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जैनत्व जागरण.......
नेता या पाट के वस्त्र बुनते थे । सराकगण मध्य युग के दक्ष वस्त्र शिल्पी थे, इसे स्वीकृत करते हुए कवि कंकण मुकुन्दराम चक्रवर्ती अपने चण्डी मंगल में लिखते हैं
सराक बसे गुजराटे जीव जन्तु नाहि काटे सर्वकाल करे निरामिष ।
पाईया इनाम बाड़ी, बूने नेत पाट साड़ी देखि बड़ वीरेर हरिष ॥
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"उस समय वस्त्र शिल्प की दक्षता दिखाकर बाड़ी (इनाम) पाने की. योग्यता एकमात्र सराकों में ही थी । कट्टर ब्राह्मण लोग सराकं वस्त्र शिल्पियों को अच्छी वृष्टि से नहीं देखते थे । वे लोग समय-समय पर सराकों को जुलाहा कहकर उपहास करते थे । इसी का निदर्शन ब्रह्म वैवर्त पुराण में पाया जाता है | सराकगण वस्त्र बुनने का कार्य करने लगे थे इसीलिए ब्रह्म वैवर्त पुराण के रचयिता ने उन्हें जुलाहा कहकर अभिहित किया । क्योंकि उस समय जुलाहे ही कपड़ा बुनते थे । लेकिन जुलाहों का कपड़ा मोटा अर्थात् खुंगार वस्त्र होता था । किन्तु सराकगण मोटा वस्त्र नहीं बुनते थे वे लोग तसर शिल्पी थे । पाट और तसर के वस्त्र देश के बड़े-बड़े लोग पहनते थे । अत: ब्रह्म वैवर्त पुराण का कथन भ्रम मूलक है ।" ( युधिष्ठिर माझी)
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पाषाण शिल्प :
सराक जाति तात शिल्प, मूर्तिशिल्प तथा ताम्र और लौह आदि के खनन में दक्ष थी । कल्प सूत्र में लिखा है कि ऋषभदेव ने पुरुषों को बहत्तर कलाएं, स्त्रियों को चौसठ कलाएं तथा सौ प्रकार के शिल्प कर्म प्रजा को सिखाये । प्रजा को कलाओं में शिक्षित कर एक शिल्पी वर्ग तैयार किया था । तो क्या यही वर्ग आज के सराक है ? मि. कूपलैण्ड ने भी सराकों को कला दक्ष शिल्पी जाति कहा है । उनके द्वारा निर्मित पाषाण शिल्प के निदर्शन इस पूरे क्षेत्र में सर्व विखरे पड़े हैं ।