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जैनत्व जागरण.....
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जैन समाज को दी गई यह अमूल्य धरोहर भी हमारे हाथों से रेत की तरह फिसलती जा रही है । आखिर क्यों हम हर क्षेत्र में समृद्ध होते हुए भी अपने तीर्थ क्षेत्रों की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं ? जैन समाज का प्रत्येक वर्ग शिक्षित है, अधिकांशतः लोग धन से समृद्ध है । ऊँचे पदों पर हैं । इन सबके बावजूद ऐसी क्या कमी है कि हम अपनी धरोहर को सहेज पाने में पिछडे जा रहे हैं ? उनकी रक्षा करने में असफल हो रहे हैं ? नए मंदिर, तीर्थ इत्यादि बनाने की होड़ में कहीं हम अपने इतिहास, अपनी धरोहर से विमुख तो नहीं हो रहे हैं ? समाज के प्रत्येक छोटे-बड़े कार्यक्रमों की बड़ी बड़ी पत्रिकाएँ छपवाकर, उनमें उपस्थित हुए प्रत्येक व्यक्ति का माला, शाल, प्रतीक चिह्न इत्यादि से सम्मान करने में व्यस्त कहीं हम अपने जिन धर्म के सम्मान को तो नहीं भूल रहे हैं ? विचार करें । कमी किसी एक में नहीं, कमी हम सब में है और उसको सुधारना भी हमें खुद ही
. सातवीं-आठवीं शताब्दी के बाद जैन धर्म पर भयंकर हमले हुए और उनके परिणामस्वरूप पूरे भारत में हजारों मंदिर परिवर्तित किए गए । समय व परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं थीं । लेकिन आज समस्त परिस्थितियों के अनुकूल होते हुए भी यह सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। आज भी आए दिन तीर्थ अतिक्रमण का समाचार मिलता रहता है । समस्या है हमारा मौन । अतिक्रमण के प्रारंभ में ही हम विरोध नहीं करते, इस ओर ध्यान नहीं देते और धीरे-धीरे अतिक्रमण बढ़ता जाता है। हमारे मौन को
और हमारे सिद्धांत 'अहिंसा' को हमारी कमजोरी और कायरता समझकर हमें सदियों से ठगा जा रहा है।
सभी से निवेदन है खासकर युवा वर्ग से कि इस ओर ध्यान दें । अतिक्रमण के प्रारंभ में ही उसका विरोध करें और प्रयास करें कि वह वही समाप्त हो जाए । अतिक्रमण को गंभीरता से लें, नजर अंदाज न करें अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब सभी जैन तीर्थों का हाल गिरनार और खंडगिरि जैसा होगा ।
आवश्यकता है जैन समाज के सभी वर्गों के लोगों को एकसूत्र में