Book Title: Jainatva Jagaran
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Chandroday Parivar

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Page 281
________________ जैनत्व जागरण..... २७९ कला का एक अपूर्व अनुपम उदाहरण है ।" देवालय के निर्माण में जिन ईंटों का इस्तेमाल होता था वे मोटे तौर पर लम्बाई और चौड़ाई में ६ ईंच और ३ ईंच के होते थे । विभिन्न जगहों पर विभिन्न प्रकार के नाप के ईंट व्यवहार में लाए जाते थे । इनमें से सबसे बड़ी ईंट लम्बाई में ९ ईंच और चौड़ाई में ९ ईंच था । लेकिन आज के ईंटों से इनका कोई मेल नहीं है। पर हो सकता है कि ईंटों को बनाने का तरीका समान रहा हो। मिट्टी को पानी के साथ मिलाकर गूंथते हुए काला बनाया जाता था और ' कुछ दिन उसी तरह रखा जाता था । इसे यहाँ जावाई रखना कहते हैं । बाद में उसी मिट्टी को फिर से पानी में नरम करने के बाद साँचे में ढालकर विभिन्न अनुपातों में तैयार कर धूप में सुखाकर काठ से जलाया जाता था। ___ईंट के देवालय कभी बहुत अनुपम होते थे, इसे पाड़ा और देउलघाटा के देवालयों को देखने से मालूम पड़ता है । इसके अलावा लता, फूल, पत्ते, विभिन्न प्रकार के प्राणी, देव देवियों की मूर्ति, नृत्यरता रमणी, नक्शे आदि अपनी सुन्दरता से सबका मन मोह लेते है । पत्थरों से बने देवालयों जैसे ईंटों के देवालयों में भी जलनिष्कासन प्रणाली बनी हुई थी । जिस वेदी पर तीर्थंकर या देव देवियों की मूर्ति बनी हुई थी, वही से नाला निकल जाता था और हाथी, मगरमच्छ या दूसरी कोई आकृति बनी रहती-जिसके मुंह से पानी निकलकर चहबच्चे में जमा होता था । देउलघाटा जाने पर इस व्यवस्था को अच्छी तरह से देखा जा सकता है । हर ईंट का देवालय ही ऊची वेदी पर प्रतिष्ठित था, ऐसा जोर देकर नहीं कहा जा सकता । जैसे पाड़ा के मूल वेदी की ऊंचाई लगभग ४ ईंच ४.५० ईंच है, लेकिन देउलघाटा का मल वेदी बहत कम ऊचा है। प्रस्तर या पत्थर से बने देवालयों का प्रवेश-पथ में जितनी कलाकारी से भरी होती थी, ईंट से बने देवालयों में उतनी कलाकारी नहीं पाई जाती। मानभूम के प्राचीन ईंटों के देवालयों का निर्माणकाल सही रूप में बताना मुश्किल है । परन्तु लगभग १० से ११वीं सदी के समय इनका निर्माण हुआ होगा । कई लोगों का मानना है कि देउलघाटा का देवालय ९वीं से १०वीं सदी में बना है । लेकिन दीपक रंजन दास का कहना है

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