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जैनत्व जागरण.....
के भी संस्थापक थे । “अजय" नदी के दोनों किनारो पर रूपनारायणपुर से पांडवेश्वर तक ९० मील की दूरी अवधि पर्वत समान लोह सूप एवं लोह चुल्लि थे, उसके साथ भी सराक संम्प्रदाय के लोग युक्त थे । जैन साहित्य में इसका उल्लेख मिलता है ।
जैन साहित्य में यह भी उल्लेख मिलता है कि प्रथम लोहाचार्य थे, सुधर्मास्वामी, वे बंगाल के वासिन्द थे । जैन धर्म के पंडितवर्ग इनको लौह शिल्पियों के गुरु कहते थे । द्वितीय लोहाचार्य थे कल्प सूत्र कार भद्रबाह स्वामी । डॉ. रमेशचन्द्र मजुमदार ने (History of bengal Vol. P.P. 40910) भद्रबाहु कोढ़ देश के वासी बताकर उनका वर्णन किया है । भद्रबाहु स्वामी आदि अनेक मुनिगण सराक परिवार की सन्तानें थी । इनके प्रयत्न से भारत वर्ष के पूर्वांचल मे लोहशिल्प का "सुवर्णयुग" आया था ।
सर्वोपरि कहा जा सकता है, कि सराक जाति पुरूलिया जिले के (पूर्व के मानभूम) वासिन्दा थी। एवदंचल के सराकों का उल्लेख ग्रन्थ में आलेखित है।
“The early Medieval Jain merchants of Purulia have left behind a community called "Sravak" meaning Jain laity. The Saraks of Purulia are Jain in their faith and practice, and most of them are in trade, commerce and business, The Majority of them Unlike the immigrant Jains of modern times, live in rural areas and survive as Money - lenders and small traders
792 (West-Bengal District Gazetteers' Purulia Cal1985, P.P. 83-84)
प्राक्मध्ययुगीय जैन वणिकों ने फैसला करके पुरूलिया में कुछ श्रावकों को रखकर सारे देश छोडकर अन्यत्र चले गये थे । पुरुलिया के सराको में आज भी वणिकत्व परिलक्षित होता है, मगर अति सामान्य । अधिकतर श्रावक (सराक) वर्तमान में ग्राम्य जीवन व्यतीत कर खेतीबाड़ी से अपनी आजीविका करते है।