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जैनत्व जागरण.....
से दो की हालत इतनी जीर्ण-शीर्ण है कि कभी भी उन्हें ढहते हुए हम पा सकते हैं।
आज भी एक सवाल मन में झाँकता है कि यहाँ इतने सारे मंदिर कैसे बने ? ये मंदिर किस सम्प्रदाय के थे-या किस समय के है ? सवाल उठता है कि तेलकूपी ही बन्दरगाह क्यों बनी ? इतिहास इन सब सवालों का जवाब नहीं देती । सही रूप से किसी सिद्धान्त तक पहुँचना बड़ा मुश्किल है । तेलकूपी के मंदिरों का आनुमानिक समयकाल दसवी-ग्यारहवी सदी ई० है । उसी समय बंगाल में पालवंश का शासन चल रहा था । जैनधर्म का प्रचार-प्रसार उस समय समस्त बंगाल में फैला हुआ था । इस विस्तार में जैन व्यवसायी काफी उत्तरदायी थे । ये लोग ताम्बे के व्यवसायी थे। उस जमाने के दो विख्यात ताम्बे के खान थे-तामाजुड़ी और तामाखुन । इन सब खानों से जैन व्यवसायी एक सड़क मार्ग से ताम्बा लाकर तेलकूपी बन्दरगाह में नाव पर चढ़ाते थे । उस जमाने में सड़क मार्ग मान बाजार पुरुलिया, छड़रा, पाड़ा, शाँका, मंगलदा, बान्दा होकर तेलकूपी पहुँचता था। इन सब खानों से जैन व्यवसायी एक सड़क मार्ग से ताम्बा लाकर तेलकूपी बन्दरगाह में नाव पर चढ़ाते थे । उस जमाने में सड़क मार्ग मान बाजार, पुरुलिया, छड़रा, पाड़ा, शाका, मंगलदा, बान्दा होकर तेलकूपी पहुँचता था। इन अंचलों में पुरुलिया के अलावा लगभग सभी स्थानों में पुरातात्विक अवशेष बिखरे पड़े है । बान्दा या पाड़ा में एक-दो देवालय अब भी बचे हुए है। जैन व्यापारियों ने विश्राम के लिये और रात गुजारने के लिये अपने अपने अभीष्ट देव देवियों की प्रतिष्ठा की थी। इसके बाद में जैन व्यापारी दामोदर नदी पर अवस्थित तेलकूपी बन्दरगाह से होते हुए नाव से ताम्रलित बन्दरगाह तक पहुँचते थे । उसके बाद ये व्यापारी ताम्रलिप्त होते हुए सागर की तरफ यात्रा करते थे। इसके अलावे एक जातीय सड़क या राजमार्ग का भी हमें पता लगता है । उस समय के इस राजमार्ग का फैलाव काफी लम्बा था । मेदिनीपुर से तमलुक होकर उत्तर दिशा में रूपनारायण नदी के पश्चिम तट के बराबर घाटाल अंचल के क्षेपुतपुरदासपुर पाना घाटाल होकर शिलावंती नदी पार कर कभी उसे दाहिने या