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जैनत्व जागरण.....
था। ऋषभदेव के गोत्र से प्राचीन और कौन सा गोत्र हो सकता है। केवल ऋषभदेव गोत्र को ही घुमा फिरा कर प्राचीन गोत्र कहा गया है । अतः भद्रबाहु भी इसी अंचल के निवासी थे, इसमें कोई सन्देह नहीं है । भद्रबाहु के जन्मस्थान को लेकर कई मत हैं । कइयों ने उन्हें पुण्ड्रवर्द्धन का बताया है। फिर भी पुण्ड्रवर्द्धन को लेकर इतिहासकारों में काफी मतभेद है। कहींकहीं उन्हें कोटि वर्ष का भी कहा गया है । इतिहासकार डॉ. रमेशचन्द्र मजुमदार (History of Bengal, Vol. pp - 409-10) एवं देवी प्रसाद घोष (Traces of Jainism in Bengal, Jain Journal, Vol-XVIII No. 4, April 1984) ने भद्रबाहु को राढ़ का निवासी बताया है। ऋषभदेव या आदिदेव गोत्र यहाँ के सराकों में मिलता है ।
तीसरे लौहाचार्य कुमान सेन थे। वे मूल संघ से बहिष्कृत किए गए थे एवं बहिष्कृत होकर उन्होंने काष्ट संघ की स्थापना की थी। जिस गाँव के नाम पर उन्होंने काष्ट संघ की प्रतिष्ठा की थी, वह गाँव कास्ताजाम उत्तर में अजय नदी के किनारे आज भी मौजूद है । अतः हम निःसंकोच यह कह सकते हैं कि लौहाचार्य कुमान सेन इसी सराक बहुल अंचल के निवासी
थे ।
__ भद्रबाहु अपने समय के सबसे अधिक प्रभावशाली धर्म प्रचारक थे। कहा जाता है वे मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के गुरु थे । चन्द्रगुप्त ने उन्हीं की प्रेरणा एवं प्रभाव से जैन धर्म ग्रहण किया था ।
भद्रबाह रचित कल्पसूत्र में गोदास गण का उल्लेख पाया जाता है। वहाँ गोदासगण की कई शाखाओं में चार शाखाओं को बंगाल से सम्बन्धित बताया गया है। यथा : ताम्रलिप्तियां-तमलुक शहर के, कोटिवर्षिया-दिनाजपुर के निकटस्थ वानगढ़ के, पुण्ड्रवर्द्धनिया-वगुड़ा के निकटस्थ महास्थान गढ़ के और दासी खर्वटिया-मेदिनीपुर के समीप कर्वट के । ये सभी स्थान जैन धर्म के प्रभाव क्षेत्र थे ।
जैनाचार्यों का लौहाचार्य होना ये स्पष्ट करता है कि ये लोग लौह शिल्प के पंडित थे जिन्होंने सराक जाति को लौह शिल्प में दक्ष किया। भगवान ऋषभदेव तथा अन्य तीर्थंकरों के बाद प्रजा को शिल्प कला में