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जैनत्व जागरण....
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उल्लेख मिलता है । यहाँ पर व्रात्य क्षत्रियों का राज्य था, श्रमण संस्कृति का प्रभुत्व था, जैनाचार्यों द्वारा लोगों को विभिन्न प्रकार की कला की शिक्षा देकर दक्ष बनाया जाता था । उस समय एक भी गाँव या शहर ऐसा नहीं था जहाँ साधारण जनता के अंग में अलंकार न हो, जो श्रमण संस्कृति की समृद्धि का महत्वपूर्ण परिचायक था । बड़े-बड़े राजाओं, शासकों, श्रेष्ठियों और साधारण लोगों के जीवन चरित्र के वर्णन में इसकी झलक दिखाई पड़ती है । एक उच्चकोटि का श्रावक भी अपने कार्यकलापों से अपने यहाँ रोजगार करने वाले लोगों की सुख-सुविधा और जीवन यापन का ध्यान रखता था तथा उनका स्तर ऊँचा उठाने के लिये प्रयत्नशील रहता था । यही वास्तविक कारण था यहाँ की समृद्धि का । बाद में यही समृद्धि बाहरी जातियों के आकर्षण का केन्द्र बनी एवं यहाँ आगमन का जरिया बनी । ऋग्वेद में वर्णन है कि यहाँ की सम्पदा और समृद्धि को हड़पने के लिये किस तरह इस क्षेत्र में आक्रमण किया गया और जब सहजता से नहीं जीत सके तो जीतने के लिये दूसरे उपाय किये गये और धोखे से आक्रमण कर विध्वंस किया |
इस अंचल में धातु की प्रचुरता होने के कारण स्वाभाविक रूप से यह आशा की जा सकती है कि धातु-युग के सूत्रपात के समय से ही यहाँ एक समृद्ध धातु सभ्यता की स्थापना हुई थी। जिसके कारण यहाँ के निवासी उस समय के भारतवर्ष के अन्य अंचलों के निवासियों की तुलना में आर्थिक रूप से कहीं अधिक सम्पन्न थे ।
इनकी सम्पदा एवं समृद्धि के लिए सप्तसिन्धु के वैदिक आर्यों की ईर्ष्या व द्वेष तथा इनकी धन-सम्पति हथियाने के लिए सप्तसिन्धु के निवासियों ने आक्रमण किया । ऋग्वेद संहिता पर दृष्टिपात करने पर एक जाति विशेष हमारा ध्यान आकर्षित करती है जो हिरण्य और मणि द्वारा शोभायमान थी । व्यवसाय में दक्ष, जो रूप और सन्तान पर गर्व करती है, जो धनी, जो खाने-पाने में रुचिसम्पन्न, जो धन की खोज में सामुद्रिक यात्रा करते, लेकिन वे इन्द्र को नहीं मानते, जो देवहीन थे, यज्ञोविहीन, जो देव निन्दक, जो ऋषियों को दान नहीं देते, जिनका दर्शन भी देवविहीन है ।