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जैनत्व जागरण .......
→ सराकों मे सतीदाह प्रथा नहीं है । फूलशय्याकी प्रथा सराकोंमें नही है ।
पुरूषों का भी पुनः विवाह नहीं होता है, और कभी होता है तो प्रथम स्त्री से सन्तान न होने से प्रथम स्त्री के मतानुसार पुनर्लग्न होता है ।
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सराक आहार विज्ञान
सूर्योदय के पहले एवं सूर्यास्त के बाद सराकगण आहारादि नहीं करते है, जो ई. टी. डलटन ने अपने एक ग्रन्थ में कहा है ।
आखिर सराक तो जैन धर्मावलम्बी है। जैन धर्म में अभक्ष्य अनन्तकाय भक्षण एवं रात्रिभोजन निषेध है ।
वर्तमान कालमें न्यूनाधिक इन आचारोंका ह्रास होता जा रहा है । बंगाल की सारी प्रजा जहाँ आमिषभोजी (मांसाहारी) है वहां मात्र सराक ही ऐसी एक जाति है जो निरामिषभोजी ( शाकाहारी ) है ।
वनस्पतिमें से अनन्तकाय "बहुबीज" बिलाडी की टोप एवं क्षुद्र फल वे (सराक) नहीं खाते है, वर्षो से यह प्रथा चालू है । वैष्णव सम्प्रदाय के संस्पर्श में रहकर सराकगण वर्तमान मे मूली, गाजर, आलु, सकरिया, रिंगना, अद्रक खानां प्रारंभ किया है, फिर भी सामाजिक अनुष्ठानमें इन चीज़ों का प्रवेश निषेध है । जामफल एवं टमाटर के बीज निकाल कर ही सराक महिलाए सब्ज़ी बनाती है । रिंगना जाति के फलों को भक्ष्य नहीं मानते है ।
सराकों में बासी चिज खानेकी प्रथा नहीं है। खीर, रोटी, दालभात, मुडि (ममरा) शाकभाजी इनके मुख्य आहार है । उत्तपम, ढोसा, चावल के पुडले, पुडी, बुंदी, रसगुला आदि अनुष्ठानिक आहार है । वे सुबह मुडि (ममरा) चटनी एवं शाम को दाल, रोटी, भात, सब्जी भोजन में लेते है
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ककड़ी सिवाय दूसरी सब्जी जातीय फलों को कच्चे नहीं खाते है सराको के पास अपनी मालिकी के तालाब में किसीको भी मछली चास करने नही देते है ।