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जैनत्व जागरण.......
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धर्म जिस परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है वही वेदों में, उपनिषद में महाभारत तथा पुराण साहित्य में कुछ परिवर्तन के साथ स्पष्ट रूप में दिखायी देता है । इसका कारण ब्रह्म आर्यो पर श्रमण संस्कृति का प्रभाव पड़ना था क्योंकि वो उसी से विछिन्न हुए थे । और जिनका प्रभाव हमें उनके साहित्य में मिलता है । यहाँ तक कि वैदिक ग्रन्थ योग वशिष्ठ के वैराग्य प्रकरण १५/८ में राम को भी शान्ति प्राप्ति हेतु जिनेन्द्र की आत्मसाधना का अनुकरण करने की भावना प्रकट करते हुए वर्णित किया है ।
'नाहं रामो न में वांछा, भावेषु च न मे मन, शान्ति मा सितु मिच्छामि, वात्मीय जिनो यथा ।'
अर्हत् शब्द का वर्णन हमें ऋग्वेद में भी मिलता है । जिससे स्पष्ट है कि ऋग्वेद रचनाकाल के पूर्व भारत में अर्हतो का ही प्रभाव था । प्राच्य विद्याओं के विश्व विख्यात् अनुसन्धाता डॉ. हर्मनयाकोबी ने अपनी किताब के नवें पृष्ठ में स्पष्ट लिखा है कि " पार्श्वनाथ जैन धर्म के संस्थापक थे इसका कोई भी प्रमाण नहीं है । जैन परम्परा प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से ही अपने धर्म का उद्भव मानती है "वैदिक साहित्य के अन्तर्गत ऋग्देव में जिस ऋषभदेव का वर्णन मिलता है वही जैन धर्म के ऋषभनाथ है । ऋषभदेव ब्राह्मण धर्म और श्रमण धर्म के समन्वय बिन्दु के रूप में मान्य है । श्री ऋषभदेव के अतिरिक्त अन्य तीर्थंकरो का भी वर्णन वैदिक साहित्य में मिलता है। Bhagwat Purana shour that the Tirthankar Sumati followed the path of Rishabha." - B. R. Kundu (J.J. 1981 Pg. 67)
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जैनधर्म की प्राचीनता के साहित्यिक- पुरातात्त्विक साक्ष्य
भारतीय संस्कृति के आदि स्रोत को जानने के लिए प्राचीनतम साहित्यिक स्रोत के रूप में वेद तथा प्राचीनतम पुरातात्त्विक स्रोत के रूप में मोहनजोदाड़ों एवं हड़प्पा के अवशेष ही हमारे आधार हैं संयोग से इन दोनों ही आधारों और साक्ष्यों से श्रमण धारा के अति प्राचीनकाल में भी उपस्थिति होने के प्रमाण मिलते हैं । वैदिक साहित्य के पूर्व मोहनजोदडों और हड़प्पा के उत्खनन से प्राप्त वृषभ युक्त ध्यान मुद्रा में योगियों की
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