Book Title: Jinkrupachandrasurishwar Charitram
Author(s): Jaysagarsuri
Publisher: Jaysagarsuri
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कृती । नाथाभाइसुनामकः शुभमतिः सिद्धाऽद्रियात्राचिकीः, श्रीसचं निरजीगमदहुमुदा षड्रीपमुचैस्तरम् ।। १६२ ।।
( उपजाति: )--तेनैव सत्रा व्यचलत्किलाऽसौ, तुरङ्गादिङ्मानमुनिप्रयुक्तः । शत्रुञ्जयं तीर्थमुदीक्षितुं हि, विशुद्धचारित्रपवित्रदेहः ।। १६३ ॥ श्रीपादलिप्ने नगरे महीयान्, तर्काऽङ्गरन्ध्रक्षितिमानवर्षे । तस्थौ च तस्मिन्महताऽऽग्रहेण, पयोदकालं व्यपनेतुकामः ॥ १६४ ।। नन्दीश्वरद्वीपमरीरचच, श्रद्धालुकः संघजनः समुत्कः । द्विसाधुसाध्वीत्रयदीक्षणं च, महामहेनाऽभवदत्र पुर्याम् ।। १६५ ।। ( रथोद्धता )-उज्जयन्तगिरिमाययौ ततः, शिष्यवृन्दकलितः क्षमान्चितः। तीर्थनाथमवलोक्य हर्षित-चैच जामनगरं कृपान्वितः ॥१६६।। आगतो गुरुवरो मुदान्वितः, सर्वसंघरचितैर्महोत्सवैः । प्राविशत्पुरमथाऽऽग्रहास्थितः, प्रावृपं गमयितुं मुनीश्वरः ।। १६७॥ (प्रियम्बदा)--हय-रस-ग्रह-धरामिताब्दके, भगवतीमिह जनाऽनुरोधतः। जलद-नादसमया सुवाचया, सदसि सर्वजनतामशुश्रवत् ॥१६८।। (भद्रिका)-समवसरणमत्र सुन्दरं, व्यरचि सदुपधान-मप्य भूत् । विविध-रुचिर-सूत्सवोऽभवत्, परमगुरुवरोपदेशतः ॥१६९।। ( वंशस्थम्)-प्रभावना नित्यमपूर्ववस्तुभि-रकारि पूजा विविधोपचारतः । तपांसि भूयांसि बभूवुरत्र हि, ददौ चतुभ्यों गुरुरेष दीक्षणम् ॥१७०॥ ( भद्रिका ) तदनु स हि जगाम मोरवीं, विविध-सुजनकारितोत्सवः। पुरमविशदयं महातपाः, स्व-पर-निगमपारगो महान् ।।१७१।। (रथोद्धता)-शैल-तकेनवचन्द्रवत्सरे, प्राकृपेण्यवसताववाचयत् । आग्रहाद्भगवतीमसौ गुरु:, पाययंत्र सुजनान् कथाऽमृतम् ॥१७२।। (तोटकम्)--तत एष सुरैवतशैलवरं, सहशिष्य उपेत्य ददर्श जिनम् । विमलाऽचलतीर्थमगच्छदितः, प्रणनाम जिनेश्वरमादिविभुम् ।। १७३ ।।
( उपजातिः)-शद्धेश्वरश्रीप्रभुपार्श्वनाथं, ननाम गत्वा स हि भोयणीं च । विहृत्य तस्मादयमाजगाम, राजाऽऽदिकं
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