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जैनत्व जागरण......
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मंदिर निर्माण-शैली से प्रभावित होने की बात कही है । मानभूम के प्राचीन देवालयों का आधार अधिकांशतः रथ माना जाता है । जब आधार भूमि को छोड़कर निर्माण उर्ध्वमुखी बनकर यात्रा करता है, रथ की सूचना वही होती है । यह रथ मूल मंदिर का ही एक अंग है ।
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उड़ीसा के मंदिर निर्माण शैली युगीन परिवर्तन के साथ बदली रही है । लेकिन पुरुलिया की प्राचीन शैलियाँ निर्माण व प्रविधिगत विशेषता लगभग एक सी ही रही है । युगीन प्रभाव का कहीं प्रमाण नजर ही नहीं आता लगता है, जैसे एक ही समय उनकी प्रतिष्ठा हुई हो। असल में पुरुलिया के कलाकार उड़ीसा की निर्माण शैली के युगीन परिवर्तन का अनुसरण न करते हुए प्राथमिक निर्माण तल को प्रयोग करते हुए आगे बढ़े हैं ।
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जैसे घट (कलश) व पत्तों की धारण को छोटा बनाने के लिए दीवार के निचले हिस्से में दूसरी कलाकारियों के साथ युग्मरूप से कुम्भ व पट्ट का सन्निवेश किया जाता है; लेकिन इसका भीतरी अर्थ यहां के कलाकारों की मालूम नहीं । इसीलिये यहाँ कुम्भ पर पाता के बदले खुर नाम का काम देखा जा सकता है। काम की संख्या और प्रकृति में भी फर्क नजर में आता हैं । उड़ीसा के निचले स्तर पर पाँच से अधिक काम नहीं है लेकिन पुरुलिया में कामों की संख्या और सन्निवेश में रीति का अभाव सा दिखता है । विवर्तन के कारण उड़ीसा में जंघा - अंश, तीन उप अंगों में बँट जाता है । पुरुलिया के विरल क्षेत्रों के अलावा इस अंग का एक से अधिक विभाजन नहीं हुआ । जंघा के बीच राहा नामक उभरा हुआ अंश है जिसके दोनों पार्श्ववर्ती रथों पर कतार में खड़े अर्धस्तम्भ पुरुलिया के मंदिरों को एक अलग ही सुंदरता प्रदान करती है ।
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" उड़ीसा में बाड़ और शिखर का विभाजन करनेवाला जो कन्ट का स्थान है उसे बाद में कुछ कामों द्वारा अधिकृत कर लिया गया । पुरुलिया की प्रथा अनुसारी शैली के अन्तिम पर्यायों में भी रेख शैली के देवालयों से कन्ट हटाया नहीं गया । शिखर के मामले में उड़ीसा जैसा पुरुलिया में भी निचला तल विभाजन समकोणीय होता था, लेकिन बाद में वह वर्तुल की आकृति का बनता चला गया ।"