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जैनत्व जागरण.....
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प्राचीन धर्म है । सिंधु देशान्तर्गत मोहनजोदडो नामक स्थान से शिवलिंग, शिवमूर्ति आदि ऐतिहासिक युग से भी पहले के अनेक शैवधर्म के प्रमाण पाये गये हैं। ऋग्वेद के देवता रुद्र को कई लोग शिव ही स्वीकार करते हैं। किसी किसी विद्वान् का यह मत है कि बंगाल के प्राचीनतम अदिवासी अंग, बंग पौंड्र आदि tribe के जन समाज में तांत्रिक लिंगपूजा प्रचलित थी । इसी लिंग पूजा के साथ प्रागैतिहासिक शैवधर्म का योग होना कोई विचित्र बात नहीं है । यदि ऐसा हो, तब कहना होगा कि शैवधर्म बंगाल का आदि धर्म था । किन्तु ऐतिहासिक-युग के जिस शैवधर्म का भारतवर्ष में प्रचलन पाया जाता है वह अनेक अंशों में प्राचीन शैवधर्म से स्वतंत्र था । इसी उत्तरवर्ती शैवधर्म को नवशैव नाम दिया जा सकता है । इस नव शैवधर्म का सुस्पष्ट प्रमाण ईसा की प्रथम शताब्दी के कुषाण राजा के सिक्के में पाया जाता है। पातंजल महाभाष्य में शिवोपासना का उल्लेख है। इस उल्लेख के समय से कितना पहले अथवा कितना बाद में इस धर्म ने बंगाल में प्रवेश किया था इस के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता।
इसी कुषाणयुग में ही महायान एवं हीनयान इन दोनों बौद्ध संप्रदायों की उत्पत्ति हुई थी। हम लोग इस बात को जान चुके हैं कि हूंसांग के समय में बंगालदेश में हीनयान और महायान इन दोनों संप्रदायों के ही बौद्ध थे। कुषाणयुग में बौद्धों के जिस नवीन संप्रदाय का उत्पत्ति हुई थी उसी का नाम महायान था । इन्हीं महायान बौद्धों ने प्राचीनपंथक बौद्धों को हीनयान नाम दिया । अतएव यह बात मान सकते है कि हूंसांग के समय बंगाल में जो हीनयान संप्रदाय था वही बंगाल का प्राचीनतम बौद्ध संप्रदाय था। महायान संप्रदाय ने अवश्य ही कुषाण युग के बाद बंगाल में प्रचार पाया था । किन्तु महायान बौद्धधर्म ने बंगाल में कैसे प्रवेश किया इस विषय को विशेष रूप से जानने के लिये हमारे पास कोई साधन नहीं है।
गुप्तयुग में बंगालदेश में शैव, वैष्णव आदि पौराणिक धर्मो के सिवाय वैदिक ब्राह्मण धर्म भी प्रचलित था । सम्राट प्रथम कुमारगुप्त के (ई.स. ४१५ से ४५५) समय के दो ताम्रपत्रों द्वारा (ई.स. ४४३ और ४४८) हम