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जैनत्व जागरण.....
विवादों से उपजी उनकी चिंताओं को ही उजागर करते हैं । वस्तुतः वर्तमान में मंदिर एवं मूर्तियों के स्वामित्व के जो विवाद गहराते जा रहे है, वहीं इन लेखों का कारण हैं । किन्तु हम इनके कारण सत्य से मुख नहीं मोड़ सकते है। इन लेखों में जो प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं, उन्हें पूर्वकालीन स्थिति में कितना प्रमाणिक माना जाये यह एक विचारणीय मुद्दा हैं । सबसे पहले उनकी प्रमाणिकता की ही समीक्षा करना आवश्यक है। यहाँ मैं जो भी चर्चा करना चाहूँगा वह विशुद्ध रूप से जैन संस्कृति के इतिहास की दृष्टि से करना चाहूँगा । यहाँ मेरा किसी परम्परा विशेष को पुष्ट करने या खण्डित करने का कोई अभिप्राय नहीं है । मेरा मुख्य अभिप्राय केवल जिन प्रतिमा के स्वरूप के संदर्भ में ऐतिहासिक सत्यों को उजागर करना हैं ।
___ अपने सम्पादकीय में प्रो. रतनचन्द्र जैन से सर्वप्रथम विशेषावश्यकभाष्य का निम्न संदर्भ प्रस्तुत किया है :
जिनेन्द्रा अपि न सर्वथैवाचेलकाः सव्वे वि एग दूसेणनिग्गया जिनवरा चउव्वीस
-इत्यादि वचनात् (विशेषावश्यक भाष्य वृत्ति सह गाथा-२५५१) जब साक्षात् तीर्थंकर देवदुष्य-वस्त्र युक्त होते है जो उनका प्रतिमा भी देवदुष्य युक्त होना चाहिये ।
प्रस्तुत संदर्भ वस्तुतः लगभग छठी शताब्दी का है। यह स्पष्ट है कि छठी शताब्दी में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा एक दूसरे से पृथक को चुकी थी। प्रस्तुत गाथा और उसकी वृत्ति ही नहीं, यह सम्पूर्ण ग्रन्थ ही श्वेताम्बर मान्यताओं का सम्पोषक है, चाहे आचरांग का यह कथन सत्य हो कि, भगवान महावीर ने दीक्षित होते समय एक वस्त्र ग्रहण किया, किन्तु दूसरी ओर यह भी सत्य है कि उन्होंने तेरह माह के पश्चात् उस वस्त्र का परित्याग कर दिया था । उसके पश्चात् वे आजीवन अचेल ही रहे । किन्तु पार्श्व के संबंध में विशेषावश्यकभाष्य का यह कथन स्वयं श्री उत्तराध्ययन से ही खण्डित हो जाता है कि पार्श्व भी एक ही वस्त्र लेकर दीक्षित हुये थे । वस्त्र के संबंध में पार्श्व की परम्परा सन्तरोत्तर थी अर्थात् पार्श्व की परम्परा के मुनि एक अधोवस्त्र (अंतर-वासक) और एक उत्तरीय ऐसे दो वस्त्र धारण करते थे। यहाँ यह भी मानना बुद्धिगम्य नहीं लगता कि किसी भी तीर्थंकर की शिष्य परम्परा अपने गुरु से भिन्न आचार का पालन