Book Title: Jainatva Jagaran
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Chandroday Parivar

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Page 280
________________ जैनत्व जागरण... २७८ आकृति देवालय के अनुरूप या कहीं-कहीं स्तम्भ के अनुरूप है । पाड़ा में इसी कारण देवालय पर अनेक छोटे छोटे देवालयनुमा आकृति देखने को मिलती है । धनबाद जिले के पाँड़रा में पत्थर से बने कविलेश्वर मंदिर पर भी सैकड़ों देवालय जैसे आकृति दिखाई देती है । पुरुलिया में ईंटों के देवालयों की निर्माण शैली का विवरण देते हुए दीपक रंजनदास लिखते हैं- किसी किसी पत्थर से बने मंदिर में एक घेरने की रीति पाई जाती थी, जहाँ फीते जैसा बैडकर जंघा की के शीर्षस्थान को घेरने की रीति थी । एक गहरा कंठ अपने दोनों आनुभूमिका प्रान्तों के बराबर घने रूप से सम्बद्ध, दो भारी काम द्वारा सृष्ट वर, बाड़ व शिखर को स्पष्टतः विभाजित करता था । शिखर की उच्चता हर जगह पर दीवार की उच्चता से अधिक थी । नीचे अनुपस्थित शिखर का वक्रभाव उर्ध्वमुखी होने से कारण शिखर एक सरलरेखा में खड़ा सा दिखता था । वर्तुल आकृति की भूमि आमलक द्वारा शिखर को कई भूमिगत आधारों पर बाँट जाता था । आज जबकि इस प्रकार के सारे मंदिर शीर्ष ढह चुके हैं, इसीलिए यह कहना मुश्किल है कि शिखर का भूमितल किसी निर्दिष्ट संख्या में बाँटा जाता था या नहीं । शिख़र पर अंगशिखर होने पर भी वह कभी भी स्वतंत्र सत्ता में प्रकट न हो सका । इसीलिए मंदिर का लम्बा सा ढाँचा सीधा और स्पष्ट प्रकट होता था । शिखर के निचले हिस्से में एक बड़े चैत्य जनले ( गवाक्ष) का नक्शा देखने लायक है । देवालय पर दिखाए गए देवालय की अनुकृति से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ढह चुके शीर्ष पर स्थापित मशुक को बेकी, आमलक खपुरो और कलश द्वारा दिखाया जाता था । ईंट से बने लगभग सभी देवालयों में चूने का लेप लगाया जाता था, इससे जहाँ बारिश और धूप से देवालयों की रक्षा होती थी, वहीं चूने पर नाना प्रकार की चित्रकारी करना व नक्शे उतारना बड़ा आसान था । चूना नर्म रहते समय ही उस पर चित्रकारी की जाती थी । दीपक रंजन दास कहते हैं ‘“कंच्चा रहते समय चूने के लेप पर जिस प्रकार के नक्शे बनाए गए और चित्रकारी की गई उस दृष्टिकोण से ये देवालय भारतीय =

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