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जैनत्व जागरण.....
भी जमीन के नीचे पड़ी हुई है लेकिन इन महत्वपूर्ण मूल्यवान मूर्तियों के संरक्षण के प्रति सरकार का कोई आग्रह नहीं है।" ये हमारी प्राचीन धरोहरें आज भी उपेक्षित पड़ी हुई है । प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता का किस प्रकार पतन हुआ और आज भी पतन हो रहा है जिसकी कहानी सुना रहे हैं ध्वंसपथ के ये भाष्यकर्य शिल्प निदर्शन । आश्चर्य चकित हो गयी यह देखकर कि दक्षिण राढ़क्षेत्र की धरती के नीचे एक अत्यन्त प्राचीन ऐतिहासिक सराक शिल्पकला नीरव होकर एकान्त में अश्रु विसर्जन कर रही है । गाँव के लोग मानसिक व सामाजिक मान्यता पूरी करने के लिए इन मूर्तियों के सामने पशु-बलि भी देते हैं । अहिंसा धर्म के साधक पुरुष महान् तीर्थंकर की आँखों के सम्मुख ही रक्त से मिट्टी भीग जाती है। बकरियाँ और उनके शिशुओं की आर्त चीत्कार और ताजे रक्त स्त्रोत से जिस वीभत्स परिवेश की सृष्टि होती है इसके लिये केवल हमारी सरकार की नीतियाँ ही नहीं बल्कि समस्त जैन समाज भी इसका उत्तरदायी है । इसी प्रकार अजयनदी के तट पर कुछ प्राचीन स्तूप आज भी जीर्ण अवस्था में प्राप्त होने है । पुरातत्त्वविध पी.सी. दासगुप्ता इनको महावीर कालीन या उससे पूर्व व्रात्य युग की बताते हैं । ये आज भी उपेक्षित पड़ी हुई है। ___ दिनांक ३ जून Times of India में Lost city of the Jains नामक लेख में आसनसोल से २० किलोमीटर पुचड़ा गाव का वर्णन है। पुचड़ा का अर्थ है पंच चुरा अर्थात् पाँच मंदिर । वहाँ के इतिहास के विषय में लिखा है कि Twenty kilometres from Asansol, humpy road takes you to Punchra, a forgotten part of history where time has stood still for centuries. There are 50 families here-with a shared past like none else in the country. This is the only abode of the Bengali Jains. At first glance, the temples, the deities', and the numerous carved stones lying scattered in the dense undergrowth.
Most of the Jain families of Punchra lead a life of abstinence. They don't even eat onions, potatoes and masu
dal.