिन् निवासं गुरुवर्य ! नूनम् । कुरुष्व संसारसमुद्रतारिन् । पवित्रय एवं तदवश्यमेव ।। ३६७ ॥ ( शाखिनी ) - ताभ्यामेवं प्रार्थ्यमानोऽसकौ हि, तस्मिन्नेवाऽगार आवासमीड्यः । शिष्यैः सर्वैः सार्धमाकृत्य पश्चात्, प्रोचैः पट्टे सन्निषण्णो महिषुः (मुनीशः) ।। ३६८ ।।
( उपजाति: ) - उपस्थितं तत्र चतुर्विधं श्री संघं पयोदध्वनिजित्सुवाचा । प्रारब्धवान्मङ्गलदेशनां स, महाविशाले रमणीयसौधे ॥ ३६९ ॥ ( मन्दाक्रान्ता ) - अर्हत्सिद्ध-प्रवचनमथाऽऽचार्यवर्य-प्रवृद्धोपाध्यायांस्तानखिलसुमुनीन् ज्ञान-हकूसद्विनीतीः । चारित्रं चाsतुलचलकरं ब्रह्मचर्यं क्रियां च व्यावर्णैप प्रथितविदुषामग्रणीः सूरिराजः || ३७० ॥ ( आर्या ) -- तपो गौतम - जिन चारित्रं ज्ञानं ह्यपूर्वश्रुतं तीर्थम् । इति विंशतिपदकानां स्वरूपाऽऽदीन् वर्णयामास ।। ३७१ ॥ ( युग्मम् ) ( शार्दूलविक्रीडितम् ) --सुरेरास्यसुधामयूख- विगलद्धर्मोपदेशामृतम्, पायम्पायमशेषसभ्यनिवहा मोलु
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चमाना गुरोः । ग्याख्यानाऽतिमहत्वमादरभराः पुखीजनास्तुष्ट-लात्वा श्रीफलसत्प्रभावनममी स्वं वं गृहं पेदिरे ॥३७२॥
(उपजातिः)-कियदिनान्यत्र जनानशेषान् , नानोपदेशैः प्रतिबोधयन्सः । आसीचतः पश्चिमदिग्विभागे, गव्यूतियुग्मात्परमस्ति नालम् ॥३७३।। तत्सीम्नि वर्वर्ति तलाइकैका, महत्तरा तां निकपा च रम्पम् । दादाजितः श्रीजिनदत्तसूरेः, स्थान, विचकास्ति दृश्यम् ॥३७४॥ महाप्रभावं परितोऽस्ति तच, प्राकारशोभां दधदद्वितीयम् । चैत्यदयं तत्र विलालसीति, मध्ये जिनादेः कुशलस्य सूरेः ॥३७५।। दादाजितश्चाऽस्ति विशालचैत्यं, तदम्य-पृष्ठ्योभयभागदेशे। यात्रार्थत(मत्राऽऽगतवासहेतोगृहाणि नेकानि महान्ति सन्ति ।।३७६।। निर्मातनामा कितभव्य-धर्म-शालाऽप्यनेका रचिताऽस्ति तत्र । इतोऽन्यदप्यस्ति विशेपश्य, स्थाने च तस्मिन्नति पावके हि ।। ३७७ ।। अतो ह्यसौ मूरिवरो विहृत्य, यात्रार्थमत्राऽऽगतवांश्चतुर्भिः । संवैध सत्रा महतोत्सवेन, द्वित्रांच घस्रानिह तस्थिवान् सः ॥ ३७८ ।। विधाय यात्रा पुनरेप विक-मादि पुरं प्रापदशेषसंधैः । पुनस्तपस्ये समुपाजगाम, दशैं तिथौ नालपुरं सुखेन ।। ३७९ ।। स्थित्वा श्यहं सोऽत्र मुखेन पश्चात् , समाययौ विक्रमपतनं सः । कियदिनानन्तरमेष रेल-दादाजिसन्दर्शनकर्तुकामः ॥ ३८० ॥ आगाच गङ्गासहरं सशिष्योऽ-सौ मासकल्पं विधिवद् व्यधच । भग्यांब सम्यक प्रतियोध्य तत्र, भिनासरं चाऽऽगतवान् विहत्य ।। ३८१ ।। (युग्मम् ) लोकाः ससरकारम प्रहृष्टाः, प्रवेशयामासुरतुच्छभक्त्या । व्यहं ज्यहं वा प्रतिबोध्य लोकान् , उद्रामपूर्व सरमाससाद ॥ ३८२ ॥ दादाविभु प्रक्षत तत्र मास-कल्यं च कृत्वा व्यहरच तस्मात् । भिनासरं नाम पुरं गच्छत् , प्राबोधयचाच जनांश्च भव्यान् ॥२८॥
१ "स्थानं सुरम्य विचकास्ति दृश्यम् " इति पाठः संभवति.
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बीजिनरूपाचन्द्र-IN
सरिचरित्रम्
॥९८॥
आयिष्ट गङ्गासहरं स रेल-दादाप्रभु प्रेक्ष्य ततो विहृत्य । तद्विक्रम पत्तनमेत्य मूरि-गोगाऽभिधद्वारवरेण पुर्याः ।। ३८४ ।। हा चतुर्थ अन्तः प्रविष्टः पुरमध्यमार्गः, परिव्रजन सूरिवरः सशिष्यः। तद्राँघडीचौकवरं प्रपश्यन् , संधैश्चतुर्मिबहुलैः समेतः ।।३८५।। सर्गः। वेण्डाऽऽदिवाधैर्युगपनदद्भि-रर्कप्रमाणैर्निजतारनादैः । पुरीमशेषां परिपूरयद्भि-र्वाधिर्यमाप्ते सति सर्वलोके ॥ ३८६ ॥ क्रमेण नाहाटगुवाडसंज्ञ-मुहल्लिकायामृपभीयचैत्ये । समागतः श्रीऋषभप्रभूणा-मालोकनं सोऽकृत भूरिभक्त्या ॥ ३८७ ॥ (चतुर्भिः कलापकम् । प्रागुक्तसुश्रावकदानमल्ल-विशालहम्य मुनिवासयोग्ये । वर्षतुवासाऽर्हगुणैरुपेते, सन्तस्थिवाद्रीजिनकीर्तिमरिः ॥ ३८८ ॥ शराऽष्ट-नन्दक्षितिमानवर्षे, प्रावृट्चतुर्मासिकवासमेषः । तत्रैव चके सकलाऽऽगृहीतः, सूरी-| श्वरोऽसौ सह भूरिशिष्यैः ॥ ३८९ ॥ श्रद्धालवः श्राद्धगणा अशेषाः, प्रोत्साहवन्तो बहुसत्तपांसि । स्त्रियः पुमांसश्च गरिष्ठभाव-रकार्युरेतद्गुरुराजपार्थे ॥ ३९० ॥ प्रभावना: श्रीफल-रूप्य-हेम-खण्डै: प्रचकुर्बहवो महेभ्याः । सत्स्वामिवात्सल्यमसंख्यमत्र विराजमाने गुरुराजकेस्मिन् ॥ ३९१ ।। पूजा विशिष्टा प्रतिषस्रमाई-ती सम्प्रजझे परमोत्सवेन । कियहिनान्येष सुमिष्टवाचा, नानोपदेशं ददिवांस्ततश्च ।। ३९२ ।। सच्चन्द्रताराऽऽधनुकूलघस्र, शस्ते मुहूः स हि पश्चमाङ्गम् ! आरब्धवान् सूरिवरः सटीक, श्रीविक्रमादित्यचरित्रकं च ॥ ३९३ ।। दिनाच्च तस्मात्प्रतिसब तत्र, ह्याचाम्ल-नीवी-समुपोपणानि | लग्नानि नित्यं भवितुं तदर्थे, तपोविशेषाणि यथाऽऽत्मशक्ति ।। ३९४ ॥ (भुजंगप्रयातम)-श्रुतज्ञानपूजां प्रचा: प्रभच्या, सुगन्धिप्रकर्ष प्रधूपं ददुश्च । अखण्डं प्रदीपं सदाऽकुर्वतेते, यथाशाखमेतद् व्यधुस्ते गुरूक्तम् ।। ३९५ ।।
(उपजातिः)-सन्मौक्तिकैस्तेऽरचयन्त नित्य, श्रीस्वस्तिक केतनमुन्नतं च । अपुस्फुरन् राजत-हेममुद्रा, उपाहरभि- | ।। ९८॥
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भ्यवरा अनेके ।। ३९६ ॥ मुक्ताफलै राजत-हैमपुष्पै-वर्धापयामासुस्तुच्छभक्या । प्रभावनानित्यजिनेशपूजा-विशेषरूपेण समरकारि ॥ ३९७॥ (आर्यो)--प्रति शतकं प्रत्युद्दे-दश प्रति प्रश्नं राजती मुद्राम् । सौवर्णीमपि मुद्रां, मुक्ताफलानि च दृढौकिरे ॥३९८।। गौतमनामोपरिष्टाद्, द्रव्यमप्यढौकन्त सर्व इम्याः । साधर्मिक-गुणि-साधु-सप्रेमभक्तिमप्यकुर्वन् ॥ ३९९ ।। (शार्दूलविक्रीडितम् )--तस्यारम्भदिने समस्तभविकाः श्राद्धास्तथा श्राविकार, नैशं जागरण व्यधुः प्रमुदितास्तौर्यत्रिकैचादरात । प्रातचार्कमितविशेषपटहाऽऽद्यातोचरम्याऽऽरवैः, श्रीसंघ: सकले पुरे भगवतीसत्रं महाऽऽडम्बरात् ॥ ४०० ।। दिव्यत्रीशिरसि स्थिते गुरुतरे सुस्थालके राजते, न्यस्तं क्षौमपटाऽऽदिभिः परिवृतं सम्भ्राम्य सर्वे जनाः । प्रत्यावृत्य गुरोः करे सरसिजे प्रत्यार्पयन् सादरं, चेत्थं भूरिधनव्ययभगवतीमत्रं समे शुश्रुवुः ॥ ४०१।। (युग्मम् )
( उपजातिः )-यावन्तमेतद्विधिमेप सूरि-राख्यजनांस्ते सकलैश्च तैहि । सूरीश्वराऽऽस्याद्विधिवनिशम्य, स्वं स्वं जनुर्धन्यममंसते ।। ४०२ ।। आपादमासे धवले च पक्षे, चतुर्दशीपर्व दिने च सायम् । प्रतिक्रमाऽन्ते चतुष्टलक्ष-जीवनिजागः क्षमयन् स्वयश्च ।। ४.३ ॥ तेषां तदक्षंस्त समाधिपूर्व, विशुद्धभाबेन समस्तलोकः । ददौ च मिच्छामि मुदकड हि, पापाऽपनोदाय शिवाय चापि ॥ ४०४ ॥ (ततो नभोमासि जनाः किलेत्थं, दिनं झुपोषुः कति चैकमेव । द्वे त्रीणि चत्वारि दिनानि पश्चो-पावात्सुरत्रत्यजनाः कियन्तः ॥४०५॥ षट् सप्त चाऽष्टौ नव वासराणि, दशाऽपरे रुद्रदिनानि केचित् । अहानि (च)द्वादश तत्र भव्या-खयोदशाऽन्ये समुपावसंश्च ।।४०६।। खियः पुमांसश्च चतुर्दशाऽपि, दिनानि सानन्दमुपावसन् हि तिथिप्रमाणानि च वासराणि, ते षोडशाऽहानि च भूरिलोकाः ॥ ४०७॥ उपोपुरेवं दशसप्तपत्राः) ततो नभोमासि समागते ते,
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श्रीजिनकृपाचन्द्र
सूरिचरित्रम्
॥ ९९ ॥
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ह्येकोपवासं सकलाः प्रचक्रुः । द्वैघस्रिकं ध्याहिकमप्यनेके, तुर्यांस्तथा पञ्चदिनोपवासम् ॥ ४०८ ।। षट्सप्त-शैलाङ्क -दशोपवासान्, एकादश-द्वादश चाsपि लोकाः त्रयोदशाऽप्येवमनेकभव्या-चतुर्दशाऽकुर्वत भूरिभक्त्या ॥ ४०९ ।। तिथिप्रमाणं च जनाः कियन्त-अक्कुः परे पोडश चोपवासान् । अथाऽपरे सप्तदश प्रचक्रु-रष्टादशाऽपि प्रबलाः कियन्तः ॥ ४१० ॥ एकोनविंशत्युपवासमेवं, चक्रुस्तथा विंशतिमप्यनल्पाः । अथैकविंशत्युपवासमेते, द्वाविंशतिं चाऽपि घना जना हि ॥ ४११ ।। चक्रुस्त्रयोविंशतिमप्यनेके, युग-द्विसंख्यं बहवोऽत्र भव्याः । कियञ्जनाः पञ्चदेलप्रमाणं, पश्चिशतिं चाऽपि महामहेन || ४१२ ॥ नक्षमात्रं बहुदुष्करं ते ऽष्टाविंशतिं भक्तिभरेण चक्रुः । एकोनत्रिंशदिवसोपवासं मासोपवासं व्यदधुः कियन्तः ||४१३|| एकत्रि संख्यं द्युपवासमेवं, द्वात्रिंशतं चाऽपि महोपवासम् । विधाय सानन्दमशेषलोका, धर्मं महान्तं परिलेभिरे हि ॥ ४१४ ॥ ततो नभस्याऽसित विष्णुतियां, दिनाऽष्टकं यावदशेषसंघः । पर्यूषणापर्व महामहेन, समारराधाऽधिकधर्मकृत्यैः || ४१५ || सम्वत्सरपर्वदिने च सायम्, प्रतिक्रमान्ते सकलैश्च जीवैः । संघचतुर्धा क्रमशः क्षमित्वाऽक्षमापयद्वार्षिकजातमन्तुम् ॥ ४१६ ॥ ततश्चतुःसंघ उदारभावैश्चैत्यप्रवाटी भ्रमयाञ्चकार । समस्तपुर्यां महता महेन, बेण्डाऽऽदिनानाविधवाद्यनादैः || ४१७ ।। इषेमासे विजयादिकाया, महे दशम्याः समुपस्थिते हि । वरीश्वराऽऽस्यादुपधानकृत्य माहात्म्यमाकर्ण्य विशेषमेषः || ४१८|| श्रीप्रेमचन्द्रः सुमतिः खजान - चीत्याख्यसुश्रावक उत्थितः सन् । आचार्यवर्यस्य पुरः समृचे, लाभो ह्ययं मे प्रभुवर्य ! देहि ||४१९॥ अहङ्करिष्याम्युपधाननाम महातपः कारयिताऽस्मि चाऽन्यैः । जागर्ति वाञ्छा महती मदीय-चित्ते कृपालो ! भगवंस्तदर्थम् ||४२०।। आचार्यवर्यस्तमवक् तदैवं श्रद्धाssढ्य ! सुभावक ! भावना चेत् । किलेदृशी ते समुदेति तर्हि, शीघ्रं विधातुं
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चतुर्थः सर्गः ।
॥ ९९ ॥
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कुरु यत्नमेतत् (म्)॥ ४२१ ॥ धर्मस्य कार्ये न विलम्बनीयं, अयोऽथिभिर्धारजनैः सुपुम्भिः । गुरूदितं वाक्यमिदं निशम्य, श्रेष्ठी प्रसीदन् गुरुमेवमाख्यत् ।।४२२॥ स्वामिन् ! किलाऽस्मिन् न हि मे विलम्बो, विलोक्यतां तदिवसः कदैता । प्रारम्भय त्वं सुदिने किलेतत् , विलोक्यमूरिस्तमवोचतेबम् ।। ४२३ ।। (शार्दूलविक्रीडितम्)-भव्यात्मन् ! दशमीयमस्ति विजया सर्वानुकूला शुभा, तस्मिन्नेव शुभकरिष्णुदिवसे प्रारभ्यतामेतकत् । निर्णीते गुरुभिर्दिने द्रुततरं सत्कुलपत्रीमसौ, प्रेषीद्देशविदेशयोश्च सकलश्रीसङ्घकाऽऽहूतये ॥४२४|| (उपजातिः)-तत्रोपयुक्कामथ सर्वसाम-ग्रीमानयामास तदैव सोऽपि । ततो दशम्यां विजयादिकायामारम्भयच्छीमुनिराज एपः ॥४२५।। आसंस्तदाराधकपुखियश्व,प्रायः शताऽष्टोत्तरसंख्यका हि । तपस्यमुष्मिन् निशि जागराऽऽदि-मालासमारोपणकोत्सवश्च ॥४२६।। दिनाऽष्टकाऽऽरब्धमहोत्सवोऽपि, शान्त्यादिकखात्रसमर्चनं च । सुस्वामिवात्सल्यमनेकवस्तु-प्रभावना-शील-तपः-प्रदानम् ॥ ४२७ ।। दीनार-मुद्राऽऽदिकदानमत्र, फलोधिपुर्यामिव सर्वथाऽभूत् । आराधकाऽशेषजनाऽशनाऽऽदि, श्रीप्रेमचन्द्रः कृतवान् खजाची ॥४२८।। आरम्भघसादुपधानकीया-ऽवसानपर्यन्तमुपागतानाम् । साधर्मिकाणामशनाऽऽदिना हि, सम्भक्तिमेपोऽकत भूरिभावः ॥४२९।। वैदेशिकाबा(?)गतसजनास्ते, तपस्विकेभ्यो व्यददुः समेभ्यः । प्रभावनां भक्तिकृते तदाऽष्ट-शेर्तप्रकार परिवृद्धभावाः ||४३० ॥ मिथो ददस्ते शतशव मुद्रा, भावप्रवक्ष्या वरभक्तिहेतोः। तैपेसिते स्कन्दतिथौ सुचारु-महोत्सवैः सूरिवरः समेषाम् ॥ ४३१ ।। मालां समारोपितवानधिग्री-वं स्वर्णमुद्रामथ शालरूप्य-कादींश्च तेभ्यो व्यददुर्महेभ्या-स्तपस्विनां स्वीयकराम्बुजेन ॥ ४३२ ॥ युग्मम् ॥ शेपं च सर्व फलवद्धिपूर्वत्, पुर्यामिहाऽभूदुपधानकृत्ये । इत्थं महाऽऽडम्बरतः समाप्य, ततो व्यहार्षीन् मुनिराजवर्यः ।। ४३३ ।। (वसन्ततिलका)-आगत्य
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श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिचरित्रम्
॥१००॥
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नालनगरी सह शिष्यवृन्दै- ददाजितं परिविलोक्य बभूव हुए। द्वित्राणि तत्र दिवसानि समध्यवात्सी- दागाच विक्रमपुरं पुनरेष सूरिः ॥ ४३४ ॥ भूयस्तपस्य सितभिन्नदले च दशै श्रीमजिनादि कुशलाऽभिधरिराजः । निर्वाणकारिदिवसे सह सर्वसंधै नलाssख्यपत्तनमुपागतवांश्च सूरिः ।। ४३५ ॥ ( उपजातिः ) विधाय यात्रां गुणवद्गरीयान् पुनः समैद्विक्रमपत्तनं सः । संधैश्रतुर्भिः सह सूरिराजः प्रख्यातिमान् सर्वगुणैकवासः || ४३६ ।। विज्ञप्तये सूरिवरस्य तत्र, सवाइपूर्वाजययुरुपुराच्च । हम्मीरमल्लो मतिमान् गुलेच्छा, सुश्रावको ऽनेकजनैः सहागात् ।। ४३७ ॥ अत्यन्तमुद्वीक्ष्य तदाग्रहं स तत्रैतुमङ्गीकृतवान् दयालुः । ततश्च सर्वे मुदिता निवृत्य, श्राद्धाः समायुः स्वपुरं सुखार्ताः || ४३८ ।। गतेषु तेष्वत्र चिकित्सका हि, न्यषेधिपुः सूविरं विहर्तुम् । अशक्तिमालोक्य तनौ विशेषा-मतो बिहारं न्यरुधत्स तावत् ।। ४३९ ।। स रांगडीचौक- नवीनधर्म- शालां समागत्य सुखेन तस्थौ । दिनेषु यातेषु कियत्सु तत्र, पुनर्विहर्तु चकमे यदाऽसौ ॥ ४४० ॥ तब तस्याऽधिकनिर्बलत्व - माकस्मिकं सूरिवरस्य देहे । जज्ञे ततो न व्यहरच किन्तु, चित्ते स्वकीये व्यमृशत्किलैवम् ॥ ४४१ ॥
( शार्दूलविक्रीडितम् ) क्षेत्रस्याऽस्य ममाऽस्ति सम्प्रति महान् स्पर्शो बलीयानिति मत्वा तत्र कियद्दिनानि गमयाश्चक्रे च सूरीश्वरः । पश्चाद्राँघडिचौक-संस्थित- तपोगच्छीयशालामसौ, यातः पौषधपूर्विका जलमरुद्व्यावृत्तिकामः प्रभुः ||४४२|| क्षेत्रस्पर्शनयोगतोऽधिकतरादावल्यतञ्चाऽप्यसौ, तर्काद्रि-ग्रह-भूमिते सुजनताऽस्यन्ताऽऽग्रहाद्वत्सरे । चातुर्मासमलञ्चकार मतिमान् सागुण्यरत्नाकरः श्रीमच्छ्री जिन कीर्तिसूरिरखिलैः सच्छिष्यवर्गैः श्रितः ॥ ४४३ ॥ ( उपजातिः ) – विचिन्तयन्निष्टमजस्रमेष, साधूनशेषान् यमिनीच बह्वीः । अध्यापयत्सूत्र चरित्रकादि, सत्यामशक्तावपि सूरिराजः ॥ ४४४ ॥
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चतुर्थः सर्गः ।
॥१००॥
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(नग्धरा)-आचाराङ्गं ह्यशेष तदनु सुयगडांगं च सम्पूर्णमेवं, स्थानाङ्गं चापि सूत्रं तदपि च समवायाङ्गमध्यापिपत्सः । आद्यन्तं नन्दिसूत्रं स हि परमनुयोगादिकं द्वारसूत्रं, व्याख्यानेऽप्येतकानि प्रथितगुरुवरो वाचयामास तत्र ॥४४५।।
(आर्या)--श्रीज्ञातधर्मकथाङ्ग-मुपादशाङ्गमन्तकृद्दशाहू च । अनुत्तरदशाङ्गसूत्रं, श्रीप्रश्नव्याकरणसूत्रम् ॥ ४४६ ॥
( आयांगीतिः )-तच्छ्रीविपाकसूत्र, कल्पसूत्रमात्मप्रबोधप्रकरणम् । नवपदमाहात्म्यप्रक-रणप्रवचनसारोद्धारप्रकरणे |॥४४७॥ (उपगीतिः)-जीवविचाराऽऽदि प्रक-रणमुपदेशमालाप्रकरणम् । आगमशाखप्रकरण-मपि च योगशाखप्रकरणम् ।। ४४८ ।। नयचक्रसारवालाऽ-वबोधप्रकरणमपि सर्वम् । चतुर्विशतिबालाऽव-बोधाऽऽदिकाः सबै ग्रन्थाः ।।४४९।।
(उपजातिः)-अध्यापिताः सरिवरेण तत्र, व्याख्यानकाले परिवाचिताच । अनुक्रमाद्वादशमासिकानि, पर्वाणि सर्वाणि सुखेन सम्यक् ।। ४५० ॥ आराधयन् कार्तिकतचतुर्मा-सान्त्यं प्रतिक्राममसौ विधाय । मौनाऽऽदिकां तां परमामथैका-दशीं ततः पौषधशालिकातः ॥ ४५१ ।। विनिर्गतः शक्रदिशास्थरम्य-गोगापुरद्वारवहिःस्थितायाम् । आसूजितः कोचरगोत्रिणो हि, सद्वाटिकायामयमागमञ्च ॥ ४५२। (युग्मम् ) समाधियोग्यं रुचिरं स्थलं तव , समध्यतिष्ठजिनकीतिमरिः। अशक्तितो वैद्यनिरोधतच, वाज्यष्ट-नन्दक्षितिसंख्यवर्षे ॥ ४५३ ॥ क्षेत्राभियोगस्य बलिष्ठकत्वात, सदौषधेः सेवनतच तत्र । व्यराजते यत्समयं महीयान् , प्रख्यातिमद्विक्रमपचनेऽसौ ॥४५४।। इतो यथायं व्यहरचतुर्मा-सस्याऽवसाने तदशेषमने । सौराष्ट्रदेशाभिमुखप्रयाण, संवर्णयिष्ये स्वषिया गुरूणाम् ॥ ४५५ ।। ( शार्दूलविक्रीडितम् )-इत्याचार्यशिरोमणेर्जिनकृपाचन्द्रस्य सूरीशितुः, सूरिश्रीजयसागरेण विदुषा श्रीमद्गुरोर्भक्तये । सत्काव्ये रचिते यथामति महायत्नाचरित्रा
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श्रीजिनकृपाचन्द्र
बरि
चरित्रम्
॥१०१॥
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ssत्मके, चातुर्मासिकषट्कवर्णनमयः सर्गस्तुरीयो गतः ॥ ४५६ ॥
॥ इति चतुर्थः सर्गः समाप्तः ॥
अथ पञ्चमः सर्गः प्रारभ्यते—
( शार्दूलविक्रीडितम् ) लोके श्रीऋषभ - प्रजापति - महादेवेतिनामत्रयैः प्रख्यातिं गतवाननन्तमहिमा त्रैलोक्यनाथो हि यः । श्रीनाभेर्मरुदेविका सुजठरे सर्वार्थसिद्धच्युतो, जातो मानवसर्वरीतिमनघश्चाऽऽदौ समस्थापयत् ॥ १ ॥
( उपजाति: )—सद्राजनीतिं व्यवहारनीति, सद्धर्मनीतिं पुरुषाऽङ्गनानाम् । दैलर्षि वेदाङ्गकला युगादा- वशिक्षयच्चान्यमनुक्रमेण || २ || आद्यः किलाऽस्मिन्नभवच राजा, भिक्षाचरश्चाऽऽदिम एष एव । तीर्थङ्कराणाम्प्रथमच योऽभू-दर्द्दन्नथाऽऽद्यः समभूजगत्याम् || ३ || प्राथम्यमागादिह केवलित्वे यः पञ्चशिल्पीं प्रकटीचकार । कर्माऽटकोच्छेदचिकीर्षया हि यो-ऽष्टाऽङ्गयोगं रचयाञ्चकार ॥। ४ ॥ ( स्रग्धरा ) – सम्यक्त्वज्ञानचारित्रमिह बहुतपः संविधायाऽतिघोरं, मुक्तेर्मार्ग विशुद्धं शुभभविमनुजान् दर्शयामास यश्च । कर्माण्यष्टौ विनाश्य स्वयमपि रजताऽगोपरिष्टात्सुखेन, निर्वाणं चाऽध्यगच्छत्तमनिश मनवं नाभिसूनुं नमामि ॥ ५ ॥ ( शार्दूलविक्रीडितम् ) - पूर्व चक्रिसुसम्पदं ह्यनुभवंस्तामत्य जल्लोष्ठवत्, जातोऽर्हन् कनकच्छविमृगधरस्तीर्थङ्करः पोडशः । लक्ष्मीवर्धनकारको जनिमतां सद्भक्तिभाजामसौ, कल्याणं बहु तन्तनीतु सततं श्रीशान्तिनाथः
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पश्चमः सर्गः ।
॥१०१॥
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SanMahavir.Jan.AmchanaKendra
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CASSACROCHAR
प्रभुः ॥६॥ दोमयनुजमावलम्ब्य मधुहा दोलातिलीलां व्यधात् , तेजस्तत्प्रतिवासुदेवकजरासन्धस्य योजहरीत् । ध्यायन्मुक्तिपथं सदैव हृदये राजीमती सञ्जही, जीवान् भूचरखेचराञ्जलचरान् बद्धान् परित्रातवान् ॥ ७॥
(स्रग्धरा )-अष्टाभिः प्रातिहारतिशयसुषमा सन्दधानः कृपालुः, आजन्मब्रह्मचारी त्रिभुवनजनतापूज्यपादारपिन्दः। आदाजीवाउनुकम्पामयमतिकठिनं संयम शर्मदं यो, द्वाविंशस्तीर्थकर्ता वितरतु भगवान् नः शिर्ष नेमिनाथ: ॥ ८॥ युग्मम् ।। (शार्दूलविक्रीडितम्)-यस्याऽसीमकृपावलोकनसुधामापीय सयः प(फणी, तेनोचारितमन्त्रराजमतुलं संश्रुत्य कर्णाऽमृतम् । सन्दग्धार्थतनुर्विपद्य धरणेन्द्राऽऽख्यो हि शक्रोऽभवत्, पाताले परमर्दिकः सुखमयस्तापत्रयीवर्जितः ॥ ९॥ (उपजाति।)-सोऽयं सदा न: परिपालयेत, श्रीपार्श्वनाथ-प्रभु-तीर्थकर्ता। विमानयोविंश इह प्रपनान् , अनन्तविज्ञान-दया-बलो हि ॥ १०॥ युग्मम् ॥ (बसन्ततिलका )--जन्माऽभिषेकसमये कनकाऽचलीय-शृङ्गास्थितः सकलदेवगणैः समेतः । शक्राऽधिपस्तमनघं चरमं जिनेशं, क्रोडे निधाय मनसीस्थमशताऽसौ ॥ ११ ॥
(अपजातिः)-पदेष नाथः खलु जातमात्रः, शैलाऽङ्गलक्षाऽधिककोटिकुम्भैः । सात्रं घविच्छिन्नतया प्रवृत्तं, सोढाऽथवा तेन सहैव बोढा ॥ १२ ॥ अतः सुरांस्तानभिषेचनाय, नैवाऽऽदिशच्छक्रपतिस्तदानीम् । मौढ्यात्कुतर्क सुरनायकस्य, ज्ञात्वा महावीरजिनस्तदैव ॥ १३ ॥ विस्तार्य पादं किल वाममेष, आपीडयच्चासनमैन्द्रमर्हन् । अङ्गुष्ठमात्रेण ततश्चकम्पे, सिंहासनं मेरुशिरच चाढम् ॥ १४ ॥ तदाऽवधिज्ञानवशाद्विदित्वा, तुष्टाव सौधर्मपतिस्तमीशम् । नाथ ! प्रसीदाऽनुपमं बलं ते, नाऽवेदिषं मौढ्य(मूढ)तया किलाऽहम् ॥ १५॥ अज्ञानजातं (तान्) मम सर्वमन्तून् , त्वं क्षामयेर्मामनुकम्पयाऽऽशु । निगद्य
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श्रीजिनकृपाचन्द्र
सूरिचरित्रम् ॥१०२॥
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चेत्थं सकलानमर्त्य - नाज्ञापयत्स्नात्रममुष्य कर्तुम् ।। १६ ।। ततः प्रहृष्टाः क्रमशोऽमरास्ते, प्रागुक्तसंख्यैः कलशैरशेषैः । त्रैलोक्यनाथं चरमं जिनेश, संस्नापयामासुरनन्तवीर्यम् ॥ १७ ॥ स त्रैलेयो भगवाञ्जिनेन्द्रो देवैरशेपैरसुरैश्च मत्यैः । पोपूज्यमानाऽनुपमाऽङ्गिकञ्जः, श्रीसंघसुश्री परिवृद्धयेऽस्तु ॥ १८ ॥ नगोऽर्बुदोऽष्टापदभूधरं च (रथ), समेतयुक्तं शिखरम्प्रशस्यम् । शत्रुञ्जयो रैवतकाञ्चलञ्च चम्पापुरी या जगति प्रसिद्धा ॥ १९ ॥ पुरी ह्यपापाऽखिलपत्तनया, निर्वाणभूमी: सकलाः किलैताः । अघौघविध्वंसनकारिकास्ता, नमाम्यहं भक्तिमरेण नित्यम् ॥ २० ॥ ( युग्मम् ) स्वर्गे च मर्त्येऽप्यथ नागलोके, चिम्बानि चाऽकृत्रिमत्रिमाणि । जिनेश्वराणामखिलानि तानि नमामि चाहं सदभीष्टसिद्ध्यै ॥ २१ ॥
( पृथ्वीच्छन्दः ) चतुर्दशशतं दलेष्वधिकसंख्ये कांस्तानपि, जिनाऽधिपगणाऽधिपाञ्जगदने ककीयुज्वलान् । च्युतिं च जिनगर्भ काऽपहृतिजन्मदीक्षा ग्रहा ननन्त-चर केवलप्रथितबुद्धिनिर्वाणकान् ॥ २२ ॥ ( उपजातिः ) — तेषां च कल्याणकपञ्चपदकं, कल्याणकीयाः सकलाच भूमीः । असीम पुण्यातुलशक्तिसूचि चतुर्दशस्वमवरांव नौमि ||२३|| ( युग्मम् )
( शार्दूलविक्रीडितम् ) — देन्ती श्वेतवृषो हरिभिपर्वैः पद्मालयायास्तथा द्वे माले कुसुमस्य चन्द्र-दिनपाविन्द्रध्वजः सदूधः । चूर्णोऽद्भिः सरे उत्पलैर्विलसितं क्षीरोदधिः सुन्दरं, श्रीमद्देवविमानकं सुललितं रत्नोचयं (यो) भासुरम् (र:) || २४ ॥ ( वसन्ततिलका) - निर्धूमपानकशिखी महती किलैते, स्वप्ना गरिgफलदा दशतुर्यसंख्याः । उत्सार्य चिन्नपटलीमिह नः समेषां तम्बन्तु मङ्गलमजस्रमनल्पमूर्व्याम् ॥ २५ ॥ ( युग्मम् ) वर्वर्ति विक्रमपुराइल - शैल - योजनान्ते विशालविषयः खलु लाटनामा । तद्देशमण्डनकरं कमलाप्रधानं सर्वर्द्धिमद्विलसूर्यपुरं चकास्ति ।। २६ ।। ( उपजातिः ) - तस्मिंश्च सुधावक
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पञ्चमः
सर्गः ।
॥१०२॥
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इभ्यवर्यः, कल्याणचन्द्रः कुरुते निवासम् । जहेरिकोपाह उदारकीर्ति-खिभिः सुपुत्रैः सह मोदमानः ।। २७ ।।
(मन्दाक्रान्ता)-श्रद्धाऽऽधिक्य विदुषि परमे विद्यते श्रेष्ठिनोऽस्य, श्रीश्रीपूज्ये जगति विदिते सर्पशाखप्रवीणे । हेतोस्तस्मादददिपि पुरे तब तस्यैकपत्रं, दतं तेन प्रतिदलमरं चित्तसन्तोषकारि ।। २८ । ( वसन्ततिलका )-श्रीमन्ममोपरि कृपा महतीं व्यवस्था, यत्पादलिप्तनगर गुरुराजबः । गन्तुं मनश्च समचीकरथास्तदेतत् , आकर्ण्य मे मनसि भूरि बभूव हर्षः ।। २९ ।। किश्चाऽन्यदयनय! मस्करणीयकार्य, ज्ञाप्यं अवश्यमखिलं कृपया भवद्भिः। या मामकीन-विशदा कृतधर्मशाला, तत्राऽस्ति साऽपि भविता नियतं पवित्रा ॥ ३० ॥ ( उपजातिः )-इत्यादिवामियपत्रमासीद् , ऊर्जावसाने सुरताऽधिवासी । स केसरी बेष्ठिवर: स्वपुत्रं, भ्रात्रीयकं चापि जनैः कियद्भिः ॥ ३१ ॥ (शालिनी)-साधं प्रेषीत्पूज्यपादाऽन्तिके हि, तूर्ण सव चाऽऽययुः पूज्यपार्श्वम् । ते श्रेष्ठचुक्ताऽशेषवृत्तान्तमूचुः, स्वामिन् ! गत्वा पादलितं पुरं स्वम् ॥ ३२ ।। कृत्वा यात्रा तत्पुराच्छीघ्रमेव, सर्वेः शिष्यैः सेव्यमानो विहृत्य । आयाद्येतत्पत्तनं मे कपालो ! सर्वे युष्मदर्शनोत्काचिराद्धि ॥ ३३ ॥ (त्रिमिर्विशेषकम् ) (शार्दूलविक्रीडितम् )-औषध्यादिकसर्ववस्तु सततं सजीकृतं वत्स्यति, मागे नैव मनागपि प्रभविता क्लेशो बिहारेऽपि ते । सर्व स्वीयधनव्ययेन पथि ते सम्पादयिष्याम्यहं, तचिन्ता हर सत्वरं विहर हे कारुण्यसिन्धो ! गुरो! ।। ३४ ।। एष्याम्यर्बुदपर्वते पुनरहं द्रष्टुं भवत्पत्कजं, तावश्यकरिक्तवस्तु सकलं पूर्ण करिष्ये पुनः । शातेनाऽऽशु भवानितो विहरतामित्येव सम्प्राथेये, श्रुत्वाऽऽचार्यवरस्तदीयसकलं संप्रार्थनं व्याहरत् ।। ३५॥
(उपजातिः )-मार्गेऽसिते कस्य तिथौ बिहार-मितः करिष्यामि न संशयीथाः । यत्केसरी श्रेष्ठिवरोऽस्ति धर्मा-ऽनु
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पञ्चमः सर्गः।
श्रीजिनकृपाचन्द्र
सूरिचरित्रम्
॥१०॥
रागिमुख्यः कृतिमअनाजयः ॥३६॥ श्रद्धालुभक्तोस्ति सदा हितैषी, कर्तास्मि तद्वाक्यमवश्यमेव । इतीरिते मूरिवरेण तेऽपि, जजलपुराचार्यगणाऽग्रगण्यम् ॥ ३७ ।। स्वामिन् ! त्वमेवं यदि निश्चिनोपि, सर्वे पयं तावदिहैव तर्हि । उपस्थिताः स्मो भवता विहारे, कृते च गन्तास्म इतः स्वगेहम् ॥ ३८ ॥ तुरङ्गवस्वकोशावर्षे, गुर्वन्तिके कार्तिकपूर्णिमान्ते । समागतान् सूर्यपुरादनेक-महेभ्यवर्यानवलोक्य सर्वे ॥ ३९ ॥ श्रुत्वा च दृष्ट्वा मिथ इत्थमेषा-माचार्यवर्यः सह भाषणाऽऽदि । निश्चिक्यिरे पौरजनास्तदानीं, श्रीपूज्यवर्यो विहरिष्यतीति ॥ ४०॥ (युग्मम् ) (इन्द्रवंशा)-ते संस्कृताः सर्वमहाजनास्ततः, श्रीपूज्यवर्यान्तिकमाययुनताः । तद्वन्दनादि प्रविधाय भक्तितो, विज्ञप्तिमारक्षत भूरिभावतः ॥ ४१ ॥ स्वामिन् ! मदीयाsधिकभाग्ययोगतः, पुर्याममुष्यां सुचिरं समस्थिथाः । लाभं महान्तं यदिथाश्च सद्गुरो! सम्प्रत्यदृष्टप्रतिकूलभावतः ॥ ४२ ॥ चिन्तामणि ग्रायभवत्सुदर्शनं, दुष्प्रापमेतत्खलु पुण्यमन्तरा | आगत्य तन्नः करसम्पुटे पुनायायते सम्प्रति दुःखमेमि तत् ॥४३॥ (इन्द्रवता)-नैवास्ति शक्तिः प्रतिरोद्धमेतत . तत्केवलं मानसाख मेमि । सम्प्रार्थये त्वां भगवंस्तथापि, स्वीकृत्य तन्नोऽनुगृहाण सर्वान् ॥ ४४ ।। (भुजङ्गप्रयातम् )-ततस्तानवादीत्कृपाचन्द्रसरि-र्जिनाऽऽदिः किमुष्टस्तदाख्यात यूयम् । समूचुस्तदा ते भवानत्र वर्षे, हयोऽष्ट-ग्रहेन्दुप्रमाणे दयालो ! ॥ ४५ ॥ चतुर्मासमस्थाद्बहिर्देश एव, ततस्त्वं पुराऽन्तः प्रविश्यैकरात्रम् । पुनाराघडीचौकसंस्थाऽतिनून-वृहद्धर्मशालामुषित्वा विहारम् ॥ ४६॥ (उपजाति:)-कुरुष्व याचामह एतदेव, तथाकृते नो हृदयेऽतिमोदः । जनिष्यते कविदवाच्य एव, नो चेत्समेपां हृदि दुःखमेव ॥४७॥ (त्रिभिर्विशेषकम्) स पूज्यपादस्तत एवमूचे, यत्कामयध्वे तदवश्यमस्तु । सुखं यथा वो भविता तथाऽई, कर्तास्मि भव्या इति वित्त यूयम्
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॥१०॥
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॥ ४८ ॥ (मालिनी)-इति निगदति तस्मिन् मरिराजे गरिष्ठे, परममुदमवापुः पौरलोका अशेषाः । सकलनगरशोभा तोरणाऽऽधैर्वितेनुः, प्रतिपदि सितभिन्ने मार्गशीर्षे पुराऽन्तः ।। ४९॥ गुरुवर उपयातो धर्मशालां विशाला, कमलभवसुतिथ्यां प्रातराचार्यवयः। व्यहरत सह शिष्यैर्वादशाऽऽतोधनादै-रुपयति बधिरत्वं प्रायशः सर्वलोके ॥ ५० ॥ (युग्मम् ) सह सकलसुसंघे राँघडीचौकहात् , प्रतिविपणि परिभ्राम्यन्नयं मन्दिराणि । परमजिनवराणामीक्षमाणः समन्ताद्, विपुलनगरमध्यादक्षिणद्वारतोऽसौ ॥ ५१ ॥ (उपजातिः)-विनिर्गतः श्रीप्रभुरेलदादा-जित्स्थानमागत्य सुखेन तस्थौ । क्रोशार्थदरे नगराच्च तस्मा-दाद्यप्रयाणं समभूदिहैव ।। ५२ ।। (युग्मम्) तत्रत्यसंघस्य चतुर्विधस्य, सच्छ्रेष्ठिनः सूरतवासिनश्च । अत्याग्रहादेष दिने द्वितीये, सन्तस्थिवान्दीनदयालुबयः ॥ ५३ ।। श्रीस्वामिवात्सल्यमपि प्रचक्रे, तस्मिन् दिने सूर्यपुराऽधिवासी। प्रभावनापूजनमेष तत्र, भक्त्या महत्या कृतवान् महेभ्यः ॥ ५४॥ दिने तृतीयेऽपि तदध्यतिष्ठत् , सद्धेतुना सूरिवरः सुखेन । चक्रे च तस्मिन् दिवसे स्वधर्मि-वात्सल्यपूजाऽऽदिकमादरेण ॥ ५५ ।। सद्भावतो विक्रमयुक्पुरीय-स्तुरीयघले प्रग एवं वरिः । करवा विहारं सह साधुवर्ग-रुद्रामयुक्तं सरमाजगाम ।। ५६।। तत्रस्थदादाजितमेष भक्त्या, नत्वा च नुत्वा परिवृद्धभावैः । चक्रे द्वितीय क्रमशः प्रयाण, स्थाने हि तस्मिन्यतिराजमुख्यः ।। ५७ ॥ विहृत्य तस्मात्स हि देशणोक-मागत्य सर्वः पुरवासिलोकैः । सुसत्कृतः सर्वजनान् प्रबोध्य, प्रगे विहारं कृतवांस्ततब ।। ५८ ।। स शूरपूराsभिधधूमयान-स्थितिस्थले रम्यसरायगेहे । तुर्यप्रयाणं कृतवान् सुखेना-ऽध्युष्यैकरात्रं गुणवारिकूपः ।। ५९ ॥ ततश्चलित्वा सह सर्वशिष्ये-नोकाभिधग्रामटिकामियाय । वाद्याऽऽदिभिः पौरजनास्तमेतं, प्रवेशयामासुरति प्रहटाः ।। ६० ।। सूरीश्वर
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श्रीजिनकृपाचन्द्र
सूरिचरित्रम्
॥१०४॥
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स्तत्र गिरा महत्या, पुत्रः कलत्रं कमलातुलेयम् । सन्मित्र - भृत्याऽऽदिकवस्तुमात्रं विनाशि नित्यः खलु धर्म एव ॥ ६१ ॥ स एव धीरैः परिवणीयः शश्वत्सुखेच्छा वरिवर्ति येषाम् । इत्याद्युपादिश्य ततो विहृत्य, चीलाऽभिधं जकसनमाजगाम ।। ६२ ।। स्थित्वा च तत्रैकसरायगेहे, चैकां निशां सूरिवरः प्रभाते । ततश्चलित्वा समुपाययौ स लायेतिनाम्ना प्रथितं पुरं वै ।। ६३ ।। तत्राऽस्ति चैत्यं रमणीयमेकं खुपाश्रयोऽप्यत्र वरीवृतीति । दृष्ट्वा जिनेशं स उपाश्रये - तिष्ठत्सशिष्यो महतोरसवेन ॥ ६४ ॥ महोपदेशैः प्रतिबोध्य लोकान् कृत्वा विहारं स हि गोगलावम् । आनश्च लोकैरतिसत्कृतः सन्नुपादिशच्चाऽऽतशुद्धधर्मम् ॥ ६५ ॥ ततो विहारं प्रविधाय सूरिः, समागम नागपुरं प्रसिद्धम् । राठोरखंशाऽमरसिंहभूप-सद्राजधानी महती पुराऽस्ति ॥ ६६ ॥ सर्वर्तुसौख्यं जनयन्महच, सद्धर्मनिष्ठाः पुरुषा अनेके । बभूवुरस्मिन्नतिकीर्तिमन्तो, महारमपुम्पादरजः पवित्रम् ।। ६७ ।। जैनानि रम्याणि सुमन्दिराणि सन्त्यत्र सद्मान्यपि सद्गुरूणाम् । सत्कूप वापी- सरसीतटाकैः, शोशुभ्यमानं नगरं किलैतत् ।। ६८ ।। महर्द्धिकश्रेष्ठिकदम्बवासं, दुर्गाऽधिकाऽसीम- विशालभासम् । लक्षेशकोटीशमहेभ्यकानां सौधश्रिया भात्यमरावतीव ।। ६९ ।। चतुष्पथैर्वेदमितैश्च रम्यं द्वाराणि चत्वारि महान्ति यत्र । तत्रैतमेनं जगदर्चनीयं, विद्याचणं श्रीजिनकीर्तिमुरिम् ।। ७० ।। प्रवेशयामास पुराऽन्तरित्थं, परिभ्रमनेष पुरे समस्मिन् । पश्यनेिशान् प्रतिमन्दिरं स आगावूकोटरिकां मुहल्लाम् ।। ७९ ।। तत्र स्थितं रम्यमलञ्चकार सुशोभितं तोरणबन्धनाऽऽद्यैः । उपाश्रयं सूरिवरोऽथ रम्या-मारब्धवान् मङ्गलदेशनां सः ॥ ७२ ॥ इहत्यकश्रीयतिरूपचन्द्र- सच्छिष्यको मोहनलालनामा । प्राप्तप्रतिष्ठ १ दुर्गाऽतिदुर्गं रिपुभीतिवर्जमिति वा ।
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पञ्चमः सर्गः ।
॥१०४॥
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बहुधा जनेषु, विद्वत्तमो विश्वजनीनवर्यः ।। ७३ ।। व्योम-त्रि-नन्देन्दुमिते च वर्षे, सर्व परित्यज्य परिग्रहं सः । क्रियोधृति कास स्वयमेव कृत्वा, यथाविधि प्राप सुसंयमित्वम् ।।७४|| मुम्बापुरी-सूर्यपुराऽऽदिकेषु, लब्धप्रतिष्ठो जगति प्रसिद्धः। कृत्वा|ऽऽत्मकल्याणमनेकमेष, यातो दिवं निर्मलभूरिकीर्तिः ।। ७५ ।। इहैव जातः स हि पत्तने यत् , तदस्य संक्षिप्तचरित्रमत्र । प्राप्त | प्रसङ्गान्मयका व्यदर्शि, महात्मनश्वातियशस्विनश्च ।। ७६ ।। बीरप्रभोः पट्टपरम्परायां, पदपष्टिकोऽभूजिनमुक्तिसरिः । श्रीकर्म
चन्द्रोऽभवदस्य पट्टे, तस्याऽभवच्चश्वरदासशिष्यः ।। ७७॥ श्रीवृदिचन्द्रोऽस्य बभूव पढे, समास्त पट्टेऽस्य हि लालचन्द्रः । | श्रीरूपचन्द्रोऽभवदेतदीय-पदाधिकारी गुणकीर्तिधारी ||७८।। एतस्य पट्टे निषसाद गुण्यो, महामतिमोहनलालसरिः ज्यायान् विनेयोऽस्य यशोमुनिश्च, पावापुरे ध्याननिमग्नयेताः || ७९।। तपोभिरुधुतसर्वपापो, रामेषुवस्रान् समुपोष्य धीरः । समाधिना कायमिह प्रहाय, द्यामारुरोहेष यशोगरिष्ठ: ।। ८० ॥ (आांगीतिः)-विस्तृतमेतच्चरित, दामोदरकविरचित
मोहनचरित्रात् । विदन्तु सर्वे सुधियः, ग्रन्थविस्तारभिया समक्षेपि मया ॥ ८१।। ( उपजातिः)-स सप्तपष्टिः समभूच्च वीर| पट्टावलीभूषणभूत एपः। जिनाऽऽदिभक्त्याख्यगरिष्ठसूरिः, श्रीनीतिसारोऽस्य बभूव पट्टे॥८२।। (द्रुतविलंबितम् )--तदनु तस्य विनेयवरो महान , अमृतधर्मगणी समुपाविशत् । प्रथितगौरव-पट्टमहासने, स्व-परशास्त्रविचारणदक्षिणः ॥ ८३ ।।
(उपजातिः )-श्रीमान् क्षमारत्नगणी तदीय-पट्टे पपीदद्गुणवान् सुबिद्वान् । तत्पशोभाकदभूच धर्मा-नन्दो गणी शान्तिसुधारसनः ।।८४॥ (दुतविलंत्रितम्)-सुमतिमण्डननामगणी महा-नभवदस्य सुपट्टनिवेशितः। सदसि वादिमतङ्गजकेसरी, निरतिचार-सुसंयमपालकः ॥ ८५ ।। (बग्धरा)-धर्मानन्दस्य पट्टे न्यसदतुलयशा राजयुक सागराऽऽख्यः, तत्पट्टे
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पञ्चमः सर्गः।
श्रीजिन- कृपाचन्द्र
सरिचरित्रम्
॥१०५
ऽत्यन्तविद्वान् विजिततममना ऋद्धियुक् सागराऽऽख्यः आसीदन्तेसदस्य प्रथितबहुतपाः सागरः स(रो वै)मुखाऽऽदिः, शान्तो दान्तो विनीतः क्षितितलविदितः सर्वजीवोपकर्ता ।।८६।। (उपजाति:)-अमुष्य शिष्यौ भगवानदासः, स्थानादिकः सागरकश्च जातौ। लोकोक्तिरेषा मयका बहुम्यो, लोकेभ्य आकर्णि परम्परातः॥८७॥ (गीतिः)-भगवान् सागरमणिनी, महोपाध्यायसुमतिसागरगणी। शिष्यो बभूव विद्वान्, प्रख्यातिमान् क्षितितले सर्वत्र ।।८८।। अस्याऽभवतां शिष्यौ, पन्यास-मणिसागरमतिसागरौ । विद्वांसौ तावधुना, वरीकृत्येते वसुधां पुनानौ ।। ८९ ।। (वसन्ततिलका)-श्रीस्थानसागरगणेः सुविनीतशिष्यः, श्रीमान् प्रधी छगनसागरनामकोऽभूत् । श्रीपूर्णसागरगणी प्रथमच तस्य, शिष्योऽपरो नवनिधिश्रितसागराऽऽख्यः ॥ ९०॥ श्रीपूर्णसागरगणेरभवत्सुशिष्या, श्रीक्षेमसागरगणी बहुकीर्तिशाली । शिष्यस्तदीय-गणि-बल्लभसागराऽऽरख्यः, सम्प्रत्यसौ विजयते क्षितिमण्डलेऽस्मिन् ॥ ९१ ।। किश्चाऽन्यदप्यहमनेकमुखाच्छृणोमि, यत्तस्य मोहनयुतस्य हि लालकस्य । बन्धुर्गुरोः सुमतिवर्द्धननामधेयो, नाम्नाऽपरेण स हि साहिवचन्द्रकेण ।। ९२ ॥ प्रख्यातिमानुदधरत्स्वयमेव कर्म, तेनाऽऽशु सर्वजनतासु महत्वमापत् । चारित्रसागरगणी समभूदमुष्य, पादाम्बुजाऽमलपरागविलुब्धभृङ्गः ॥९३॥ श्रीमान् प्रतापयुतसागरनामधेय:, शिष्यो बभूव गुणवान् गुरुभक्तिरक्तः । इत्यन्तसमभिधाय जनैश्च पृष्टो, लोकाऽऽग्रहास हि चतुःशरघरमस्थात् ॥ ९४ ॥
(उपजातिः)-ततो विहत्याऽऽगतवान् स मूंड-वाऽऽख्यां पुरी पौरजना महद्भिः । प्रावीविशंधारुमहोत्सवैस्ते, व्या. ख्याचिरं सोऽपि विशुद्धधर्मान् ।। ९५॥ कृत्वा विहारं तत एप सूरि-रागत्य तस्थौ खजवालपुर्याम् । पप्रच्छ गच्छाः सकलाः किमेक-गणाधिपाद्वा परतोऽप्यभूवन् ? ॥ ९६ ॥ तदोचिवान् सूरिवरस्तमेवं, भद्रेकपट्टे भगवान् स वीरः । श्रीगौतम
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चापि निगद्यते सुधर्मा द्वितीये परिगण्यते सः ॥ ९७ ॥ अतोऽधुना गौतमवंश्यकाना-मनुक्रमं चात्र विदर्शयामि । वीरप्रभोराद्यगणेश्वरोऽभूच्छ्रीगौतमस्वामिवरो महीयान् ॥ ९८ ॥ तदीयशिष्यत्वमवाप केशी - कुमार एनं कथयन्ति लोकाः । समुद्रसूरिं समभूत्किलाऽस्य स्वयम्प्रभः सूरिः सुशिष्यः ॥ ९९ ॥ सच्छिष्य एतस्य बभूव रत्न- प्रभा Sassचार्यवरस्तदत्थम् । परम्परातो ह्युपकेशगच्छ, उत्पेदिवान् मान्यतरच लोके ॥ १०० ॥ कोरण्टवालो निरगाचतोऽस्मात् ततश्च नाणाऽऽदिकवालगच्छः । चित्राऽऽदिगच्छश्च समाविरासीत्, नाणादिवाला द्विधिपचगच्छः || १०१ ॥ जातो द्वितीयो वडगच्छकथ, ह्येतत्स्थवाद्यादिकदेवसूरिः । अचालयनागपुरीययुक्त- बडाऽऽदिगच्छप्रयुतां च शाखाम् ||१०२ || सौधर्मवंशीय परम्परेत्थं, वीराद्वितीये समभूत्सुधर्मा । जम्बूरभूदेष तृतीयपट्टे, जातस्तुरीये प्रभवाख्यसूरिः ।। १०३ ।।
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( भुजङ्गप्रयातम् ) स शय्यम्भवोऽभूत्ततः पञ्चमे हि यशोभद्रसूरिर्वभूवैष षष्ठे । अभूत्सप्तमे वादिजेता सुवक्ता, स सम्भूतिरिर्महीयान् सुविद्वान् ॥ १०४ ॥ ( उपजाति: ) – पट्टेऽष्टमेऽभूदिह भद्रबाहुः, श्रीस्थूलिभद्रो नवमे बभूवान् । आचार्यassमहागिरिः स, जातो हि पड्ढे दशमे गरीयान् ॥ १०५ ॥ एकादशे चाऽऽर्यसुहस्तिसूरिः, स द्वादशे सुस्थितसूविर्यः । अभूत्तथा सुप्रतिबद्धरि-त्रयोदशे चाऽभवदिन्द्रदिन्नः ॥ १०६ ॥ चतुर्दशेऽभूदय दिन्नमूरि-रभूत्सकः पञ्चदशे च पट्टे । विद्वत्तमः सिंहगिरिश्व सूरिः, श्रीवज्रसूरिः किल पोडशेऽभूत् ।। १०७ ॥ पट्टेऽभवत्सप्तदशे प्रविद्वान् श्रीवज्रसेनाऽभिघसूविर्यः । अष्टादशे धीवर चन्द्रसूरि-रेकोनविंशेऽभवदार्य एषः ॥ १०८ ॥ समन्तभद्राऽभिधसूरिराजः, श्रीदेवसूरिः समभूच विंशे । अथैकविंशेऽतुलशक्तिधारी, प्रद्योतनाचार्यशिरोमणिः सः ॥ १०९ ॥ द्वाविंशद्वेऽभवदार्यमान- देवाऽऽख्यसूरिः परिणू
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श्रीजिनकपाचन्द्र
सरिचरित्रम्
2424
पश्चमः सर्गः।
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॥१०६॥
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तविद्यः । पढे त्रयोविंश उदारतेजाः, श्रीमानतुङ्गाऽभिधमूरिचयः ॥ ११० ॥ श्रीबीरमूरिः समभूच्चतुर्वि-शेऽभूत्ततः श्रीजयदेवमति । स पश्चविंशेऽजनि चैप देवा-नन्दाऽऽख्यसूरी रस-पक्षपट्टे ॥१११।। सञ्जातवान् विक्रमनामसरिः, पट्टे च तस्मिन् स हि सप्तविंशे । प्रादुर्बभूवान् नरसिंहमूरिः, शैलाथिपट्टेऽधिककीर्तिशाली ॥ ११२।। नन्दाक्षिसंख्ये समभूष पड़े, समुद्रसूरिः शशिशुभ्रकीर्तिः । त्रिंशचमे चाऽजनि मानदेवा, प्रभावशाली विजयकरिष्णुः ।। ११३ ।। एक-त्रिपट्टे विबुधप्रभाख्या, प्राचार्य उत्कृष्टतरो बभूवान् । द्वात्रिशति प्रादुरभृच पट्टे, जयादिमन्दाऽभिधसरिमुख्यः ॥ ११४ ॥ अभूतत्रयविंशति पट्टकेऽसौ, रविप्रभः सूरिंगणाऽग्रगण्यः | पट्टे चतुखिंशति संवभूव, श्रीमान् यशोदेवयुगप्रधानः ॥ ११५ ।।
(द्रुतविलंबितम् )-विमल चन्द्र उदैदथ सरिरात्, शर-हुताशनसंख्यकपट्टके । स्व-पर-शास्त्र-विशेषकृतश्रमः, सुजनताऽऽदृत-शोभितसद्गुणः ।। ११६ ।। ( उपजातिः)-बभूव पर्विंशति देवचन्द्रो, हृय-त्रि-पट्टे प्रभु नेमिचन्द्रः । सूरीश्वरोऽस्थादथ ४ पट्टकेऽष्टा-त्रिंशत्तमे चाऽपि महाप्रभावी ॥११७।। समस्थितो द्योतनसुरिराजो, ग्रह-त्रिपडे समजायताऽसौ। श्रीवर्धमानो भुवि
जिष्णुरायों, युगप्रधानः शमताऽम्बुराशिः ॥ ११८ ।। जिनेश्वरः सरिवरो नभोऽब्धि पढेऽजनिष्टाऽतुलदीप्तिदीप्रः । श्रीवुद्धिपूर्वोऽपि बभूव साग-राख्यो हि मूरिर्गुणवजनाऽय्यः ॥ ११९ ॥ एकोऽधिपडे जिनचन्द्रमूरि-जिंनाऽभयादिः किल देवमूरिः । दैगब्धिपट्टेऽभवदच्छकीर्ति-रपूर्वशक्तिबहुसिद्धविद्यः ॥ १२० ॥ ततोऽभवच्छीजिनवल्लभाऽऽख्यः, मूरिर्गुणाऽऽम्भोनिधिसंख्यपट्टे । युगाऽब्धिपट्टे जिनदत्तमरि-रिवब्धिप? जिनचन्द्रसरिः ॥१२१॥ इत्थं हि सौधर्मकुलक्रमोऽय, विद्योतते भुमितलेऽधुनाऽपि । गच्छेषु चाऽयं सततं व्यनक्ति, याथार्थ्यमेतत्सकला विदन्तु ।१२२।। ( वसन्ततिलका)-यावन्तमेव भविका
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अनघास्त्यजेयू , रागाऽऽदिपदकमरिन्दमनर्थहेतुम् । तावद्भिरेव बहुलाभकर विभाथ्य, संसारबन्धमखिलं क्रमशो विजयुः ॥ १२३ ।। (उपजातिः)-इत्यादिगारमुपदिश्य जनांश्च भव्यान् , सन्तप्ये सवहदयं प्रग एप परिः । आगाद्विहत्य नगर स हि देशवालं, तत्रत्यमर्वजनताकृतस्सवेन ॥ १२४ ॥ अन्तःप्रविश्य भवभीतिहरीमशेप-पापप्रणाशनकरीमददात्सुवाचा । पीयूपतुल्यमधुरां रुचिरा सभायां, सदेशनामनव ईब्यवरः स सूरिः ।। १२५ ।। तस्माद्विहत्याऽऽगतवान् समेड-तारोडपुर्यां । सह शिष्यवर्गः । तत्रातिरम्पा महती सुधौ- यालाऽस्ति मध्ये विचकास्ति चैत्यम् ॥ १२६ ।। दुग्भृत-संख्याऽऽर्हतमूर्तिरम्या-ऽऽलयैश्च संशोभिविशालदुर्गम् । श्रीपार्श्वनाथीयमतिप्रशस्य, तदालुलोकेऽसमया स भक्त्या ।। १२७ ।। विश्वाऽद्भुतैतद्रमणीयतीर्था-ऽवलोकनेनैप जनुनिजं हि । अस्त धन्यं त्रिदिनानि तत्र, स्थिरखा चतुर्थ दिपसे ब्याहात् ।। १२८ ।। स लापबाग्राममुपेत्य तस्थौ, ततव पोलू कपुरे पतिष्ठत् । विहृत्य तस्माद्गुरुराजवर्यः स चोकडीग्राममुपेत्य तस्थौ ।। १२९ ।। ततो विहत्याऽऽगतवान् स कोश-णाख्यं पुरं तत्र सुचैत्यमेकम् । उपाश्रयश्चास्ति जिनावलोक, कृत्वा च तस्मिन् स्थितवान् सुखेन ।। १३० ॥ स मौनपूर्वामिह सचकार, कादशी पर्वतीथि महेन । पीपाडकग्राममथाऽऽजगाम, पौरा भृशं सत्कृतवन्त एनम् ॥१३१।। बेण्डाऽऽदिकाऽऽतोचनिनादपूर्व, पुरप्रवेशं विदधत्ससङ्घः कृत्वा च चैत्यत्रयदर्शनं स, उपाश्रयं रम्पमुपाविवेश ॥ १३२ ।। सद्देशनां तत्र चिरं प्रदाय, सुधायमानां महता स्वरेण । संसारदुष्पारसमुद्रतार-पोतायमानां समतू तुषत्तान् ॥ १३३ ॥ स्थित्वा व्यहं तत्र सुखेन सरि-पले तृतीये व्यहरत्ततोऽसौ । कापेडनाम्ना जगति प्रसिद्धं, प्राचीनतीर्थ समुपाजगाम ॥ १३४ ॥ सद्धर्मशाला रचिताऽस्ति तत्र, वाऽन्तराले करपञ्चमात्रम् । उचेपबद्धसुपीठमस्ति, तन्मध्यभागे गृहचैत्य
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पञ्चमः सर्गः।
श्रीजिन-1 कृपाचन्द्र
सरिचरित्रम्
॥१०७॥
मेकम् ॥ १३५ ॥ चतुर्भुवाऽऽयं शिखराऽतिशोभ, बभ्रंलिहं भूरिविचित्रचित्रम् । द्विपञ्चजैनाऽऽलयसाम्यमास-मालोक्य तस्थौ दिवसद्वयं सः ॥ १३६ ॥ साध्व्योईयोस्तत्र ददौ स दीक्षा, गुर्वीमथाऽतो दिवसे तृतीये । विहृत्य पुर्यामयमोलवीति-नाम्न्यां समागत्य सुखेन तस्थौ ॥ १३७ ॥ ( वसन्ततिलका)-तस्माद्विहृत्य समियाय पुरं स चोप-डाऽऽख्य पुरं पुरजनैरतिसत्कृतः सन् । धर्मोपदेशपटलैरखिलान् प्रबोध्य, कृत्वा विहारमगमभिवलीपुरं सः ॥ १३८ ।। पालीनिवासिसुजना बहवोऽपि तत्र, श्रीमरिराजमभिवन्दितुमेयिवांसः । तां तामसीं सकलभव्यजनाः सुखेन, न्यूघुश्च तत्र गुरुपत्कजमाश्रयन्तः ।। १३९ ॥ जाते प्रभातसमये गुरुदेववर्यः, तैः श्रावकाऽऽदि सुजनैः सह संविहृत्य । पालीपुरीमभिययौ धुतकल्मपौधः, पौरास्ततो गुरुसमागमजातमोदाः ॥ १४० ।। ( उपजातिः) सदण्डभेर्यादिक-भानुवादि-त्रैः सन्नदद्भिर्युगपत्समुच्चैः । देध्मीय्य(य)मानैर्बहुभिश्च शखैः, सचित्रचीनांशुकसद्ध्वजैश्च ॥ १४१॥ सुश्राविकामङ्गलगीतनादै-र्जयाऽऽरवैर्दीर्घतरैश्च लोकैः । प्रमाणब गुरुराजमेनं, प्राचीविशन् सञ्जितसत्पुराऽन्तः ॥ १४२ ॥ (त्रिभिर्विशेषकम् ) परिभ्रमंस्तत्र पुरे स इत्थं, जिनांश्च पश्यन् प्रतिमन्दिरेषु । लोढीयवासे प्रभुशान्तिनाथ-चैत्यं ददातिमुदं बभार ॥ १४३ ।। चैत्यस्य वामेऽस्थित कृष्णलाल-लूनाबतीया नवधर्मशाला । उचीर्य तस्यां परमोपदेश, दवा विशश्राम स मूरिराजः ॥ १४४ ।। प्रभावनां श्रीफलशर्कराऽऽदि, लात्वा च सर्वे निजसझ जग्मुः । गुणान् गुरूणां निगदन्त उ-रात्मन्यसीमा मुदमाप्नुवन्तः ॥ १४५॥ सुश्रावकाऽऽदेरधिकाऽऽग्रहेण, शरीरकाश्योऽऽदिकहेतुना च । आचार्यवर्यः समतिष्ठतात्र, प्रायो हि पक्षं प्रतिवासरं सः ॥ १४६ ॥ सद्देशनाभिः सकलांच भव्यान् , सुधोपमाभिः प्रतियोधयन् सः । अथौशियामेलन आगतो हि, दृष्टः पुरा श्रावक एत्य कश्चित् ॥१४७॥ विनीतवेषः
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॥१०७॥
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| कृतवन्दनादि-लब्धप्रसङ्गस्तमपृच्छदेवम् । स्वामिन् ! मयाऽश्रावि यदोशियाऽऽख्य-तीर्थ सुजीर्ण पुनरुद्दधार ॥ १४८ ॥
आचष्ट सूरिर्भवदुक्तिरेषा, सत्यैव सोऽवक् करुणानिधेऽहम् । सविस्तरं वृचमिदं भवत्ता, संश्रोतुमिच्छामि चिरात्समुत्क: ॥ १४९ ॥ चक्शौ च मूरिः शृणु सावधानः, कथामिमां सम्यगई वदामि । श्रीरूपचन्द्रस्य यतीश्वरस्य, शिष्यो महान् नागपुराऽधिवासी ॥ १५०॥ श्रीमान् कृती मोहनलालनामा, गुरोमहेन्द्रस्य जिनादिकस्य । प्रौढप्रतापस्य गिरा विधाय, क्रियोति स (१) विहरंत्रिगुप्तः ॥१५१।। समाययौ योधपुरे महात्मा, वाणाऽग्नि-नन्देन्दुमिते च वर्षे । श्रीसंघबह्वाग्रहतश्चतुर्मा-सं तस्थिवांस्तत्र महोपदेष्टा ॥ १५२ ।। (युग्मम् ) तदा महीयांश्चिरकालिकेत-तीर्थ पवित्रं परिजीर्यमाणम् । विलोक्य | चित्ते बहुधा प्रखिद्यन् , समागतो योधपुरे सभायाम् ।। १५३ ।। ओजस्विनीं तद्विषये प्रभाव-शाली तथाऽदाद्वरदेशनां सः ।
आकर्ण्य यां सर्वजनास्तदैव, श्रीओशियातीर्थसमुद्दिधीर्षाम् ॥ १५४ ॥ बभ्रुः स्वचित्ते परमेकराजा-रामाऽभिधानो गडिया तदैव । न याबदेतदरतीर्थजीर्णोद्धारस्य कार्य हि समारभेत ॥१५५ ।। (इन्द्र वंशा)-तावन्न चोष्णीषमहं स्वमूर्धनि, भन्त्स्यामि नो वा पदयोरुपानहौ । सन्धारयिष्यामि कदापि सर्वथा, सह्मचर्यव्रतसंस्थितः सदा ॥१५६।। (चतुर्मिः कलापकम्)
(उपजातिः) इति प्रतिज्ञाय गुरुं जगाद, सर्वेषु सभ्येषु निशामयत्सु । प्रदेहि मे नाथ! तदीयप्रत्या-ख्यानं कृपालो। भगवनवश्यम् ॥१५७|| अथाऽङ्ग-रामाश्शशाङ्कवर्षे, गत्वा तदालोकत दुर्दशं सःक्षिपन्ति तत्राऽवकरं समस्ता, एकान्तकत्वात्सकला हदन्ते ॥१५८|| पामाऽऽकुला उष्ट्रगणाश्च तत्र, तिष्ठन्ति चाऽन्ये पशवः स्वतत्राः । तानुमात्राऽवकरैश्च गूथै-विहङ्गविभी रजसा च पूर्णम् ॥ १५९॥ अत्यन्तदुर्गन्धवहं तदानीं, विभीषणं चैत्यमपश्यदेषः । तस्योपरिष्टाचटकरसंख्या,
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श्रीजिन
कृपाचन्द्रसूरि
चरित्रम्
॥१०८॥
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1
सुग्रीवजातीयखगैरपीत्थम् ।। १६० ।। कृतं कुलायं शतशः सहस्रं, जीर्णं प्रथमं समुदीक्ष्य चैत्यम् । तदुद्धृतौ यत्नधरः प्रकामं, सकस्तदा कर्मकरानुवाच ।। १६१ ।। यूयं हि सर्व चितसङ्करादि- चैत्यस्थितं शीघ्रमपाकुरुध्वम् । ते तं समूचुर्न वयं किलैतपाककृत्यं प्रविदध्महे भोः ! ।। १६२ ।। अथाऽत्रवीत्कर्मकरं स्वकीयं, द्वौ स्वः किल त्वं परिमार्जयैतत् । क्षिपाम्यहं वा परिमार्ग्यदं हि क्षिप त्वमेवेति तदीयवाक्यम् ॥ १६३ ॥ ( इन्द्रवंशा ) - श्रुत्वा स दासः परिगृह्य मार्जनीं, लग्नः प्रमाटुं क्रमशस्तया सकः । प्रक्षेप्तुमारब्ध वणिग्वरः स्वयं दृष्ट्वा तदाऽन्येऽपि च कर्तुमुद्यताः ।। १६४ ।। (युग्मम् ) अन्तर्बहिश्चाऽपि तदैव तस्य व्यशोधयत्पावन मन्दिरस्य । तदूर्ध्वभागे च ददर्श सोऽथ, नानाविहङ्गाऽण्डशिशुस्थितिं च ॥ १६५ ॥ दृष्ट्वा दयालुर्मनसि व्यशोचीत् सहस्रशोऽहं कथमत्र जीवान् । पञ्चेन्द्रियाऽऽदीनभिहत्य जानन् ऊर्ध्वप्रदेशं परिशोधयानि ।। १६६ ।। (युग्मम् ) हिंसामृते शोधनमप्यमुष्य, दुरापमेवास्ति न संशयोऽत्र । कृतिश्च तस्या अतिदुष्करैव विचिन्तयनित्थमसौ हि कुडये ॥ १६७ ॥ संस्थापितां भैरवमूर्तिमृग्रां ददर्श रम्यामथ स प्रदोषे । ताम्बूल - सिन्दूरदशाङ्गधूप-दीपा - sक्षतैलेयसुमालिकाभिः ।। १६८ ।। तैलेन नैवेद्यवरेण पूजां विधाय नीराजनमेतकस्य । कृत्वाऽतिभक्त्या तमयाचतैवं देव ! प्रभो ! भूरिपरिश्रमेण ॥। १६९ ।। मया किलैतन्निजशक्त्यशोधि, नाऽहमि शेषं परिशोद्धुमस्य । यद्यस्य जीर्णोद्धृतिमिच्छसि त्वं तर्खाशु तत्र स्थित सर्वजीवान् ॥ १७० ॥ निष्काशयानन्तरमाशु चाऽहं समुद्धतिं कारयितास्मि देव! | नो चेदहं जीववधाssदिपापाद् विमेमि तस्मादिदमेव याचे ॥ १७१ ॥ ( पञ्चभिः कुलकम् ) से इत्थमभ्यर्च्य तदप्रतो हि समस्वपीचोषसि जागरित्वा । दृष्ट्वा शकुन्तत्रजनीडमुक्त-मजईपीचेतसि तत्प्रभावम् ।। १७२ ।। अमन्यताऽसौ ध्रुवमेव शीघ्रं, जीर्णो
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पञ्चमः
सर्गः ।
॥१०८॥
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द्धृतिश्राऽस्य विभाविनीति । निश्चित्य हृष्टः परितो गवेषयं - स्तद्वारमेकत्र ददर्श सन्धिम् ॥ १७३ ॥ ( युग्मम् ) ऊर्ध्वादधस्तात्परिश्यमानं विलोक्य तच्छिल्पिवरं तदैव आकार्य सोऽदीदृशदिभ्यवर्यः, सम्प्रेक्षमाणः परितच सोऽपि ॥ १७४ ॥ तत्कारणं नैव विवेद किञ्चित्, यत्कस्य हेतोर्दृपदत्र दत्ता । स शब्दयित्वा दृषद् प्रचक्रे, मध्येशिलं वर्तुलदीर्घरन्धम् || १७५ || छिद्रेण तेनैष ददर्श वेदी- स्थितं महावीर जिनेन्द्रविम्बम् । मनोहरं तर्हि भृशं जहर्ष, रक्तच्छवि श्रेष्ठिवरस्तदैव ।। १७६ ।। सर्वत्र सोध्दारकुमाक्तं, पत्रं समागाअनताऽप्यसंख्या । सर्वैर्यथाशक्ति तदीयजीर्णोद्वारार्थमर्थं व्यददुः (मर्थो व्यददे ) सहर्षम् ।। १७७ ॥ कार्य समाप्त मन्दिरस्य, सुधीर्मुनीमः सकलैर्न्ययोजि । तत्रत्यकार्यं सकलं विधातुं, पूजाकरस्तत्र नियोजितस्तैः ॥ १७८ ॥ सौवर्णवगैः प्रभुदेहशोभां वितेनिरे भक्तिभरेण सर्वे । विम्बान्तरं चापि नवीनमेक मानाय्य रम्यं महता महेन ।। १७९ ।। प्रतिष्ठिपंस्तत्र महाजनास्ते, श्रेयस्करे सौम्पदिने बलिष्ठे । महोपदेष्ट्रा गुरुणा च तेन, समुद्धृते चैत्यवरे हि तस्मिन् ॥ १८० ॥ ततः प्रभृत्येव समस्तलोकेऽतिप्राच्यतीर्थं प्रथितं बभूव । तत्साम्प्रतं देवविमानकल्पं, शोशुभ्यते फाल्गुनशुक्लपक्षे ॥ १८१ ॥ गौरीतिथेर्नागतिथिं हि यावत् प्रत्यद्धमागच्छति भूरिलोकः । इत्योशियातीर्थसमुद्भुतेर्हि, संक्षिप्तवार्तामभिधाय सूरिः ।। १८२ ॥ पाली पुरात्पौपसिते द्वितीया तिथौ विहृत्याऽऽगतवांश्थ तस्मात् । क्रोशैकमात्र स्थितभाखरीति-गिरौ स्थितं चैत्यमुदीक्षितुं सः ॥ १८३ ॥ तत्र स्थिताऽत्यन्तसुरम्यधर्म - शास्ता स्थितोऽसौ गमयाम्बभूव । एकां तमिस्रां तत आजगाम, गुन्दोचनानीं नगरीं विहृत्य ॥ १८४॥ ततो विहृत्य प्रतिपद्य ढोला - राख्यं पुरं तत्र जनैश्च भव्यैः । सुसत्कृतो धर्म्यकथामृतेन, सर्वानतर्पदुपसि व्यहार्षीत् ॥ १८५ ॥ ( शार्दूलविक्रीडितम् ) – साण्डेरावमुपागतो गुरुवरस्तत्र त्यसंधैर्मुदा, वादित्राऽऽदिकसद्रणे (वै) र्निजपुरं प्रादेशि
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श्रीजिनछपाचन्द्र
सरि
पश्चमः सा
चरित्रम्
॥१०९||
होंडुरैः । सूरीन्द्रोऽपि ततः सभामधिगतः सद्देशनां दत्तवान् , संसारार्णवतारिणी शिवसुखानन्दप्रदात्रीमलम् ॥ १८६॥
(तोटकम् )-शिवगञ्जपुरी समियाय ततो, नगरीजनतापरमोत्सवतः। प्रविवेश पुरं तत एप ददा-बुपदेशमलं कलुषा:पहरम् ॥ १८७ ।। (उपजातिः)-स्थित्वा व्यहं मूरिवरः सुखेन, कृत्वा विहारं तत आजगाम । पोसालियानामपुरं स पोरे, सुसत्कृतोऽदात्परमोपदेशम् ॥ १८८ ॥ (वंशस्थ)-विहृत्य तस्मादितवान् स पालडी, समस्तसंघः कृतवान् सुसत्कृतिम् । प्रदत्तवानेप विशेषदेशनां, प्रबुद्धवांस्तवमशेषमाहेतम् ॥ १८९ ॥ ततः शिरोहीनगरं प्रयाता, प्रवेशयामास पुराजनस्तम् । बेण्डाऽऽदिकाऽऽतोद्यसुहृद्यघोष-दत्तोपदेशः स्थितवान् दिने द्वे ।। १९० ।। सिन्दूरसंज्ञं नगरं ततोऽगात्, पुरीजनारब्धमहामहेन प्रविश्य लोकान् सुचिरं स सूरि-रुपादिशच्चाऽऽर्हतधर्मसारम् ॥ १९१ ॥ समाययौ मेरुपुरं ततोऽसौ, गुर्वागमोद्भूतविशेषहर्षः । संघः सुचारूत्सवमाशु कृत्वा, प्रावीविशत् नगरं महान्तम् ॥ १९२ ॥ सूरीश्वरस्तत्र ददौ सुवाचा, सुधामयीं धार्मिकदेशनां सः । अपार-संसार-सुदुर्ग-कान्ता-रलग्न-दावोपमतामुपेताम् (दावानलवारिकल्पाम् ) ॥ १९३ ।। इतः समागात् सणवाडपुर्या, प्रबोध्य लोकांस्तत आजगन्वान् । स पालडीमत्र महोपदेशैः, प्रावृबुधत्सर्वजनांश्च तत्वम् ।। १९४ ॥ ततो विहारं प्रविधाय सूरि-हणादरायां पुरि चाऽऽयताऽसौ । ततो विहृत्यार्बुदभूधरोप-रिष्टादितो देवलयुक्तबाटम् ।। १९५ ॥
(मालिनी)-अचलगढसुयात्रामप्यसौ सरिराजो, यकृत सकलशिष्यैः सार्धमत्यन्तभन्या । पुनरपि तत आगाद्देवलार्दि च वाट, त्रिदिवसमिह तस्थौ पूज्यपादारविन्दः ॥ १९६ ॥ (उपजातिः) समागमत्यर्यपुरान्महेभ्यः, सिद्धाऽचलाऽन्ते- प्सितसुप्रबन्धम् । कृत्वा न्यवर्तिष्ट ततोऽसको हि, हणादरायां पुनराजगाम ।। १९७ ॥ ततो दमाणीनगरीमगच्छत् , ततश्च
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॥१०९॥
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लित्वा समगाल्लुणोदम् । अथाऽऽगमद्रेवदडं पुरं स प्रावेशि पौरैर्विपुलोत्सवेन ॥ १९८ ॥ क्रोशान्तराले वरिवर्ति तस्माजीरावलापार्श्वजिनेशतीर्थ : (र्थम्) । तत्राऽपि गत्वा प्रविधाय यात्रां, निवृत्य चात्रागतवान् पुनः सः । । १९९ ।। ब्रह्माणपूर्व पुरमेष गत्वा, पुरीमपूर्वी म(न) गरी च बाढाम् । मण्डारनाम्नीं नगरीं समेत्य, दिनद्वयं सोऽत्र सुखेन तस्थौ ॥ २०० ॥ इतञ्चलित्वा गतवान् स पाँथा-बाडाऽभिधानं नगरं च तत्र । सच्चक्रुरेनं सकलाच पौरा, ददौ च सोऽप्यत्र महोपदेशम् ॥ २०१ ॥ प्रस्थाय चेतः समगात्स कूंचा वाडां ततश्चाऽपि कृतप्रयाणः । समध्यवात्सीद्भरतं पुरं स डीसानिवेशं तत आजगन्धान् ॥। २०२ ।। कृतप्रयाणस्तत इद्धतेजा, बडावलं नाम पुरं समागात् । न्युष्यैकरात्रं विहरंस्ततोऽय माथिष्ट सूरिभिलडीपुरं हि ।। २०३ ।। सद्धर्मशाला बहिरस्ति पुर्या, मध्ये च तस्या बृहदस्ति चैत्यम् । वर्वर्त्ति तस्मिन् प्रभुपार्श्वनाथ चैत्यान्तरं चापि विभाति तत्र ।। २०४ || उपाश्रयाऽदीर्घ (१) कियत्सुधर्म - शाला विराजन्ति महापुरेऽत्र । अत्रत्ययात्रां विधिवद्विधाय, पृथ्वीपुरं चाssगतवान्मुनीन्द्रः ॥ २०५ ॥ ततः प्रयातः प्रतिपेदिवान् स, मण्डारनाम्नीं नगरीमितोऽपि । उपेयिवान् संघपुरं पुरं स ततोऽपि चारूपपुरं प्रपेदे ॥ २०६ ॥ प्राचीनमूर्तिः प्रभुपार्श्वनाथ - स्याऽस्त्यत्र रम्या प्रकटप्रभावा । तदीयपृष्टासन लेखतो हि, सा पञ्चलक्षाधिकवत्सरीया ॥ २०७ ॥ प्रतीयते ग्रामसमीप एव वेवेत्ति रम्या गुरुधर्मशाला । तन्मध्यदेशे प्रभुपार्श्वनाथ-चैत्यं सुरम्यं विचकास्ति दीर्घम् ॥ २०८ ॥ अध्युष्य घस्रद्वयमेपकोऽत्र, कृत्वा च तत्तीर्थविशेषयात्राम् । विहृत्य तस्मादण हिछपूर्व पुरं समागात्सह शिष्यवर्गः ॥ २०९ ॥ पौरा अपूर्वोत्स्त ( स ) चतः किलैत--स्पुरप्रवेशं रुचिरं प्रचक्रुः । अष्टापदीयोत्तमचैत्यशोभि-- तद्धर्मशालामयमध्यतिष्ठत् ॥ २१० ।। दिनानि चत्वारि स तस्थिवान् हि यात्रां प्रकुर्वन् सुजनांच तत्र संदेश
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श्रीजिनकृपाचन्द्रसरि
पञ्चमः सर्गः।
चरित्रम्
॥११०||
नाभिः सुधया समाभिराचार्यवर्यः प्रतिबोधयन् हि ।। २११ ॥ विहृत्य तस्मात्कुणघेरकादि-मार्गाऽऽगताऽनेकपुरं विलंध्य । समाययौ जम्मणयुकपुरं स, हारेजमागच्छदितश्चलित्वा ।। २१२ ।। बिहृत्य तस्मादभिगम्य मूज--पुरं ततोऽप्येष कृतप्रयाणः । शङ्केश्वरं तीर्थमयं जगन्वान् , मध्येपुरं दुर्गमदुर्गरुद्धा ॥ २१३ ।। वरीयतीत्येकविशालधर्म-शाला तदन्तर्महदस्ति चैत्यम् । शलेश्वरः श्रीप्रभुपार्श्वनाथो, वैमानिकाऽऽभं तदलङ्करोति ॥ २१४ ॥ (युग्मम् ) अन्याऽपि तत्रैव विभाति गुर्वी, सद्धर्मशाला नवनिर्मिता च । तिस्रः किलताः परिपन्ति तत्र, दृश्या: प्रशस्या: मुलभाः समेषाम् ।। २१५ ॥ द्वेडी(अही) विशश्राम स तत्र सूरिः, कुर्वाण एतदरतीर्थयात्राम् । विहत्य पश्वासरमेत्य तस्थौ, ततश्चलित्वा समगाद्दशाडाम् ।। २१६ ॥ स पाटडीग्राममियाय तत्र, प्रबोध्य लोकान् परमोपदेशैः । विहत्य तस्मादुपरि प्रयुक्त--पालाऽभिधानं नगरं प्रपेदे ।। २१७ ॥
(वसन्ततिलका)-तत्राऽस्ति रम्यवहुविस्तृतधर्मशाला, वैमानिकाऽऽभ-जिनमन्दिरमस्त्यपूर्वम् । श्रीनामिनन्दनजिनेश्वरबिम्बमत्र, सञ्चाकचीति सकलेप्सिततूर्णदोहम् ।। २१८ ।। आलोक्य तन्नयनतर्पणकारि बिम्ब, लावण्यपुजमिव शश्वदसीमशोभम् । स्वान्ते बगद्यमतिमोदभरं बभार, तस्मादजाणनगरं प्रविहत्य यातः ।। २१९ ॥ (उपगीतिः)-ततचलन् मालवर्ण समेत्य, स तस्थिवान् सत्पुरि खेरवायाम् । गच्छनितो मार्गगताऽवालि-यामेत्य तस्थौ पुरि सणायाम् ।। २२० ।। आणन्दरा-राजपुरादिनैक, हित्वा पुरं चैवढवाननाम । पुरं स पौरैरिह सत्कृतोऽभूत् , धर्मोपदेशं कृतवांध सूरिः ॥ २२१ ॥ सखारवामेत्य बिहत्य तस्मा-दस्थाद्लद्दाणपुरे सुखेन । प्रस्थाय तस्मात् स्थितवान् स चूडा--पुर जनानामधिका ।। २२२ ।। आगादितो राणपुरं बिहत्य, वागत्य तस्मानगरे खसेऽस्थात् । कृत्वा विहारं क्रमशस्ततोऽपि, तस्थौ स लाठीद
॥११॥
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डपत्तने हि ।। २२३ ।। (मालिनी)-रतनपुरपुरीमागत्य संस्थाय मूरिः, पुरवरमुमरालामागतस्तत्र तस्थौ । तदनु न पिपरालीवावडीत्यादिनाना--लघु--गुरु--पुर--शोभा वीक्षमाणो विजहे ॥ २२४ ।। (उपजातिः) सणोसरानाम पुरं समेत्य, व्यत्यैत्स एकां रजनी सुखेन । ततो नवग्राममुपाययौ स, आकोलिकेत्यादिपथिस्थितानि ॥ २२५ ॥ विसृज्य नैकानि सुपत्तनानि, सूरीश्वरोऽसौ क्रमशः प्रभावी । समध्यगच्छजमणादिवाव-पुरं वरं सर्वगुणप्रधानम् ॥ २२६ ।।।
(वसन्ततिलका)-श्रीपादलिप्तपुरवासिजनाः कियन्तः, श्रीमद्गुरोरभिमुखं प्रविलोकनार्थम् । तवाऽऽययुर्विदधिरे जिन| पूजनाऽऽदि, श्रीसंघभक्तिमुचितां परमोत्सवैस्ते ॥ २२७ ।। ( उपजातिः)-समध्यवान्सू रजनी च सर्वे, तत्रैव तां भव्यजनाः समेताः । प्राभातिकं कृत्यमशेपमेष, प्रतिक्रमाऽऽदिप्रतिलेखनान्तम् ।।२२८। विधाय तस्मात्परिसंविहत्य, पादोनसप्ताऽटपटीनिनादे । श्रीपादलिप्ताऽन्तिकवाटिकाया-मागत्य तस्थौ मुनिराजवर्यः ।।२२९॥ (युग्मम् )।। वैदेशिकाः पौरजनाथ सर्वे, सहैव वेण्डाऽऽदिकभानुवाद्यैः । नानद्यमानैर्युगपद्मजाद्यैः, शङ्खाऽऽवस्तारजयप्रणादैः ॥ २३० ।। वितत्य चारूत्सवमुत्कटं हि, ययुश्च तत्राभिमुखं गुरूणाम् । अथैप सर्वैः सह सरिराजः, प्रस्थाय तस्मात्पुरि राजमार्गः ॥२३॥ चतुर्विधैः संघजनैः सुजुष्टः, प्रति स्थल तोरणबन्धनाऽऽदे। शोभामपूर्वी पुर ईक्षमाणो, गृह्णश्च पौराऽर्चनवन्दनादि ।। २३२ ।। इत्थं महाऽऽडम्बरतः स सूरिः, परिभ्रमन् मन्दिरमीक्षमाणः । कल्याणसौधान्तिकमाजगाम, समागतं तत्समय विवेद ॥ २३३ ।। वाज्यद्रिनन्दक्षितिहायनीय-तपस्य-शुक्लप्रतिपतिथौ हि । पुर्या बहिदक्षिणदिग्विभागे, कल्याणयुक्तं भवनं विशालम् ।। २३४ ।। आचार्यों जिनकीर्तिमरिः, शुभे मुहर्ने नववादने हि । पादारविन्देन शुभेन तद्धि, प्रविश्य पूतं कृतवान् महात्मा ॥ २३५ ॥
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श्रीजिनकृपाचन्द्र
सूरिचरित्रम्
* पञ्चमः
सर्गः।
॥११॥
(इन्द्रवंशा)-निर्मापिता सूर्यपुराऽधिवासिना, जह्वेरिकवेष्ठिवरस्य सूनुना । कल्याणचन्द्रस्य महासमृद्धिना, श्रीप्रेमचन्द्रेण सुपुण्यशालिना ॥२३६।। (आर्या)-खरतरगच्छीयजैन--धर्मशाला-गुवी तामधिगतः। सरिर्दया मजल--मयदेशनां जनानतू तुषत् ॥२३७|| (युग्मम्) (उपजातिः)-प्रभावनां सबजना गृहीत्वा, स्बस्वाऽऽलय जग्मुरतीव हृष्टाः।जिनाचेनं गौरवपू तस्मिन्नतिविस्तरं हि ॥२३८।। जिनेश्वराङ्गीरचनाऽतिचित्रा, सौवर्णसद्राजतवर्गकाद्यैः । रात्रौ कृतं जागरणं च भव्यः, सद्धर्मकार्य विविधं वितेनुः ॥ २३९ ।। भक्ति गुरूणां महतीं प्रचक्रुः, सम्प्रैदिधञ्छासनमप्यशेषाः । शैलाऽट-नन्द-क्षितिवत्सरीयबाँनिवासे सकलब्ययश्च ।। २४० ।। तद्धर्मशालापतिरेव चक्रे, महेभ्यमुख्यः सुरताऽधिवासी । श्रीप्रेमचन्द्रः शुभकस्यरक्तः, कल्याणचन्द्राख्यमहेभ्यपुत्रः ।। २४१॥ (युग्मम् ) पर्युषणाराधनमर्हदों, प्रभावनां भूरितपांसि तत्र । भावप्रवृया व्यदधुः समस्ता-स्तत्रोपधानं विधिवद्बभूव ॥ २४२ ॥ तस्याऽवसाने परिधापनं च, स्रजामभूदत्र महामहेन । और्ज तथा चैत्रिकपर्व सम्यक्, पवादशक्रोशपरिक्रमं च ।। २४३॥ चैत्यप्रपाटीभ्रमणं महेन, पुण्योपचार्य बहुलव्ययेन । कृत्वा परैश्चाऽपि हि कारयित्वा, सानन्दमाचार्यपदौ प्रणम्य ।। २४४ ॥ सुश्राविका सा रतनाऽभिधाना, लीलावती सद्गुणताऽभिरामा । पभावती पद्मदलायताक्षी, सौभाग्यलावण्यमयी सुशीला ||२४५।। सुश्रावकीयाऽखिलधर्मपाली, श्रीपानचन्द्रः सुकृतप्रसक्तः । फतेहचन्द्राऽऽदिकसर्वलोका, निवृत्य जग्मुः सुरतं ततस्ते ॥ २४६ ।। (त्रिभिविशेषकम् ) ग्रहाऽद्रि-रन्ध्र-क्षितिवत्सरीय-वर्षतुवासं प्रविधातुमिच्छु: । आषाढशुक्के गिरिशस्य तिथ्यां, श्रीमद्गुरोरन्तिकमाजगाम ॥ २४७ ॥ श्रीकेसरीखनुरतुच्छबुद्धि, श्रीपानचन्द्रः सह धर्मपत्न्या । अत्र स्थितोऽसौ चतुरश्च मासा-नाहारपानाऽदिकसर्वलाभम् ॥ २४८ ॥ ददौ मुनिभ्यः
॥११॥
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प्रतिघूत्रमंत्र, प्रभावना - पूजन - सत्तपांसि । स्वधर्मिवात्सल्यमनेकमत्र, चक्रे यथावत्सुकृताऽभिलाषी ।। २४९ ।। (युग्मम् ) पर्युपणापर्वणि चागते तु श्रीश्रेष्ठिनी सूर्यपुरादिहेत्य । सार्धं कुटुम्बे रतनाऽभिधाना, स्वधर्मशालामधितस्थुषी सा ॥ २५० ॥ क्रमाssगतं पर्व सुखेन सम्यगाराध्य संश्रुत्य गुरोरमुष्य । सदेशनां हृष्टमना भवन्ती, सा कार्तिकीं यावदिहैव तस्थौ ॥ २५२ ॥ ( युग्मम् ) ।। सुश्राविकारता रतनाऽभिधाना, लीलावती कार्तिक पूर्णिमायाम् । पद्मावती पद्ममुखी च पुष्पावती च सुश्रावकपानचन्द्रः ।। २५२ ।। श्रीकेसरीचन्द्र- फतेहचन्द्र- श्रीप्रेमचन्द्रा मुदिताथ सर्वे सिद्धाऽद्रियात्रां विधिवद्विधाय, नत्वा गुरून् सूर्यपुरं त आगुः ॥ २५३ ॥ ( युग्मम् ) शैलाऽष्ट-नन्देन्दुमितप्रवर्षे, जहेरिवंश्यः सुरते निवासी । भग्वाख्यपुत्रः स हि पानचन्दस्वस्थौ चतुर्मासमिहेभ्यमुख्यः ॥ २५४ ॥ पुत्री तदीया विधवा सुशीला, सरस्वतीनाम सका दधाना सहाऽऽगताऽऽसीदनिशं स्वधर्म-कुत्येषु सक्ता गुरुदेवभक्ता ।। २५५ ।। सत्पाकशालां न्ययुनकू च तत्र, नानाविधस्वादिमखाद्यपेयम् । सम्पाच्य पक्त्रा प्रतिवासरं स ददान आसीच्छ्रमणादिकेभ्यः ।। २५६ ।। प्रारब्धमेतत्किल पात्रदानं कदापि विच्छेदमवाप नैव । यावत्स्थतिस्तस्य बभूव ताव - चचाल नित्यं स्वधनव्ययेन ॥ २५७ ॥ वियन्यथाशक्ति धनं चतुर्मा-सीयानि पर्वाणि च वात्सराणि । यथाविधानं सकलानि चक्रे, प्रमादमुक्तः स हि पानचन्द्रः ।। २५८ ।। तदात्मजोऽप्यत्र फकीरचन्द्रः, सरस्वती सा दुहिताऽप्यमुष्य | लीलावती पुत्रवधूरपीमे, भक्त्योपधानं तप आरराधुः ॥ २५९ ॥ मालासमारोपणजातचारु-महोत्सवे बोलिकया महेभ्यः । मुद्रासहस्रं प्रवितीर्य तत्र, फकीरचन्द्रः प्रथमं सुमालाम् ॥ २६० ॥ सम्पर्यधादस्य वधूस्ततथ, लीलावती रम्यतरां सुमालाम् । सरस्वती सा तदनन्तरं हि मालां विशालां बिभराञ्चकार ।। २६१ || निशीथिनीजागरणं
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बीजिनकृपाचन्द्रसूरि
चरित्रम्
॥११२ ॥
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सुबोली, प्रभावना - पूजन-संघभक्तीः । सर्वं तदेतद्बहुशंसनीय, महोत्सवं चारुतरं व्यधत्त ।। २६२ ।। सरस्वती शीलवती सुबुद्धिः, प्रत्यब्दमत्रस्थितमूलचैत्ये । चैत्रीयशुक्लप्रतिपत्तिथौ हि जिनाचनार्थं द्रविणं न्यर्युक्त ।। २६३ ॥ यावत्क्षितौ चन्द्रदिवाकरौ तौ स्यातां हि तावत्प्रतिवर्षपूजा । शत्रुञ्जयाद्रावचला तदीया, युगादिनाथस्य जिनेश्वरस्य || २६४ || चैत्रीयपर्वाण्यथ संविधाय कृत्वौलिकापर्वविशेषमेते । वैशाखशुक्लाक्षयसत्तृतीया - माराध्य नत्वा गुरुदेवपादौ ।। २६५ ॥ विचिन्तयन्तो हृदि तीर्थराजं, गुरोः पदाब्जं बहुशः स्मरन्तः । मोनुद्यमानाः सकला निवृत्य, जग्मुः स्वकीयं नगरं प्रसन्नाः ।। २६६ ।। अमुष्य वंश्यः किल भाइदासः, शैल-द्वि-वस्कमिताऽब्द के च । जिनादिलाभाऽभिधवरियाचा, मुद्रासह रस-राम-संख्दैः ॥ २६७ ॥ ( वसन्ततिलका ) - भूमित्रयाऽऽयमतिसुन्दरमन्दिरं हि निर्माप्य तत्र नवविम्ब मतिष्ठिपत्सः । श्रीमद्विभोर्दशमशीतलनाथकस्य, संकारिताञ्जनशलाकमुदारबुद्धिः ।। २६८ ॥ ( उपजातिः ) - वेदिप्रतिष्ठामपि कारयित्वा, चैत्याऽन्तिके चैकमुपाश्रयं च । ततश्च तं श्रीजिनलाभसूरेः समार्पयत्सादरमिभ्यवर्यः ॥ २६९ ॥
+
( वसन्ततिलका ) -- आरभ्य तद्दिवसमद्यदिनं हि यावत् सङ्कथ्यते च स हि शीतल [सद्वाटिकां] वाटिकेति । पुष्पालवालरमणीयतमा कृता सा, श्रीमजिनेशपरिपूजनहेतवे हि || २७० || पट्टावली (लीं) निगदितामथ दर्शयामि, यत्पलि (लीं) कानगर - सत्यपुरादिपूर्षु । पर्यट्य राधनपुरं समुपेत्य सूरिः, शतेश्वरप्रभुवरं जिनपार्श्वनाथम् ॥ २७१ ॥ ( उपजातिः ) — आलोक्य सच्छ्रेष्ठिगुलाबचन्द - श्री भाइदासादिजनाऽऽग्रहेण । समागमत्सूर्यपुरं विहृत्य, तुरङ्ग-पक्षाऽद्रिसुधांशुवर्षे ।। २७२ ॥ ( युग्मम् )
( वसन्ततिलका ) - आद्यन्ययप्रभव सर्वमहेभ्यमुख्य- श्रीनेमिदासशुभनन्दन भाइदासैः । सङ्कारिते त्रिधरसुन्दरमन्दिरे हि,
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पञ्चमः सर्गः ।
॥ ११२॥
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Sa
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राधे सिते हरितिथौ पशिनन्दनाऽहे ॥ २७३ ।। (आर्या )-शीतलनाथ-शेषफणि-पार्श्वनाथ-गौडीपार्श्वनाथाऽऽदि । एकाऽशीत्यधिकशतं, बिम्बम्प्रत्यतिष्ठिपत्रिविधम् ।। २७४ || ( उपजातिः )-बस्वक्षिशैलेन्दुमिते च वर्षे, वैशाखमासे धवले च पक्षे। गोविन्दतियां बुधवासरे हि, श्रीजेशलेयप्रमुखाऽहताश्च ।। २७५ ॥ बिम्बव्यशीति समतिष्ठिपत्स, तत्रैव चैत्ये कमनीयशोभे । आचार्यों जिनलाभरिः, प्रज्ञाऽधिकः सर्वजनप्रतिष्ठः ॥ २७६ ।। (युग्मम् ) ।। इत्थं जिनेशाऽऽलयबिम्बनिर्मा-पणप्रतिष्ठाऽजनयुकछलाकाम् । श्रीसंघभक्ति प्रविधाय तत्र, प्रांगुक्तसंख्यानि वनि स व्यत् ॥ २७७ ।।
(भुजंगप्रयातम् )-ततो राजपूर्व नगरं स परि-स्तद्भावपूर्व नगर समेश्य । घोघादिके बन्दर ऐक्षताऽसौ, श्रीपार्श्वनाथ नवखण्डपूर्वम् ।। २७८ ।। (उपजातिः)-विहत्य तस्मादथ सोभिपेदे, सिद्धाचलं शिष्यगणः सुजुष्टः । व्योम-त्रि-वस्वेकमिते 'सुवर्षे, तपोसिते नागतिथी सुरेज्ये ॥ २७९ ।। (स्रग्धरा)-शिष्यैः सद्धिः समेतः शर-हयमुनिभिः सरिसन्दाऽग्रगामी, यात्रा सिद्धाचलीयामकृत हदि महामोदसम्भारमार | नत्वा स्तुत्वा चिरं तम्प्रथमजिनपति सादरं भूरिभक्त्या, वागत्योपत्यकायां धनपतिककुभि प्रायते चत्वरे हि ॥ २८० ॥ (वसन्ततिलका)-भ्राजिष्णुदेवकुलिकाऽश्चितवेदिकायां, भूपत्यकब्बरविवोधकसद्गुरोध । आचार्यवर्यजिनपूर्वकचन्द्रखरे, पादारविन्दयुगले विधिना महेन ।। २८१ ।। (उपजातिः)-संस्थाप्य स श्रीजिनलाभसरि-बिरं जगत्यां प्रतिबोध्य भयान् । चिराय सम्पाल्य सुसंयम च, स्वर्धाम सम्पाप समाधिनाऽन्ते ॥२८२॥ (पुग्मम् ) प्रागुक्तवंशीयपरम्परायां, जातो महेभ्यः स हि पानचन्द्रः । भग्वाख्यसच्छेष्ठिपरस्य पुत्रः, पूर्णाऽऽग्रहाच्छीजिनकीर्तिमरिम् ।। २८३ ।। प्रज्ञावतामादिममहणीय, स्वीयाज्यदीयाऽऽगमवेदिवर्यम् । अज्ञानतामिस्रदिनेशकल्पं, युग्मं चतुर्मास
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श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरि
चरित्रम्
॥११३॥
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मतिष्ठत्सः ॥ २८४ ॥ ( मालिनी ) - जगति विदितकीर्तिस्तस्य शुद्धोपदेशाद्, व्ययमकृत सुधर्मोद्यापने शुद्धभावः । नवपदतपसो हि स्फारपुण्यप्रदस्य, कृतदुरितवनालीलग्नदावानलस्य ।। २८५ ॥ तदनु सुकृतशाली ज्ञानयुपश्चमीत्य भिधतपस उदारप्राप्तभावप्रकर्षः । दृढतररमणीयज्ञानकोशं विधाय, यकृत विविधविज्ञानोपचार्य च तस्मिन् ॥ २८६ ॥
( उपजातिः )—प्राकारि तच्छीतलनाथजीर्ण- त्रिभूमचैत्यस्य समुद्धृतिश्च । उपाश्रयं प्राक्तननुदधार, चैत्यादिनानाविधधर्मकृत्ये ||२८७|| वैस्वष्ट-रेन्धाऽष्ट-विर्यन्वाऽङ्क-भूहायनेषु क्रमशो बभ्रुवं । महोपधानं प्रतिवर्षमेषु, संख्यातदाराधकसञ्जनानाम् ॥२८८॥ बाणोऽक्षि-भू-पश्च-धरा-शंशाङ्क-युग्माऽक्षि-चैन्द्रप्रमिता क्रमेण । खाऽङ्कग्रहेन्दु प्रमिताऽब्दकीय-वर्षर्त्तसंवर्णनक प्रसङ्गः ॥ २८९ ॥ यातोऽस्ति तस्मादहमेतदत्र, क्रमाद्यथाबुद्धि विवर्णयामि । यथा हि बिन्द्वङ्कनवेन्दुवर्षे, श्रीसंघवीदानमलाऽभिधानः ||२९०॥ ( गीतिः ) – जैसलमेरनिवस्ता, सदोशवंशीय बृहच्छाखीयः । सार्धं कुटुम्बवगैः, शत्रुञ्जयमहातीर्थमायातः ॥ २९९ ॥ (पञ्चभिः कुलकम्) (उपजातिः) - स तीर्थराजं सुगुरूंश्च शश्वत् विवन्दिपुचाऽत्र सुखेन तस्थौ । गिरीशतिध्यां शुचिशुक्लपक्षे, वर्षवासप्रविधित्सया हि ।। २९२ ।। स पाकशालां महतीं नियुज्य, सनातनीं दानमिह प्रदातुम् । एकाशिनामाबिलकारिणां च सत्पौषधाऽऽदिव्रतिनां प्रलयः ||२९३|| सामायिकाऽऽराधनतत्पराणां, परिक्रमाऽनुष्ठितिकारकाणाम् । देशावकाशव्रतकृञ्जनानां व्याख्यान नित्यश्रुतिकारिणां च ॥ २९४ ॥ ( मालिनी ) - नवनवतिसुयात्राकारिभव्यात्मकानां, रिपुजिति नदिकायां स्नायिनां देहिनां च । तदुदकभृतकुम्भैः पञ्चकस्नापकानां दददिह परिजग्धि सादरं प्रत्यहं सः ॥ २९५ ॥ ( युग्मम् ) ( उपजाति: ) --संस्थाप्य सोऽस्मिन् महतीं च पाक-शालां तदायातमुनिवजेभ्यः । नानाविधप्रासुकखाद्यपेयं, दातुं
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पश्चमः
सर्गः ।
॥११३॥
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Acharys
Kalasagaran Gyanmada
CAKRACKERCHAR
प्रलग्नः प्रतिवासरं हि ॥ २९६ ॥ प्रायः सदैकाशनमेव कुर्व-नायचिलं पौषधसद्वती सन् । सामायिक नित्यप्रतिक्रमं च, देशावकाशिवतमिभ्यवर्यः ॥ २९७ ।। सद्देशनायाः अवर्ण सदैव श्रीतीर्थनाथीयनवादयात्राम् । स्नात्वा च शत्रुञ्जयसत्चटिन्यां, तदम्बुना पञ्चजिनाभिषेकम् ॥ २९८ ॥ (शालिनी) अर्कक्रोशी क्रोशषण्मात्रकी च, पश्चक्रोशीमध्यसौ संव्यधत्त । त्रैक्रोशी तां सार्धकक्रोशयात्रां, भक्त्युद्रेकाच्छेष्टिवयों यथावत् ॥ २९९ ॥ (त्रिभिर्विशेषकम् ) (उपजातिः)-प्रदक्षिणं रन्ध्रनवेप्रमाणमियत्तंकारी जिनराजपूजाम् । श्रीसंघभक्तिं कृतवान् क्षमाश्र-मणं गरिष्ठां रथकीययात्राम् ।। ३०० ॥ साधर्मिवात्सल्यमनेकमत्र, ह्युपत्यकायामपि पूर्णभक्तिम् । नगेन्द्रपूजामपि सोऽत्र चक्रे, भवाऽर्चनं चैष चकार सम्यक् ।। ३०१ ।। अनेकटोलीमुपधाननाम, तपश्च मालापरिधापनस्य । महोत्सवं चारुतरं विधाय, सानन्दमाचार्यवरस्य तस्य ।। ३०२ ॥ सद्धर्मलाभाऽऽशिषमाददानः, कुटुम्बवगैः सह तीर्थनाथम् । गुरूंश्च नत्वा मुहुरेष भच्या, गेहं स्वकीयं पुनराजगाम ।। ३०३ ।। (युग्मस् ) श्रीपूज्यकाचार्यमहोपदेशाद्, दादाजितोऽत्यन्तसुजीर्णचैत्यम् । समुधारातिविशालमत्र, सब्रह्मचर्याश्रममुत्तमं च ।। ३०४ ॥
(बसन्ततिलका)-कल्याणयुक्तभवनाऽभिधधर्मशाला, चान्यापि चन्द्रभवनाऽभिधया प्रसिद्धा । प्राकारि गच्छबहुधोन्नतिहेतुनाऽत्र, प्रख्यातिमत्खरतराऽऽदिकगच्छकीयः ।। ३०५ ।। श्रीप्रेमकर्णशुभनाममरोटिकेन, धीमअनाग्रगणनीयशुभाशयेन । सद्धर्मकारिमतिना गुणिनाऽतिनुन्नः, श्रीसंघकैश्च सकलैबहुलव्ययेन ॥ ३०६ ॥ (युग्मम् ) (उपजातिः)-इतश्च सजेसलमेरवासि-नो बाफणागोत्रसमुद्भुवश्च । वृहत्पशाखस्य हि संघविश्री-मचन्द्रमल्लस्य सुधर्मपत्नी ॥ ३०७॥ नाम्ना प्रसिद्धा फुलवरीति, सच्छेष्टिनी स्वीयगुमास्तमेकम् । शत्रुञ्जयेऽत्यन्तपवित्र तीर्थे, सम्प्रेष्य वस्खेष्टनवैकवर्षे ।। ३०८ ।। राधे सिते पनग
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पञ्चमः सर्गः।
मीनिनरूपाचन्द्र
सरिचरित्रम्
REKARNA
॥११॥
राजतिथ्या, समाररम्भद्भवनस्य खात्रम् । वियन्नवाऽक्षितिहायने च, सा धर्मशाला समपादि पौष्याम् ॥ ३०९ ॥ (त्रिभिविशेषकस्) तस्याः प्रवेशे त्विह कालिकाता-पुरात्समागात्स्वयमप्यसौ हि । शुमे मुहूर्ते प्रविवेश तस्यां, तद्वास्तुपूजादि विधाय सा वै ॥ ३१०॥ तदर्थेमारब्ध-विशेष-चारु-महोत्सवे रत्नललामपुर्याः | सच्छेष्ठिनीदत्तकपुत्रराय-बहादुर श्रेष्ठिगणाऽग्रगण्यः ॥ ३११ ।। श्रीकेशरीसिंहदिवानपूर्व-बहादुरः सर्वहरित्प्रसिद्धः । सुश्रावका शासनदीप्तिकारी, धीमान् दयावान् गुणवान् महीयान् ॥ ३१२ ॥ सज्ञातिरागाद् गुरुदेव-तीर्थ-सन्मात्पादाम्बुजवन्दनाय । स धर्मशाला प्रविलोक्य रम्यामजहूंपीच्छेष्ठिवरः प्रकामम् ॥ ३१३ ॥ (त्रिभिर्विशेषकम् ) षट्सप्तधनानिह तस्थिवान् स, यात्रां प्रकुर्वन् प्रतिवासरं च । | श्रीमद्गुरोरस्य महोपदेश, सदैव शृण्वन्नतिमोदमानः ॥३१४॥ प्रयाणकाले सकुटुम्बका स, आचार्यवर्याऽन्तिकमाजगाम । गुरुन् प्रणन्तुं तमुवाच तर्हि, सूरीश्वरः श्रीजिनकीर्तिसरिः ॥३१५।। महेभ्यराज! प्रथमः सुशिष्यो, विद्वत्तमवैष वरीवृतीति । अस्मै तपस्ये धवले सुपक्षे, तिथावहेर्भानुदिनेऽतिरम्ये ॥ ३१६ ॥ दित्सामि चाचार्यपदं किलाऽहं, वार्धक्यमागान्मम साम्प्रतं हि । सोऽप्यनवीनाथ ! विवेकिनस्तेऽ-वश्य विधातुं घटते तदेतत् ॥ ३१७।। (युग्मम् ) श्रुत्वा किलैतामतिहर्षवार्ता, मनो मदीयं बहुमोदमेति । योग्ये विनीते विदुषि स्वशिष्ये, पदप्रदान झुचितं गुरूणाम् ॥ ३१८ ।। इत्थं समालप्य चिरं गुरूणां, | विधाय सहन्दनमादरेण । गुज्ञिया श्रेष्ठिवरस्ततो हि, स्वस्थानमागत्य पुनः प्रतस्थे ।। ३१९ ।। गते च तस्मिन् दिवसे द्वितीये, भविष्यदाचार्यपदप्रदानम् । सा श्रेष्ठिनी बुद्धिमती जनानां, मुखेन शुश्राव ततोऽतिहृष्टा ॥ ३२० ।। निजं गुमास्तं गुरुपार्थमुक्ता, सम्प्रेष्य सूरिं कथयाञ्चकार । स्वामिन् ! मयाऽऽचार्यपदप्रदानं, निशम्यते तद्धृवमेव तर्हि ॥३२१॥ अपेक्षित
ARKAR
॥११४॥
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HERA
तत्र समस्तवस्तु, वाम्छामि सम्पादयितुं किलाऽहम् । महोत्सवं चापि विधातुमस्मि-नाज्ञापय त्वं त्वरितं ममैव ॥३२२॥ (युग्मम्)
(मालिनी)-उपकरणमशेषं तस्य संब्रूहि मा, विधिमपि निगद त्वं चाऽनुगृयाऽधुना माम् । इति तदुदितवाचः सरिराजो निशम्य, तदखिलमवदत्तं सम्यगाचार्यवर्यः ॥ ३२३ ॥ ( उपजातिः)-प्रत्यालय ख्यापयितुं किलैतत् , तामादिश
द्वैणवरम्यपात्रे । संस्थाप्य सर्वोपकर तदीयं, विलासिनीमूर्धनि तनिधाय ॥ ३२४ ॥ जेगीयमाना सधवा सुभूषा, सुकामिनीDI मिपंहुभिः सुयुक्ता। वाद्याऽऽदिनाचार्यसमीपमित्वा, समर्पयेत् तत्सकलं च तस्मै ।। ३२५ ।। रात्रौ च संगायनवादनाये।
संनतनैर्जागरणं च कुर्युः । इत्यादितत्सर्वविधि गदित्वा, सायं जगौ संस्कृतसर्वसंघम् ॥ ३२६ ॥ सर्वे च यूयं वशवर्तिनो मे, शिष्या विनीता बहुभक्तिभाजः । ज्येष्ठत्व-विद्याऽधिकतायनेक-सद्धेतुभिर्योग्यतमाय चोऽस्मै । ३२७ ॥ सच्छीलिने श्रीजयसागराय, प्रदाय चाऽऽचार्यपदं प्रभाते । स्वकीयकल्याणचिकीर्षयाऽहं, निरन्तरं ध्यानमुपासिताहे ॥ ३२८ ॥ (युग्मम् ) एतच सर्वैरनुमोदनीय, काले च तस्मिन् समुपस्थितैहिं । मदीयसाधु-श्रमणीभिरेतत् , सुश्रावकैवाऽप्यवबोधनीयम् ॥ ३२९ ।। तस्मिन् दिने सजितचन्द्रसौध-द्वितीयभूमावतिविस्तृतायाम् । आनन्दकल्याणिकपीठिकायाः, सौवणिक राजतरम्यनान्दम् ।। ३३० ॥ नाय्य शास्त्रोक्तयथाविधान, संस्थाप्य तस्योपरि पूजनाऽऽदि । प्राचीकरत् सूरिवरस्तदानीं, सच्छेष्ठिनी श्रीफ
लकुंवरी ताम् ।। ३३१॥ तत्पीठिकामुख्यमुनीमकादि-चतुर्विधे संघ उपस्थिते हि । प्राचार्यकश्रीजिनकीर्तिसरि-विधाय सर्व | विधिमेतकस्मै ॥ ३३२ ।। सानन्दमाचार्षपद मुहूर्ते, शुमे नवांशे स्थिरकेऽतिशस्ते । प्रदाय तत्कर्णमथामिपूज्य, भीमरिमन्त्राक्षरमप्यदत्त ।। ३३३ ॥ (युग्मम् ) (सुमुखी)-जिनजयसागरसरिरिदं, गुरुवरदत्तसुनाम वरम् । प्रथितमभूदिह भूमि
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श्रीजिनकाचन्द्रपरि
पञ्चमः सगे।
चरित्रम्
॥११५॥
तले, विबुधतमस्य कुशाऽअधियः ॥ ३३४ ।। (उपजातिः )-अथाऽऽसनं स्वं नवपरिवर्य-मध्यास्य पूर्वः खलु सरिराजः। सद्वादशावर्तममुं ववन्दे, चाऽऽस्ताऽऽसने स्वे पुनरेव तत्र ॥३३५।। तदासनाऽऽसनधृतासने च, नवीनसूरिनिषसाद पश्चात् । उत्थाय सूरिं प्रथम प्रभक्या, यथाविधानं प्रणनाम सोऽथ ॥ ३३६ ॥ त्रिकम्बलीलक्षणपतृसंस्थ-सूर्यासनाऽऽसीन-नवीन
मरिः । व्याख्यानमारब्ध पनप्रणाद-जेच्या गिरा संसदि सर्वतोषम् ॥ ३३७ ।। ततो नवाऽऽचार्यपदारविन्दौ, प्रक्षाल्य *चाऽभ्यर्च्य पटोपरिष्टात । संधारयामास चकार भक्त्या, तदङ्गपूजा विधिवत समायाम् ॥ ३३८॥ स द्वादशाऽऽतोद्यनिना
दपूर्व, संधैश्चतुर्भिः सह नव्यसरिः । चैत्यानि गत्वा अभिवन्ध सर्वान् , जिनांस्ततोऽगाद् ऋषभस्य चैत्यम् ॥ ३३९ ।। पितामहं श्रीप्रथमं जिनेशं, भक्त्या नमस्कृत्य चिरं प्रणुत्य । विधाय तच्चैत्यसुवन्दनादि, समाययौ श्रीगुरुदेवपार्श्वम् ॥३४॥ यथाविधि श्रीगुरुदेववर्य, भक्रयाऽभिवन्याऽतुलकीर्तिमन्तम् । उपावसत्तत्र दिने सुविद्वान् , कृत्वा परित्यागमसावतिष्ठत् ॥ ३४१ ।। अनेकवादित्र-सुनृत्य-गीत-मध्याकाले समभूच पूजा। प्रभावना चाऽभवदासनस्य, प्राभातिकी सा किल नालिकेरैः ।। ३४२ ।। बभूव रात्री प्रभुपूर्णभक्तिः, प्रभावनाऽकारि तथाऽऽसनस्य । पातश्च मूरिं नवमाग्रहेण, शालाधिपत्नी समपारयत् सा ॥ ३४३ ।। ( वसन्ततिलका)-दौर्जन्यपूर्णमनसः कियतश्च लोकान् , सोपाहसत् परमसजनतापकर्तृन् । सच्छीलसौरभसुवासितसर्वपृथ्वी, सच्छेष्ठिनी सततधर्ममतिः सुशीला ॥ ३४४ ॥ (उपजातिः)-सा श्रेष्ठिनी श्रीफुलकुंवरीह, युगप्रधानस्य गुरोगिरा हि । संपूर्णलामं पदसंप्रदाने, संप्राप्य हर्ष परमं बभार ॥ ३४५ ॥ भूयश्च तादृक-प्रसरं किलाऽऽप्तुं, विभावयन्ती फुलकुंपरी सा । सच्छेष्ठिनी तीर्थपतिं गुरुं च, नंनम्यमाना निजधाम याता ।। ३४६ ॥ भू-रन्ध-नन्द-क्षिति
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॥११५॥
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सेरेsपि, श्रीपादलिप्ते नगरे सुतीर्थे । चक्रे चतुर्मासमतिप्रवृद्धः, संक्षीण जंघाबलको यमीन्द्रः ॥ ३४७ ॥ अतोऽयमत्रैव पवितीर्थे, वस्तुं विनिश्चित्य मनस्यनीहः । अनारतं ध्येयमनुस्मरन् हि तिष्ठत्यजस्रं नियमेन सोऽत्र ।। २४८ ।। शशाङ्क-नन्दाSङ्क घेरामिताऽब्दे, तपस्यशुक्ले दशमी सुरेज्ये । पुनर्वसौ मेऽप्यथ सिद्धियोगे, सौभाग्ययोगे मिथुनस्थचन्द्रे ॥ ३४९ ॥ सतैतिलाsssये करणे दिनस्य, माने नवाऽक्षि-द्वि-गुणप्रमाणे । दिवाकरे मीनगतेऽङ्गरेजी-मासे तृतीये जलधीन्दुसंख्ये || ३५० || तारीख बाण - हुताशनाऽङ्क - भूत्सरे यावनशैलमासे तारीखसूर्ये दल-भूत-राम-भूहायने हैन्दिकचन्द्र-सूर्ये ॥ ३५१ ॥ षड्वादनाऽनन्तरपश्चमिन्टे, दिवाकरे चाऽभ्युदिते तदस्ते । पश्ञ्चप्रवादोत्तरबाणवाद्धि-मिण्टे तदित्थं समये प्रशस्ते ॥ ३५२ ।। प्रभातकाले नवतश्च सार्थ - काम। रिपर्यन्तशुभे मुहूर्ते । लग्ने वृषे देवपुरोहितेन, संपूर्णदृष्ट्या प्रविलोकिते हि ।। ३५३ । चन्द्रे धनस्थ सहजे च केतौ भूमीसुते पञ्चमभावसंस्थे । जीवे च कामे नवमे च राहौ, सूर्ये शनौ ज्ञे दशमस्थिते च ||३५४|| लाभस्थिते दैत्यपुरोहिते च, मीने स्वकीयोथग्रहे बलिष्ठे । इत्थं शुभालोकितशुद्धलग्ने, बभूत्र चाऽऽचार्य पद प्रदानम् ।। ३५५ || ( सप्तभिः कुलकम् ) ( गीतिः ) जङ्गमयुगप्रधानो, भट्टारकपुरन्दर- योगिराजः । जगतां पूज्यः प्रातः स्मरणीयः सर्वतन्त्रस्त्रतन्त्रः ।। ३५६ ॥ रिचक्रचक्रवर्त्ती, शासनसम्राट् सर्वज्ञकल्पो हि । परमश्रीगुरुदेव, श्रीमान् कृपाचन्द्रसूरीशः ||३५७|| स्वसाध्वादिसमुदाये, ज्येष्ठाऽन्तेवासिनं चैनमर्हम् । अवगत्य परम्परयाऽऽयातां परिपार्टी च परित्रातुम् ॥ ३५८ ॥ व्योमा -ऽङ्क- नवें शशिवर्षे, तपस्यशुक्लपञ्चमीरविवारे । रेवत्यां शुभयोगे, वर्द्धमानयोगश्वकरणे ।। ३५९ ।। तिष्ठति मेषे चन्द्रे, शतभिषा नक्षत्रसंगते सूर्ये । नव-दशवादनसमये, सह सूरिमन्त्रेण पदमाचार्यम् ॥ ३६० ॥ ददिवाञ्छ्रीमजिनजय
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श्रीजिनकृषाचन्द्र
वर
चरित्रम्
११६ ।।
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सागरस्वरिरिति शुभनाम तदीयम् । प्रथयामास च सकले, श्रीसंघे जिनकृपाचन्द्रसूरिः || ३६१ || ( षद्भिः कुलकम् )
( उपजातिः ) - दीक्षा च लघ्वी समभूदमुष्य, सत्पत्तने जेसलमेरसंज्ञे । पद् पश्च-नन्देन्दुमिते च वर्षे माघेस नागतिथौ सुवारे ।। ३६२ ।। गुर्वी च साऽभूद् इय-बाण-नन्द-भूत्सरे कार्तिकपूर्णिमायाम् । अङ्गा-श्व-रेन्द्र-क्षितिसंख्यवर्षे, सत्पत्तने सूर्यपुरे तपस्ये ।। ३६३ ।। शुभे मुहूर्ते ददिवानुपाध्यायेत्येतदस्मै पदमाग्रहेण । सिद्धाचले खा-ऽ- नवेकबर्षे, ह्यागृह्य चाचार्यपदं व्यतारीत् ॥ ३६४ ॥ वर्षात्परं श्रीजिन कीर्तिसूरिः, क्षान्त्यादिसाद्गुण्यमुपेयिवन्तम् । गच्छाधिपत्ये विनियुज्य नैजे, पट्टे तमेनं समतिष्ठिपश्च ।। ३६५ ॥ इत्थं व्यवस्थाप्य समस्तकृत्य- मिष्टस्मृतिध्यानपरायणोऽसौ । समाधिलीनो घुतसर्वपापः स देवतामूर्तिरिव व्यभासीत् ।। ३६६ ।।
( शार्दूलविक्रीडितम् ) -- एतस्मिन् समये बृहत्खरतरैर्गच्छाग्रणीश्रेष्ठिभिः, श्रीमन्मान्य युगाग्रणीजिनकृपाचन्द्राख्यसूरीश्वरम् । आनेतुं नगरेब्धराजनगरे शिष्यैः प्रशिष्यैः समं श्रीसिद्धाचलतः सुसिद्धपुरुषं संघाग्रहान्मन्त्रितम् ॥ ३६७ ॥
( उपजाति: ) कोष्ठारिकः श्रीमणिलालनामा, श्रेष्ठीश्वरो मोहनलालपुत्रः । तथा धनी मङ्गलदास ईब्यो, डाह्यादिभाईसुतसुप्रसिद्धः || ३६८ || भाण्डारिमुख्यो धनिचन्दुलालः, श्रेष्ठ्यग्रणीर्मोहनलालपुत्रः । माणिक्यलालेति शुभाभिधानः, श्रीकालिदासाख्यतनूभवो वै ।। ३६९ ।। इत्यादिमुख्यैः पुरसंघमान्यै-रहम्मदावादनिवासिभिश्च । धर्म्यग्रणीथाबकवर्यवर्गा-ग्रहैर्गुरोरागमकाङ्क्षिभिर्वै ॥ ३७० ॥ हस्ताक्षरैः सार्धमनेकसंख्यैः, पत्रं लिखित्वा शुभभावपूर्वम् । सूरीश्वराणां सविधे स्वकीयः प्रेष्यो जनः प्रेषित आप्त इभ्यः ॥ ३७१ ॥ ( चतुर्भिः कलापकम् ) श्रीपादलिप्शाख्यपुरं स
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पश्मः सर्गः ।
॥ ११६ ॥
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गत्वा, तां प्रार्थनां संघकृतां च भव्यः । सुरीश्वराणां चरणौ प्रणम्य, न्यवेदयत् पत्रमसौ सहर्षम् ॥ ३७२ ॥ तत्प्रार्थनां भावयुतां विदित्वा श्रीसूरिशिष्यो जयसागराख्यः । आचार्यवर्याऽनुमतिं गृहीत्वा संघाऽर्थनास्वीकृतिमन्वमंस्त ।। ३७३ | भट्टारकाऽङ्गीकृतमर्थनं ते श्रुत्वा सहर्षं पुरसंघमुख्याः । गुरूत्तमानां वरसत्कृतार्थ, सज्जाः समासन् समसाधनौधैः ॥ ३७४ ॥ द्वि-नन्द-नन्दैक मिते (१९९२) हिते ते, श्रीवैक्रमीये शुभवत्सरे वे । मासोत्तमे श्रीशुभफाल्गुनाऽऽहे, पक्षे सिते पञ्चमिते तिथौ हि ।। ३७५ ॥ बृहस्पतेर्वासरसौम्यलग्ने, श्रीपादलिप्ताख्यपुरात् प्रयाणम्। आचार्यवर्या जिनधर्मधुर्याः, कृपादिचन्द्राऽभिधसूरि सूर्याः ॥ ३७६ ॥ श्रीजङ्गमादियुगयुक्प्रधाना, भट्टारकादिपदवीप्रसिद्धाः । शिष्यैः प्रशिष्यैः सह विज्ञवर्यैस्तदा व्यहार्षुर्वरसाधुवर्याः ॥ ३७७ ॥ ( त्रिभिर्विशेषकम् ) तत्रैव चैत्रस्य शुभाऽज्यपक्षे, चन्द्रे तिथ पञ्चमिते सुलग्ने । वाद्येषु चित्रेषु हि वाद्यमानेष्वहम्मदाबादपुरेऽविशंस्ते ॥ ३७८ ॥ ( शार्दूलविक्रीडितम् ) – तस्मि व दिने पुरे समभवत् पूजाप्रभृत्युत्सवो, नालीकेरफलप्रभावनविधिश्रीसंघसस्कारितः । अस्मिन् श्रीमुनिराजसत्कृतिविधौ वैहारिकोऽर्थव्ययो जातस्तं समपूरयत् खरतरश्रीसंघ उत्साहितः || ३७९ ।। तस्मिन् गुर्जरराष्ट्र - राजनगरे श्रीमद्धहैर्मण्डिते, श्रीमच्छ्रीमणिकारपाटकपटी कोष्टारिकाणां पथि । संधैः सत्कृतिपूर्वकं खरतर श्रीजैनम्पाश्रये, श्रीमजैन मतैकसूरिधुरिणां भव्यः प्रवेशः कुतः || ३८० ॥ श्रीमत्पूज्यमुनीशितुर्जिन कृपाचन्द्रा रूपसूरेस्तदा, रोगाऽऽविष्टतनोर्व्ययः समभवद् भैषज्यकार्यादिके । रौप्याणां प्रतिमास मेकशतकं तत्सरिसेवाकृते, सर्वस्तैः परिपूरितः खरतरैर्गच्छीयसंधैर्मुदा ।। ३८१ ।।
( उपजातिवृत्तम् ) – द्वि-नन्दे - नन्दैकमिते वरेण्ये, श्रीविक्रमार्केन्द्रविनिर्मितेऽस्मिन् । तथैव वह्नि -ग्रह- नन्द- चन्द्रे,
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श्रीजिनकृपाचन्द्र
सूरिचरित्रम् ॥११७॥
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प्रसिद्धसंवत्सरकद्वये ते ॥ २८२ ॥ अहम्मदावादपुरे न्यवात्सु स्तदा चतुर्मासविधित्सया वै । संधाग्रहाच्छीजिनपूजनादौ, प्रावीवृतन् सर्वजनान् मुनीशाः ॥ ३८३ || ( युग्मम् ) अत्रान्तरे भारतवर्षवर्य - श्रीमालवाख्यापरिभूषितस्य । राष्ट्रस्य लक्ष्म्याः सुललामतुल्या, वास्तव्यवर्ण्या रतलामपुर्याः ॥ ३८४ ॥ श्रीश्रेष्ठिनी फूलकुमार्यभिख्या, श्रीपादलिप्ताख्यपुरप्रतिष्ठे । स्वकारिते वै भुवने हि चान्द्रे, ऐच्छनिवासाय मुनीश्वराणाम् || ३८५ || अहम्मदाबादपुरे ततो हि, जन्नाण्युपाहुं मुनिमं स्वकीयम् । श्रीचान्दमलाभिघमर्थनार्थं, प्रासादसाफल्यकृते तु प्रैषीत् ।। ३८६ ।। तथैव सर्वोऽपि पथि व्ययश्च, श्रीपादलिप्ताख्यपुराऽवधिकः । अहम्मदावादपुराद्धि यः स्यात्, तथैव दातुं प्रतिस्वीकृतः सः ॥ ३८७ ॥ ( अर्थतः चतुर्भिः कलापकम् ) आचार्यवर्यस्य तनुस्तदानीं, रोगाऽभिभूता क्षयिणी सदाऽऽसीत् । किञ्च स्विकां वृद्धतमामवस्थां निर्वाणकालं सविधे च ज्ञात्वा ॥ ३८८ ॥ श्रीसिद्धक्षेत्राख्यपवित्रतीर्थं, तनोस्तनोस्त्यागविधित्सया वै । स्वजन्मसाफल्यचिकीर्षया ते, तत्प्रार्थनां स्वीकृतवन्त ईशाः ॥ ३८९ ॥ ( युग्मम् ) तथा च तुर्य-ग्रे-नन्द-चन्द्रे, संवत्सरे पौषसिते च पक्षे । त्रयोदशी- शुक्र दिने व्यहार्षु-रहम्मदाबादपुरान्मुनीशाः || ३९० || तस्मान्निरीयात्मविदामधीशा- स्वस्मिन् हि मासोत्तममाघमासे । शुक्लद्वितीया-बुधवासरे च, श्रीपादलिप्ताख्य पुरेऽगमंस्ते ।। ३९१ ॥ श्रीसंघमुख्यैर्विविधैर्महैश्च बाधैर्विचित्रैस्सह हर्षपूर्वम् । पुर्यां प्रवेशः शुभभावभव्यैः, सूरीश्वराणां हि कृतस्तदानीम् || ३९२ || श्रीपादलिप्ताऽऽगमनस्य पश्चा-दाचार्यवर्यस्य तनुस्तनुत्वम् । रोगादितत्वादतिरुग्णतायाः, स्वरूपमापद् वमनष्यथाभिः ॥ ३९३ ॥ वर्षे हि तुर्य-प्रहें-नन्द-चन्द्रे, शुक्के च पक्षे शुभमाघमासे । एकादशीपुण्यदिने वरेण्ये, बृहस्पतौ साऽभिजितीडथलमे ॥ ३९४ ॥ तथैव सम्यम्मृगशीर्षधिष्ण्ये, समाधियुक्ताः शुभ
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पश्चम सर्गः ।
॥११७॥
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भावपुण्याः । नमस्कृतीः पञ्च मुदा स्मरन्त, आचार्यवर्या स्त्रिदिवं व्यराजन् ॥ ३९५ ।। (युग्मम्)
(शार्दूलविक्रीडितम्)-नेतुः श्रीजिनशासनस्य महतः सम्यक्त्वसंसेवितुः, आचार्येकधुरन्धरस्य विदुषः सत्स्वर्गयात्रा तदा। जैना-जैनमतानुयायिभिरपि श्रीमद्भिरीड्यैर्घनै-लोंकैः शोकयुतैरसंख्यगणनैः संधैर्मिलित्वा कृता ॥ ३९६ ॥ श्रीमन्मुख्यजिनेशपादसविधे श्रीपादलिप्ते पुरे, लक्ष्मीचन्द्रयतेवरेण्यवसुधावृक्षादिसालंकृते । उद्याने घृत-चन्दनादिसकलैः सौगन्ध्ययुक्तः शुभ-द्रव्यैः श्रीमुनिपुङ्गवस्य सुतनुः संस्कारिता पाबके ॥ ३९७ ।। ( उपजातिः) काले च तस्मिन् व्ययिता अभूवन् , आचार्यवर्याऽन्तिमसत्क्रियायाम् । चतुःशतं राजतराजमुद्राः, तस्याऽग्निसंस्कारविधौ तदानीम् ।। ३९८ ॥ सर्वा हि ताः फूलकुमारीनाम्नी, श्रीचान्द्रमल्लाऽऽधनीशपत्नी । श्रीश्रेष्ठिनी भावयुताऽऽर्पिपत् सा, आचार्यवर्याऽग्रिमभक्तियुक्ता ।। ३९९ ।।
(द्रुतविलम्बितम् )-मुनिपतावथ नाकसदां पुरे, गतवतीति निमित्तकृते तदा । बरमहोत्सवमष्टदिनात्मक, कृतवती पुरि फूलकुमारी सा ॥ ४०० ।। (उपजातिः)-अष्टाहिके तत्र महोत्सवे हि, व्ययोऽभवत् रौप्यसहस्रकल्पः । तस्मिन्नदात् रौप्यशतत्रयीं हि, श्रेष्ठिन्यसौ फूलकुमार्यभिख्या ॥४०१॥ गार्हस्थ्यवासादथ तचतुर्मा-सोल्लेखमस्मिश्चरिकर्मितस्य । आदर्शभूतस्य समस्तलोके, सर्वज्ञकल्पस्य जितस्मरस्य ॥४०२॥ स पैत्रिके सानि संन्यवात्सीत , गुणैक-नन्द-क्षितिसंकयवर्षात । पञ्चा-क्षि-रन्धेन्दसैमाथ यावत. पडक्षि-रोकैकमिताऽब्देतच ॥४०३ ।। भूत-त्रि-नन्द-शशितुल्यसमाऽन्तमेष, प्रख्यातविक्रमपुरे स हि तस्थिवांश्च । तर्का-ग्नि-रन्ध-धरणीमितवर्षतो हि, छिद्र-त्रि-रोक-कुसमाऽवधि रायपूरे ॥ ४०४ ॥ व्योमोदधि-ग्रह-धरामितहायनाच्च, पक्षाऽब्धिकाऽवधि स दक्षिणनागपूरे । रामा-ऽन्धि-नन्द-शशिसंख्यसमात एक-पश्चशि
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श्रीजिनकृपाचन्द्रसरि
पश्चमः सर्गः।
चरित्रम्
॥११८॥
दन्दमयमिन्द्रपुरे यतिष्ठत् ॥ ४०५ ॥ अक्षीषु-नेन्द-शशिवत्सर एष तस्थौ, तत्रोदयादिपुरके किल मेदपाटे । संवन्त्रि-भूतनव-चन्द्रमिते च वर्षे, सद्देसुरीपुरवरे स्थितांश्च गौडे ॥ ४०६ ।। (भुजङ्गप्रयातम् )-चतुष्पश्च-नन्देन्दुवर्षे महीयान् , | पुरे योधपूर्वे मरौ रम्यदेशे । चतुर्मासमस्थादशेषाऽऽग्रहेणा-ऽभवत् धर्मवृद्धिर्भृशं नैकधा हि ॥४०७।। ( उपजातिः)-स पश्चतत्वा--सुधांशुवर्षे, संतस्थिवान् जेसलमेरुदुर्गे। वर्षर्तुकालं सकलाऽऽगृहीतो, गुरुगरीयान् सह भूरि-शिष्यैः ।। ४०८ ॥ स तर्क-बाणा-क-धेरौमिताऽब्दे, तस्थौ मरौ श्रीफलवर्द्विपुर्याम् । श्रीसंघ-बह्वाग्रहती महीयान , सद्देशनाऽम्बूनि सदैव वर्षन् , ॥४०९ ।। तुरङ्ग-पश्च-ग्रह-चन्द्रवर्षे, स विक्रमाऽयं पुरमध्यवात्सीत् । देशे मरौ वारिदकालमेष, व्यत्येतुकामो वृषमेधयन् हि ॥ ४१०॥ जेतारणे विक्रमसंवदब्दे, शैलेषु-रेन्फ्रे-क्षितिसंख्यके हि । चक्रे चतुर्मासमसौ समस्त-जनाऽऽग्रहाच्छासनवर्धनाय ॥ ४११ ।। सिद्धाचले नन्द-शशा-5ङ्क-चन्द्रमाने सुवर्षे जितमारदर्पः । सोऽस्थाद् महीयान् प्रणुतप्रभावः, प्रावृष्यनीहोऽतुलकीर्तिबुद्धिः॥४१२|| वियद्-रेसकै कमिते च वर्षे, बोराऽऽदिमवन्दरपत्तने हि । सौराष्ट्रदेशे जनताऽऽग्रहेण, तस्थौ चतर्मासमदभ्रवद्धिः ॥ ४१३॥ शशाङ्क तर्कात-महीमिताऽब्दे, कच्छीयमुद्राऽऽदिमबन्दरे हि । अलञ्चकारैष पयोदकालं. सच्छासनौनत्यमचीकरच ।। ४१४ ॥ रक्तर्क रन्धेन्दुमिति च वर्षे, देशे च कच्छे भुजराजधान्याम् । प्रावृष्यवात्सीत् सह शिष्यवर्ग:, प्रवर्द्धयञ्छासनमुचकैः सः ॥ ४१५॥ स माण्डवीबन्दर आग्रहेण, कच्छस्थिते वहि-पंडे-चन्द्रे । वर्षकस प्रावृषि सन्निवास-मानन्दयन् सझमशेषमेषः ॥ ४१६॥ वेदाङ्ग-नन्देन्दुमिते च वर्षे, कच्छप्रधाने बिदडाभिधाने । महापुरेऽस्थाचतुरष मासान् , प्रबोधयंस्तत्वमशेषलोकान् ।। ४१७ ॥ पश्चाऽङ्ग-नन्देन्दुमिते "वर्षे, कच्छीयकेआरपुरे गरिष्ठे ।
॥११८॥
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कृत्वा चतुर्मासमशेषभव्या-नवूवुधद् धर्मरहस्यमेषः ॥ ४१८ ॥ रसाङ्गरन्ध्र- क्षितितुल्यैवर्षे, श्रीपादलिप्ते नगरे सुतीर्थे । अत्याग्रहात् संघजनस्य सोऽयं पयोदकालं गमयांवभूव ॥ ४१९ ।। हेङ्ग-नन्द-क्षितिसम्मितेऽब्दे, श्रीजामपूर्व नगरे विशाले । सौराष्ट्रदेशे कृतवांश्चतुर्मा समेधयन्नार्हतशुद्धमार्गम् ॥ ४२० ।। सौराष्ट्रदेश - कमलालय- मोरबीति-संज्ञे पुरे सुविपुले न्यवसत्समेषाम् । अत्याग्रहाज्जलदकालमसौ गरीयान् नागाऽङ्ग-नन्द-विधुसम्मितवत्सरे हि ॥ ४२१ ।। श्रीराज पूर्वे नगरे विशाले, सर्वाग्रहानन्द-श-चन्द्रे । वर्षेऽध्यवात्सीचतुरथ मासान्, तपः समस्तैर्विविधं ह्यकारि ।। ४२२ ।। सौराष्ट्रदेशे स हि तीर्थपाद- लिप्ते पुरे बिन्दु-देयी-क-चन्द्रे । वर्षे च तस्थौ जनताऽऽग्रहेण महामहैः प्रावृषि धर्मवृद्ध्यै ॥४२३॥ प्रख्यातिमत्सूर्यपुरे च लाटे, चन्द्राऽश्व-नन्देन्दुमिते च वर्षे । वर्षाकालं गमयाञ्चकार, ह्याडम्बरेणैप गरीयसा हि ॥ ४२४ ॥ स मोहमय्यां पुरि सर्वसंघाऽऽग्रहाद् द्वि-वाज्य - महीमिताऽब्दे । रामाऽश्व-रन्ध्र-क्षितिवेत्सैरे च तस्थौ महीयानमितप्रभावः ।। ४२५ ।। समुद्र-वाज्यङ्क- शशीङ्कवर्षे, बुहारिकायां पुरि संन्यवात्सीत् । पयोदकालं विबुधाऽग्रगण्यः, सह प्रशिष्यैः परमोपकर्ता ॥ ४२६ || संतस्थिवान् सूर्यपुरे पुरेऽसौ पञ्चर्षि-रन्ध्र-क्षिति--होंने हि । पडश्व--नन्दैकमिते च वर्षे वार्षी च वेलाममितोत्सवेन ॥ ४२७ ॥ हयर्षि - नन्दा उब्जै-समानवर्षे वटोदरायां पुरि राजधान्याम् । वर्षाकालं समलंचकार, सद्ध्यान--निर्धूतसमस्तपापः ॥ ४२८ ॥ ( मालिनीवृत्तम् ) - वसु-- हय- नवें-- चन्द्रे वत्सरे मालवेऽसौ न्यवसदतुलकीर्तिः ख्यातिमद्रत्नपुर्याम् । जलदसमयमर्हच्छासनौअत्यकारी, दुरितचयनिरासी सर्वकर्मप्रणाशी ।। ४२९ ।। ग्रह--तुरग - नवेन्दों विन्द्रपुर्यां नगर्या -मकृत सकलजैनाचार्यचूडामणिः सः । जलद समयवासं शासनाम्भोजभानु- दलित-मदनसारः शुद्धमार्गप्रचारः ॥४३० ॥
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भीजिनकपाचन्द्रसूरि
चरित्रम्
॥११९॥
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ख- गज-नव-शशाङ्के वत्सरे मालवीये, दशपुरनगरेऽसौ प्रार्थितः सर्वसंधैः । अलमकृत- चतुर्मासीं कषायप्रमुक्तः, कुमतिचयगजानामङ्कुशः सप्रभावः ॥ ४३१ ।। उदयपुरसमा पत्तनेऽतिप्रसिद्धे, शशि-वसु-नव-- चन्द्रे होयेंने मेदपाटे । जगदुपकृतिकारी कीर्तिधारी सुतारी, स्थितिमकृत चतुर्मास्यां महाडम्बरेण ॥ ४३२ ॥ ( उपजातिः ) – बालोतराख्ये नगरे मरुस्थे, दलाऽष्ट--नन्दैकमिते 'व' वर्षे । चक्रे चतुर्मासिकसन्निवास, लाभो महांस्तत्र बभूव तेन ।। ४३३ ।। त्र्यष्टाऽभूमी मितवत्सरेऽसौ, देशे मरौ जेसलमेरुदुर्गे । तस्थौ च मासांश्चतुरथ सर्वाऽतिप्रार्थनैष महोपकृत्यै || ४३४|| स तस्थिवान् वेद-गजा भूमी-प्रमा वर्षे फलवर्द्धिपुर्याम् | मरौ च देशे प्रचुराग्रहेण ततान वीरप्रभुशासनं च ।। ४३५ ॥ शराऽद्रि-नन्देन्दुमिते 'चें वर्ष, सविक्रमे तत्र पुरे पुरे हि । अत्याग्रहात् तत्स्थमहाजनानां प्रावृष्यवात्सीजन कीर्तिसूरिः || ४३६|| पट-कमिते पुनः स, तुरङ्ग वस्वे - महीमिताऽब्दे । व्यत्यैत् पयोदाऽऽगमकालमेष, तत्रैव पुर्यां सह शिष्यवर्गः ॥ ४३७ ॥ वस्वष्ट - नन्देन्दुमिते च वर्षे, नवाऽष्ट-रन्कमिते 'व' वर्षे व्योमाऽङ्क-नन्द--क्षिति- सम्मितेऽब्दे, स पादलिप्ते नगरे यतिष्ठत् ।। ४३८ ।।
( वंशस्थवृत्तम् ) - तथैव चन्द्र-ग्रे-नन्द-भूमिते स वैक्रमीये शुभवत्सरान्तरे । शत्रुञ्जयाऽलङ्कतपादलिप्तके, पुरे चतुर्मासविधिं व्यधादसौ ।। ४३९ ॥ द्वि-नन्द-नन्दैकमिते च वत्सरे, तथाऽग्नि-नन्द-ग्रह-भूमितेऽब्द के । अहम्मदाबादपुरे पुरोत्तमेऽवसँश्चतुर्मासमिमे मुनीश्वराः || ४४० ॥ ( उपजातिः ) अथोत्तमाचार्यवराः स्वकीयं, निर्वाणकालं सविधे विदित्वा । आदशपादाश्चितसिद्धशैले, तनोस्तनोस्त्यागविधातुकामाः || ४४१ || अहम्मदाबादपुराद् विहृत्य, शिष्यैः प्रशिष्यैः सह सूरिर्याः । श्रीपादलिप्ताख्यपुरे पुराणे, पुण्यौघपुष्पा पुनरागमँस्ते ।। ४४२ ॥ ( युग्मम् ) तत्राऽब्धि - नन्द-ग्रह - भूमितेऽब्दे,
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पश्चमः सर्गः ।
॥११९
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श्री सिद्धपादाब्जपवित्रपुर्याम् । सूरीश्वरास्ते द्व्यशीतिवयस्काः स्वर्गं गता मुक्तकषायकामाः ॥ ४४३ ॥ समां त्रयोविंशतिमेष तस्थौ, गृहे शराऽमि-ग्रह-चन्द्र-वर्षे आषाढशुक्ले शमनस्य तिथ्यां, दीक्षां यतेः श्रीजिनचन्द्रसूरेः ॥ ४४४ ॥ शुभंयुपाण्यम्बुजयुग्मयोगाद्, जग्राह दर्भाग्रमतिर्मुमुक्षुः । गृहीतदीक्षः स्वगुरोः क्रमाब्जं श्रयन् मही- तर्क- नबैक वर्षान् ।। ४४५ ।। यावत् समध्यैष्ट स्व- पराऽऽगमीय - ग्रन्थानशेषान् मतिमजनाय्यः । अथ द्विपञ्च-ग्रह-भू-मितायां क्रियामसावुद्धृतवाननीहः ॥ ४४६ ॥ ( त्रिभिर्विशेषकम् ) त्रि-संप्त--नन्देन्दुमिते शुभेऽब्दे, श्रीपौषमासे तिथिपूर्णिमायाम् । लग्ने शुभानेकखगाऽनुदृष्टे, सत्तारकाले शुभवासरेऽसौ ॥ ४४७ ॥ श्रीमन्मुनीनामपि मोहकर्व्यां धय पृथिव्यां प्रथमामभिख्याम् । श्रीमोहमय्यारूयमहामहिम्नि, श्रीभारतोत्कृष्ट महानगर्याम् ॥ ४४८ ॥ चतुर्विधश्रीजिनसंघ सेव्यः, कृपादिचन्द्राऽभिघसन्मुनीड्यः । गरिष्ठमाचार्यपदं पदानां प्रापन्महीन्द्रादिपदाद् वरिष्ठम् ॥ ४४९ ॥ ( त्रिभिर्विशेषकम् )
( शार्दूलविक्रीडितम् ) इत्याचार्यजयाब्धिसूरिरचिते दीव्यन्महाकाव्य के, चातुर्मासिकवेदवर्णनविधौ तद्देशनामिश्रिते । गार्हस्थ्यादिकवणनात्मकमये चित्रः पदैर्गुम्फिते, नानाऽलङ्कतिभूषिते समगमत् सर्गो ह्ययं पश्ञ्चमः ॥ ४५० ॥
॥ पञ्चमः सर्गः समाप्तः ॥
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श्रीजिनकृपाचन्द्र
सूरि
चरित्रम्
॥१२०॥
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प्रशस्तिः ।
( इन्द्रव) — श्रीमच्चतुर्विंशतिसजिनेन्द्राः, संसारवार्द्धस्तरितुं सुपोताः । जयन्ति शश्वद् भवभीतिवाराः, पोपूजिताऽशेपजनक्रमाब्जाः ॥ १ ॥ ( पृथ्वीच्छन्दः ) – चतुर्दशशतीमलं गणभृतां द्विपञ्चाशता - अधिकामनिशमादराद् भवकदम्बनाशाय वै । तथा नवपदीमहं नियतसर्वशर्मप्रदां स्मरामि हृदि संततं सकलविशविच्छित्तये ॥ २ ॥ ( उपेन्द्रवज्रा ) - नखप्रमाणानि सदैव भक्त्या स्थानानि वन्दे सकलार्थसिद्धये । तीर्थङ्करीयाऽखिलनामगोत्रा ऽनुभावकानीह महाफलानि ॥ ३ ॥
( गीतिः ) — निर्ग्रन्थ - कौटिक - चन्द्र- वनवासि मुविहितगच्छ-सुविहितपक्षः । सुविहितपरम्पराकः, खरतर - राजगच्छभाणगच्छकादिः ॥ ४ ॥ ( उपजाति: ) - गच्छान् पवित्रान् विशदान्नमामि, पापौघविद्रावणसंविधातृन् । श्रीमत्सुधर्माऽन्वविसद्गुरूंस्ता - नक्षय्यसौख्याय शिवाय सर्वान् ॥ ५ ॥ ( स्रग्धरा ) - श्री पूज्याः कीर्तिरत्नाऽभिधवरगुरवः संबभूवुर्महिष्ठाः, सर्वाऽऽशाव्यासचन्द्राऽधिकरुचियशसा सच्चरित्रा गरिष्ठाः । प्राप्ताऽनन्तप्रतिष्ठा निज-परसमयज्ञानदाक्षिण्यवन्तः, चन्द्राऽऽख्यस्फारगच्छाऽम्बुजवनदिनपा निर्जिताऽऽत्माऽरिवर्गाः ॥ ६ ॥ ( शार्दूलविक्रीडितम् ) – यत्पादोदकसेचनेन भविनां तीव्रज्वरादिव्यथा, सद्यो नश्यति वर्गृधीति सदने कान्ताहरेर्नित्यशः । यद्ध्यानादधुनाऽपि भूरिमनुजा गच्छन्ति सिद्धिं परां तेऽमी पूज्यतमा दिशन्तु जयिनो नो धीविवृद्धिं सदा ॥ ७ ॥ ( इन्द्रवज्रा ) - तत्पट्टमे बुदितो दिनेशो व्यबोधयद् भव्यसरोरुहाणि | युगप्रधानो गुरुचन्द्रकीर्ति - रत्नाभिधानः प्रभया महत्या ॥ ८ ॥ ( स्रग्धरा ) - तद्गच्छे संबभूवुर्जगति बहुमहा
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प्रशस्तिः
1122011
Page #142
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सिद्धयः कीर्तिमन्तः, श्रीमल्लावण्यशीलप्रमुखगुरुवराः शासनाऽम्भोजसूर्याः । गीतार्थाऽज्या गरिष्ठा विषुधजनयुताः कीर्तयः सत्तपस्याः, येषां कीर्तिध सिद्धिः स्फुरति बहुतरा चाऽधुनाऽप्युल्लसन्ती ॥ ९॥ (शार्दूलविक्रीडितम्)-स्पर्शात् पाणिसरोरुहस्य भुवने येषां बभूवुर्भुवं, मूर्खाः पण्डितसत्तमा मतिमतामय्या यशाश्रीश्रिताः । नानाशाखविचारणे पटुतरा मुक्ताः कपायैः समै-योगीन्द्रा गतकल्मपाः सुभविनां सद्बोधिवीजप्रदाः ॥१०॥ (उपेन्द्रवत्रा)-अभृत्तदन्तेसदनन्तकीर्तिः, प्रतापसौभाग्यगणी महीयान् । दक्षः समस्तेष्वयमागमेषु, जितेन्द्रियग्राम उदारवक्ता ॥ ११ ।। (मालिनी)-अभययुतविशालाऽऽख्यानभाक् सद्गुणी स, समभवदतुलर्द्धिवाऽऽद्य-शिष्यस्तदीयः । विपयिगणविजेताऽऽजन्मसच्छीलपाली, परिणुतगुणराशिः सर्वशास्त्रप्रवीणः ॥ १२॥ (इन्द्रवजा)-शिष्यो द्वितीयो गणभृद् बभूवान् , विशालपश्चात्सुमतिः सुधीमान् । तृतीयशिष्यः स हि दानपूर्व-विशालनामा गणधारिवर्यः ॥ १३ ॥ विशालपश्चात्सुमतेगणेशः, समुद्रसोमो गणभृत् सुशिष्यः । अजायतोष समस्तविक्ष-प्रख्यातिमापच तपोभिरुनेः॥ १४॥ युक्त्यादिभागस्य बभूव शिष्यो-मृताऽभिधानः क्षितिसत्प्रतिष्ठः । गणी सुवाग्मी बहुशास्त्रवेचा, गीतार्थमुख्यो भुवि सूरिराजः ।। १५ ।। (वसन्ततिलका)-श्रीमानुदारमहिमा रबिचण्डधामा, कारुण्यवारिपरिपूर्णतरः प्रकूपः । विद्याचणः स हि कृपायुतचन्द्रमरि-स्तच्छिष्यतामुपययौ गुणरत्नमालः ॥१६॥
(इन्द्रवा)-ज्यायानभूदस्य समस्तविद्या-बार्द्धिः सुशिष्यो बहुभाग्यशाली । आनन्दनामा विबुधाऽग्रगण्यः, स्वल्पेऽपि काले सुरलोकवासी ॥ १७॥ शिष्योऽपरः श्रीजिनयुगजयाब्धि-सूरीश्वरो भूरिमनोज्ञवृत्तः । श्रीमद्गुरूणां चरितं युदारं, धियाऽतियत्नाद् रचयांचकार ॥ १८ ।। श्रीमद्गुरोः पादसरोजभृङ्गो, यथाश्रुतं सर्वचरित्रमेतत् । अमत्सराणां सुधियां प्रमोद
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प्रशस्तिः
श्रीजिनकृपाचन्द्र
मूरिचरित्रम् ॥१२॥
कृते यथावुद्धिवलं लिलेख ||१९|| काचित् त्रुटिश्चेदिह मे सुधीभि-नैसर्गिकी मानवदृष्टिदोषात् । विशोध्य सर्वैः पठितव्यमेतदित्येव चाऽहं भृशमर्थयेऽस्मिन् ।। २० ॥ (चुतविलम्बितम् )-मतिमतः कविताप्रतिभाजुषः, स्खलनमत्र विधौ खलु जायते । तदनिशं गुणगुम्फकृतादरै-स्त्रुटिविशुद्धिकरैमयि जायताम् ।। २१ ॥ (उपजातिः)-श्रीतुर्य-नन्द-ग्रह-भूमितेऽब्दे, शास्त्रीयमासेऽसितफाल्गुने च । श्रीगुर्जरस्वीकृतमाघकृष्णे, त्रयोदशी-सोमसुवासरे हि ॥ २२ ॥ नवे मृगाङ्के श्रवणाऽभिधे भे, सर्वेष्टसिद्धावभिजिन्मुहूर्ते । श्रीपादलिप्ताख्यपुरे वरेण्ये, चरित्रमेतत् परिपूर्णमासीत् ॥ २३ ।। (युग्मम् )
(पुष्पिताप्रावृत्तम् )-इति मुनिततिषु प्रसिद्ध-श्रीम-जिनपदपूर्वकृपादिचन्द्रसरेः। चरितमनुपमं पठेत् सुभक्त्या, स भवति पुण्यफलाढ्य ईडथलोके ।। २४ ॥
। इति प्रशस्तिः ।
KIEJKERKEKEKEKEKEKEKENENKANG
॥ इति श्रीकृपाचन्द्रसूरीश्वरचरितं समाप्तम् ॥ KIKKEKEKEKEKESIKEIKEIKEKEKER
क
॥१२१॥
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