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जैनत्व जागरण....
निष्ठा और सत्यता के विषय में लिखा है- “There name is a variant of Sravaka (Sanskrit hearer), the designation of the Jain laity; they are strictly vegetarians never eating flesh and on so account taking life and if in preparing their food any mention is made of the word 'cutting' the omen is deemed so disastrous that everything must be thrown away.”
जो वस्तु रक्त-सील लाल होती है सराकगण वह वस्तु खाना पसन्द नहीं करते । लाल पुई, गाजर, लाल सीम आदि खाना उनमें निषेध है । इसके अतिरिक्त कुकुरमुत्ता, डुमुर आदि पदार्थों को तो रसोई घर में ले जाना ही मना है। इस प्रसंग में एक सुन्दर कहावत प्रचलित है। लोकगीत के अंशरूप इस कहावत में कहा गया
उमुर डुमुर पुडंग छाति, तिन खायना सराक जाति
सराकों में कोई भिक्षावृत्ति का आचरण नहीं करता । फिर इनमें कोई प्रशासनिक दायित्व पर नहीं है। इनके समाज में डॉक्टर, इंजीनियर, विचारक आदि उच्च पदाधिकारियों का बहुत अभाव है । अतः आर्थिक दृष्टि से ये पिछड़े हुए हैं । पुरुलिया के सराकों में जैसे खेत मजदूर, मिल मजदूर कम हैं, वैसे ही डाक्टरों एवं विचारकों की संख्या भी नगण्य है। किन्तु, शिक्षक हैं । यहाँ के सराकगण अध्यापन कार्य को जीवन व्रत के रूप में ग्रहण करते हैं। इसके अतिरिक्त जिला के प्रगतिशील कृषक रूप में इनका बहुत नाम है।
सराक समाज के शिल्प श्रमिक वर्धमान जिले में अधिक पाये जाते हैं । यहाँ के सराकों की आर्थिक स्थिति भी अन्य सराकों की अपेक्षा अच्छी है। इस जिले के सराक परिवार के चालीस प्रतिशत से भी ज्यादा सदस्य दुर्गापुर आसनसोल के शिल्प अंचल और कोयले की खान में नौकरी करते हैं। दूसरी ओर बांकुड़ा में मात्र दस प्रतिशत और संथाल परगना में बाईस प्रतिशत लोगों ने नौकरी पेशा ग्रहण किया है । बाँकुड़ा जिला और संथाल परगना के सराक लोगों की कृषि आय पहले की अपेक्षा कम हो गयी है।