Book Title: Jinkrupachandrasurishwar Charitram
Author(s): Jaysagarsuri
Publisher: Jaysagarsuri

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Page 46
________________ SinMahavir.jan AradhanaKendra www.kobatirtm.org Acharys Ka u n Gyanmand द्विपेन्द्रपश्चानन एष सोत्कः ॥ २३० । भ्रष्टप्रतिज्ञो वितथाऽभिमानी, नैवाऽऽगतस्तत्र दिने च तस्मिन् । क्रोष्टेव विभ्यद्धरितो न जाने, कस्मित्ररण्ये प्रविलीय तस्थौ ।। २३१ ।। गतेऽवधौ नोपगते च तस्मि-श्रीमान् गुरुपैयगणाऽऽग्रहेण । ततो विहत्याऽऽगतवान् बडोदा, शरीरनैरुज्यविधातुकामः ॥ २३२ ॥ चिकित्सकास्तत्र वरेण्यमेनं मासैखिभी रोगविमुक्तकायम् । सदौषधीभिर्व्यदधुर्महान्त, ऐच्छचतो मोहमयीं प्रयातुम् ।। २३३ ।। (शार्दूलविक्रीडितम् )-इत्याचार्यशिरोमणेर्जिन कृपाचन्द्रस्य सूरीशितुः, सूरिश्रीजयसागरेण रचिते काव्ये चरित्राऽऽत्मके । सामान्यबति-नैकपत्तनकृत-ग्लो-बाजिसंख्याऽन्वितचातुर्मास-सुवर्णनः समभवत्सर्गो द्वितीयोऽप्यसौ ।। २३४ ॥ ॥ इति द्वितीयः सर्गः।। (अथ तृतीयः सर्गः ) ( उपजातिः) अथाऽसको माधवरम्यमासे, वटोदरात्सनगराद्विहुत्य । विनेयवृन्दैर्जगदेकजिष्णु-ईभोइसंज्ञं नगरं समा-13 गात् ।। १॥ वादिन्दर्जयरावकारि-सुधावकौघैः प्रणदत्सुशकैः । पुरं प्रविश्याऽखिललोकमान्यो, धर्मोपदेश ददिवाञ्जनानाम् ॥ २॥ सीनोरमागत्य ततो विहृत्य, प्रवेशितश्चारुकृतोत्सवेन । वारीव मेघो जनतोपकृत्यै, व्याख्यानधारा सुचिरं ववर्ष ॥ ३॥ (द्रुतविलंबितम् )--जगडियानगरीमयमीयिवा-नुपदिदेश जिनेशनिरूपितम् । परमधर्ममहिंसनलक्षण, सकल For Private And Personal use only

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